Sunday, July 27, 2008

कुछ ख्वाब सिसकते रहते हैं....


{वो मेरे दिल के बहुत करीब रहती है,उसके लबों से निकला सच है जिसे बस मैंने अपने कलम का सहारा दिया है} 
वो हमारे ही आस पास की एक औरत है. ज़रूरी नहीं कि मैं उसका नाम लूँ, मैं उस से मुन्स्लिक अपने रिश्ते के बारे में बयान करूँ, ये भी ज़रूरी नहीं है. वो आपके आस पास की भी हो सकती है. 
उसका दर्द कहने को बडा आम सा है, कुछ लोग शायद इसे पूरी तरह समझ ना पायें. कई लोगों की नज़रों में वह एक मुतमईन जिंदगी गुजार रही है लेकिन शायद ये सच नहीं है. वो लम्हा-लम्हा मर रही है. ऐसे जैसे स्लो poison का असर बहुत आहिस्ता-आहिस्ता इंसान से जिंदगी का राबता छीनता चला जाता है, वैसे ही बहुत कुछ करने की आरजू होते हुए भी कुछ न कर पाने की तड़प उसे पल-पल जिंदगी से दूर ले जारही है. 
बडी आम सी कहानी ही उसकी. 
बचपन से आला तालीम हासिल करने का जूनून दिल में लिए शऊर की मंजिलें तै करती हुई उस लड़की को मालूम ही नही था कि वो एक ऐसे घर में परवरिश पारही है जहाँ बेटियों और बेटों को अलग अलग निगाहों से देखा जाता है.
वो अपना जूनून साथ लिए, कामयाबी की मंजिलें तै करती जारही थी. उम्र के उस हिस्से में जब आम लड़कियों की आँखों में किसी अनजान शहजादे के हसीं ख्वाब खुद बखुद दर आते हैं, जाने क्यों, किसी शहजादे ने उसके ख़्वाबों की सरज़मीन पर कदम नहीं रखा. 
ख्वाब उसकी आँखों में भी उतरे लेकिन उन ख़्वाबों में भी उस ने खुद को कभी डाक्टर के रूप में देखा तो कभी इंजीनिअर के रूप में, कभी वो रिसर्च में खुदको मसरूफ देखती तो कभी आई.ऐ.एस ऑफिसर के रूप में अपने मुल्क की खिदमत करते हुए. उसे पता ही नहीं चला कि उसके माँ बाप चार चार बेटियों की लाइन से वहशतजादा हैं और उन्होंने उस वहशत का इलाज अपनी बेटियों को तालीम की दौलत से आरास्ता करने के बजाये जल्द से जल्द उनकी शादी को माना और महज़ दसवीं के बाद उसकी शादी कर दी. 
वो वक्त ही ऐसा था या शायद बचपन से ही माँ बाप के किसी हुक्म के खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत ही नहीं दी गयी थी उन्हें. वो भी इनकार नहीं कर सकी लेकिन उसके खामोश आंसू चीख चीख कर उनके फैसले से इनकार करते रहे लेकिन शायद उसके माँ बाप ने उन चीखों को सुना ही नहीं या सुन कर भी अनजान बन गए. 
उसकी शादी हो गयी, लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि शादी के बाद जिंदगी को उसने नहीं गुज़ारा, जिंदगी ने जैसे उसको गुज़ारा. 
ऐसा नही था कि वो कोई ना-आसूदा(असंतुष्ट) जिंदगी गुजार रही थी. शौहर अच्छी पोस्ट पर थे,अपने सारे फरायेज(कर्तव्य)  
 भी पूरे करते थे और शायद उस से प्यार भी करते थे. खूबसूरत घर, प्यारे प्यारे बच्चे, वो अपने फराएज़ और जिम्मेदारियों में पूरी तरह खो गयी. 
उसकी मेहनत उसके घर की खूबसूरती और बच्चों की तरबियत और उनके स्कूल के सालाना(yearly) रिज़ल्ट में साफ़ साफ़ दिखाई देती है. 
इस दरमियान एक दिलचस्प बात हुयी,बदलते वक्त ने उसके माँ बाप को बेटियों की तालीम की अहमियत और ज़रुरत वाजेह(स्पष्ट) कर दी और आज उसकी अपनी बहनें आला तालीम हासिल कर चुकी हैं. 
वो जब भी उन्हें एख्ती है,उसके दिल की अजीब कैफियत हो जाती है, कभी तो उनकी कमियाबियों पर बहुत खुशी महसूस करती है और कभी कभी वो सब उसे उसके ख़्वाबों के कातिल नज़र आते हैं. 
क्योंकि अपनी जिम्मेदारियों और फराएज़ से बहुत दूर उसकी दिल की धरती के किसी कोने में दफन उसके वो ख्वाब आज भी सिसकते रहते हैं. ऐसा नहीं है कि उसने उन ख़्वाबों की ताबीर पाने कि कोशिश नहीं कि. उसने अपनी इन ख्वाहिशों का इज़हार एक बार नहीं, कई कई बार किया लेकिन जाने क्या होता था, जब जब उसने अपने ख़्वाबों की ताबीर पाने की कोशिश कि, उसके घर का माहौल घुटन ज़दा हो जाता गया. काफी सुलझे हुए मिजाज के मालिक उसके शौहर को बात बात पर गुस्सा आने लगता था. वो गुस्सा कभी घर पर, कभी उस पर और कभी बच्चों पर बहाने बहाने से उतरने लगता और वो सदा की बुजदिल लड़की इस घुटन से वहशतज़दा, हर बार अपने ख़्वाबों को बडी खामोसी दफ़न कर देती है. 
बस--
 सब ठीक होजाता है. शौहर का रवैय्या, घर का माहौल, एक मुतमईन खुशहाल आसूदा फैमिली जो किसी के भी रश्क करने का बाईस हो सकती है. क्या हुआ…कुछ ख्वाब ही तो टूटते हैं , और ख़्वाबों का क्या है, कमबख्त बेवजह आँखों में उतर आते हैं और सारी जिंदगी आँखों में किर्चियों की सूरत चुभन देते रहते हैं......
कटे पंख...
(खामोश लबों की पुकार) 
मैं जिस वक्त और समाज में जी रही हूँ. उसमें दो किस्म की औरतें हैं. एक वो जो बदलते हुए वक्त में तरक्की के रास्तों पर मर्दों के कन्धों से कन्धा मिला कर चल रही हैं और एक वो जिन्हें तरक्की के मानी तक मालूम नहीं. जो बस जी रही हैं क्योंकि ये जिंदगी उन्हें जीने को मिली हुयी है.
दिलचस्प बात ये है कि उन्हें इस बात का कोई गम भी नहीं है क्योंकि उन्होंने खुद को पहचाना ही नहीं है इसलिए कुछ न कर पाने का उन्हें मलाल(दुःख) भी नहीं है.
मेरी ट्रेजडी ये है कि मैं इन दो किस्मों में से किसी एक में भी फिट नहीं आती.
खुद से आशना तो हूँ लेकिन उड़ने को पंख ही नहीं हैं.
कोई भी औरत तरक्की के आसमान में तभी उड़ सकती है जब उसके पास आला तालीम के पंख मौजूद हों. ये पंख ही उसे self-depend बनाते हैं. जाहिल औरत ज़माने में बगैर पंख के होती है. लेकिन उस जाहिल औरत के लिए भी इत्मीनान की बात ये होती है कि उसे अपने पंखों से आशनाई ही नहीं होती, मतलब वो जानती ही नहीं कि मुझे ये पंख नसीब हो सकते थे और इन पंखों के ज़रिये उड़ान भर कर वो कितने आसमान तलाश कर सकती थी. वो अपनी मौजूदा जिंदगी को ही अपना नसीब मान कर जीती और मरती है.

तड़पती और घुटती तो वो औरत है जिसे पंख देकर काट लिए जाएँ.
वो तालीम तो हासिल कर ले लेकिन अधूरी.
कहते हैं ना, अधूरापन सब से ज़्यादा दुःख देता है. टांगें रखने वाले इंसान की टांगें हादसे में कट जाएँ तो वो सारी जिंदगी जिंदा रह कर भी जिंदा लाश जैसी जिंदगी गुज़रता है.
कुछ न कर पाने की तड़प, अपनी खूबी से आशना होते हुए भी उसे दुनिया के सामने ना ला पाने की घुटन---शायद वही समझ सकता है जो इन हालात से गुज़र चुका हो. कि कैसा महसूस होता है जब अपने जैसी औरतों को तरक्की के खुले आसमान में उड़ते हुए देखती हैं और हसरत से देखती रह जाती हैं.
उड़ना चाहें तो कटे हुए पंख का जान लेवा दर्द दो कदम पर ही ज़मीन में गिरा देता है.
आह...जी चाहता है, वक्त को वापस मोड़ कर उस दौर में ले आयें जब वो तालीम हासिल कर रही थीं. हालात चाहे जैसे भी हों, उन्हें अपने मुताबिक मुड़ने पर मजबूर कर दें. दुनिया की कोई मजबूरी इन क़दमों को रोक न पाये. कोई एहतराम कोई रिश्ता उनके पंखों की कुर्बानी ना ले सके.
लेकिन लम्हे जो गुज़र गए, उन्हें वापस कौन ला सका है भला. अब तो घुट घुट के जीना और हसरत से उड़ान भरती अपनी कौम को देखते रहना है.




Monday, July 21, 2008

वो आईना तो ख़ुद हस्ती में तेरे रहता है...



कभी कभी ऐसा होता है न कि जब हम नसीहतों की बडी सी टोकरी लिए सारे ज़माने को बांटने की कोशिश कर रहे होते हैं तो पता नहीं क्यों, अपना हिस्सा बचाना भूल जाते हैं . शायद हमारे लाशऊर में कहीं न कहीं ये गुमान होता है कि हमें इसकी ज़रुरत नही है .
वो तो जब किसी और के हाथों से सच्चाई के चन्द टुकड़े अपने मुंह में रखते हैं तो बडी शिद्दत से अहसास होता है कि इसकी थोडी ज़रुरत तो हमें भी थी.
अपनी पिछली पोस्ट मैंने अपना आस पास बिखरी मग्रिबी रंग में लुथड़ी ज़हनियत से सख्त नाराज़ हो कर लिखी थी.
अपने दोस्तों रिश्तेदारों क्लास फेलोस की ज़हनियत से बडी कोफ्त का शिकार थी. अपनी सारी नाराजगी, अपना सारा गुस्सा उस पोस्ट के ज़रिये निकालते हुए मैंने जाने अनजाने में खुद को उस से अलग रखा.
एक लम्हे के लिए भी ये अहसास नहीं जागा कि कहीं इस भीड़ में, मैं खुद भी तो शामिल नहीं…क्योंकि घर हो या बाहर, सब ने ‘यू आर डिफरेंट’ का तमगा पहना कर खुश फहमी की एक अलबेली सी दुनिया में पहुंचा दिया था मुझे.
मेरे खयालात मुनफ़रिद(different) हैं.
मैं इस भीड़ का हिस्सा नहीं….ये गुमान कहीं न कहीं मुझे भी था लेकिन जब खुशफहमी की धुंध हटा कर सच्चाई के आईने में खुद को देखा तो अहसास हुआ कि पूरी तरह अलग तो मैं भी नहीं हूँ.
मशीनी बेहिसी और खुदगर्जी के रंगों में डूबते जारहे जिस दौर में मैं जी रही हूँ, उन रंगों के कुछ ना कुछ छींटे मेरे दामन पर भी पड़े हैं.
आसाईशों के हुसूल की ख्वाहिशें लिए भागे जारहे हुजूम में कहीं न कहीं या थोडी देर के लिए ही सही, मेरी अपनी जात भी शामिल हो ही जाती है.
सब से ज्यादा दुःख कि बात तो ये है कि इस हुजूम में भागते हुए हम सिर्फ खुद से आगे निकल जाने वालों को ही देखते हैं. कभी एक पल लिए भी पीछे रह जाने वालों को पलट कर नहीं देखते. ये बेहिसी नहीं तो और क्या है.
स्कूल कॉलेज से लेकर दफ्तर, रिश्तेदारी और पड़ोस से लेकर अपने घर तक हम सिर्फ आगे जाने वालों को देखते हैं.
हम बडे आराम से कह देते हैं कि हम इंसान हैं, फरिश्तों की सिफत(quality ) कहाँ से लायें? लेकिन ये कभी नहीं सोच पाते कि जब हम इंसान हैं तो फिर इंसानियत से मुहब्बत क्यों नही करते.
दुनिया का हर मज़हब इंसानियत से मुहब्बत करना सिखाता है.
हमारे रसूल(अ.स) ने फरमाया है कि जब भी तुम अपने घर वालों के साथ खाना खाने बैठो तो खाना शुरू करने से पहले सोचो कि कहीं पड़ोस में तुम्हारा पडोसी भूखा तो नहीं सो गया?
अगर सिर्फ इस एक फरमान को हम अपनी जिंदगी में शामिल कर लें तो बेहिसी की ये बर्फ पिघलते देर नहीं लगेगी.
लेकिन—बात फिर वहीँ पर आकर रुक जाती है, हम किसी नसीहत कर रहे हैं, किसी सिखाने की कोशिश कर रहे हैं.
क्या हम ने खुद का मुहासबा किया? अपने दिल के अन्दर झाँक कर देखा?
क्या हमारे ज़मीर के आईने ने हमें बताया कि हमारा चेहरा पाक और शफ्फाफ है?
सब से बडी बात यही है कि हर इंसान अपने ज़मीर के आईने में रोज़ अपनी शक्ल ईमानदारी से दिख लिया करे.
हम कैसे हैं? हमारा ज़मीर कभी हमारा गलत तजजिया (आंकलन) नहीं कर सकता कि बकौल क़तील शाफ़ई-----
जागा हुआ ज़मीर वो आईना है क़तील
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं

फिर न किसी नसीहत कि ज़रुरत रह जायेगी, न किसी दुसरे से शिकायत. मशीनी होते जारहे इंसान को सिर्फ और सिर्फ अपने अहसास को बेदार करने की ज़रुरत है, बाकी मसले खुद बखुद हल हो जायेंगे.



Thursday, July 17, 2008

जेहनी गुलामी का करार तो हम पहले ही कर चुके हैं....

(मेरी इस पोस्ट में मेरी कुछ बातें होसकता है कि कुछ लोगों को नागवार गुजरें, लेकिन मुझे इस की परवाह नही है.)


अमेरिका के साथ एटमी करार को लेकर सयासी घमासान अपने शबाब पर है,इसी बहाने अपनी अपनी सियासी रोटियां फिर से ताज़ा करने का मौका सब को मिल गया है.दो चार दिन में ही सारी तस्वीरें साफ़ हो जायेंगी लेकिन इन तस्वीरों पर बिखरी धुंध में एक चीज़ जो साफ़ दिखाई दे रही है वो ये कि करार करना या न करना तो एक formality है जो हो, न हो, कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है, क्योंकि अमेरिका परस्ती तो अब हमारी रगों मे खून बनकर समां गयी है.
नहीं, मैंने न कोई सर्वे रिपोर्ट पढ़ी है न ही कोई ऐसी ख़बर, लेकिन इतना मैं यकीन से कह सकती हूँ कि अगर कोई सर्वे कराया जाता है और हमारी नौजवान नस्ल से एटमी करार पर राय ली जाती है तो कम-अज-कम 80% परसेंट लोग इस डील के हक में होंगे क्योंकि आज की नौजवान नस्ल को ये भरम हो चला है कि जहाँ साथ अमेरिका का होगा, वहां हमारे हाथ में सिर्फ़ खुशहाली ही होगी. ग्लोबलाइजेशन और बाजारवाद की कोख से निकला हमारा नौजाद मत्वसित तबका(मध्यवर्गीय) पूरी तरह बदल चुका ही. पुरासाइश जिंदगी, शानदार पैकेज ऑफर करती जॉब और मेट्रो कल्चर ही आज की नौजवान नस्ल की जिंदगी का मकसद बन गया है.जिन्हें ये सब कुछ मिल गया ही, वो तो बस इसी के हो कर रह ही गए हैं, जिन्हें नहीं मिल सका है, वो इसे पाने के लिए frustration का शिकार हो रहे हें. इसे पाने के लिए वो कोई भी कीमत देने को तैयार हैं. चाहे वो कीमत उन्हें अपनी values अपने कल्चर या अपने रिश्तों की कुर्बानी की सूरत में क्यों न चुकानी पड़े.
ये मीठा और धीमा ज़हर धीरे धीरे हमारी रगों में उतरा.
इसकी शुरुआत हमारे बच्चों से हुयी. हमें ख़ुद ही नहीं पता चला कि कब ख़ुद हम ने ही अपने बच्चों को मग्रिबी (वेस्टर्न) कल्चर के रास्ते पर धकेल दिया.
अपने कल्चर को सारी दुनिया में वस्अत (फैलाना) बख्शना मग्रिबी मुमालिक का सब से बड़ा ख्वाब था. उन्हें ये भी पता था कि वक्त बदल गया है, किसी दूसरे मुल्क पर ताकत के ज़ोर पर कब्जा करना न तो आसान रह गया है न ही फायदे का सौदा.

इस से ज़्यादा फायदेमंद और कारामद सौदा है लोगों के ज़हनों पर कब्जा करना. ज़हनों पर कब्जा आसान नहीं होता और ये वक्त भी काफ़ी लेता है, लेकिन जब हो जाता है तो फिर दुनिया का कोई भी गांधी या मंडेला उसे आजाद नहीं करा सकता.

सब कुछ प्री प्लानिंग हुआ.
कहते हैं किसी के सामने आप अपनी बात मजबूती से तभी रख पायेंगे जब सामने वाला आपकी ज़बान या भाषा समझता हो.
अंग्रेज़ी को इंटरनेशनल ज़बान बना कर उन्होंने सब से पहले यही किया.

उसके बाद सब आसान होता चला गया.
हर तरफ़ अंग्रेज़ी का क्रेज़, ‘’अंग्रेज़ी जाने बिना काम नहीं चल सकता’’ जिसे अंग्रेज़ी नहीं आती वो तरक्की नहीं कर सकता’’ ये थी हमारी सोच जो ठीक उनके मिशन का आईना थी.
हम अन्ग्रेज़िअत के जेहनी गुलाम, अधाधुंध इंग्लिश मीडियम स्कूल बनाते गए और हमारे बच्चे वहां पढने पर मजबूर कर दिए गए.
उनकी प्लानिंग अपनी रफ्तार से आहिस्ता आहिस्ता चलती रही. जाने किते मिशनरी स्कूल खुलते रहे.
अंग्रेजियत का ज़हर धीरे धीरे हमारी रगों में उतरता चला गया.
हमारे बच्चे अंग्रेज़ी ज़बान की इस सीढ़ी से मग्रीबी दुनिया की झलक देखने लगे.
ये दुनिया रंगीन थी, आजाद थी, यहाँ खुशहाली थी, रौशनी की चकाचौंध थी. यहाँ न कोई पाबन्दी थीं न किसी तरह की कोई रोक-टोक.
यहाँ न मज़हब के लिए अपनी ख्वाहिशों को कंट्रोल करना पड़ता था न ही कोई रिश्ते इन ख्वाहिशों के हुसूल के रास्ते की रुकावट बनते थे.
न values की दुहाई, न कल्चर का झंझट.
हमारे बड़े होते बच्चे इस सेहरअंगेज़ (जादुई) दुनिया को हसरत से देखने लगे.
और फिर, एक दिन उनकी ये हसरत हकीकत का रूप धारे उनके सामने आ खड़ी हुयी कि हाथ बढाओं और उसे हासिल कर लो.
ग्लोबलाइजेशन का दौर आया. सब कुछ सब को हासिल हो गया. शहरों से लेकर गावों तक इसकी लहर चल निकली. मल्टी नेशनल कंपनियों ने अधूरे ख़्वाबों को पंख लगा दिए, हम उड़ने लगे. बिना नीचे देखे हुए.
हमारा कल्चर, मेट्रो कल्चर, हमारी पसंदीदा खुराक पिज्जा और बर्गर, पसंदीदा ड्रिंक, पेप्सी और कोक , हमारे बच्चे कार्टून चैनल्स तो teen-agers एनिमेक्स के दीवाने, हमारे लिबास जींस और टी-शर्ट, अब हम बीफोर मैरेज सेक्स को बुरा नहीं मानते. अपने जज्बों के इज़हार के लिए हम किसी न किसी ‘डे’ के मुहताज हो गए हैं. दबी ज़बान में ही सही, अब हम लिव-इन रिलेशनशिप की बातें भी करने लगे हैं. हम किसी गालिब और इकबाल को नहीं जानते हैं न ही टैगोर और प्रेमचंद को, कबीर और रहीम के दोहों पर तो हमें हँसी आती है. हम और हमारे बच्चे तो जे.के रोलिंग और जे.आर.आर.टाकिन को फख्र के साथ पढ़ते हैं.

अपनी दोनों माद्री(राष्ट्रिय) ज़बान को अपना कहते हुए हमें शर्म और झिझक महसूस होती है. हाँ, अंग्रेज़ी हम बड़े फख्र से बोलते हैं और जिन्हें नहीं आती, वो बदनसीब बड़ी हसरत से हमें देखते हैं . अमेरिका में रहना, हमारी नौजवान नस्ल का सब से बड़ा ख्वाब ही तो बेटा अमेरिका में नौकरी करे और बेटी का रिश्ता किसी ग्रीन कार्ड होल्डर दे हो जाए, ये ख्वाहिश हमारे वालदैन की भी होती है
कभी कभी हैरानी होती है कि ऐसा कैसे हो गया? क्या सदियों पुराने हमारे मजहबों, हमारी रस्मों और रवायतों के रंग इतने कच्चे थे कि हम ने उसे इतनी आसानी से उतार फेंका?
हमारे मुस्लिम नौजवान भी किसी से पीछे नहीं हैं, वो भी अमेरिकी रंग में रंग चुके हैं.
उन्हें न अपने मज़हब से कोई खास दिलचस्पी है न अपने कल्चर से.

उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि अमेरिका हमारी कौम के साथ क्या कर रहा है. न वो फिलिस्तीन के मजलूमों को जानते हैं न इराक और अफगानिस्तान के बेक़सूर मासूमों को. उनकी नज़र में ओसामा-बिन-लादेन तो दहशत गर्द है लेकिन अमेरिका और जॉर्ज बुश नहीं.
महमूद अहमदीनेजाद जैसे लोग तो हमारे मुस्लिम नौजवानों कि निगाह में बेवकूफ और जिद्दी हैं .
वो दलील देते हैं कि उनकी जिद से इरान को क्या मिलेगा. उसका हश्र भी बाकी लोगों की तरह होगा. हाँ, अमेरिका से दोस्ती करने में हमारा फायदा ही फायदा है.

कैसी ज़हनियत हो गयी है हमारी….अरे , हम तो उन गीदड़ और जंगली कुत्तों से भी गए गुज़रे हैं जो शेर के शिकार किए हुए माल को मुफ्त में पाने के लिए उसकी दुत्कार भी सुनने को तैयार रहते हैं.

हमारे जेहन गुलाम हो गए हैं.और जब जेहन गुलाम हो जाएँ तो आज़ादी मुमकिन नहीं होती.
अब करार हो न हो, इस से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, क्योंकि जेहनी गुलामी की डील तो हम पहले ही कर चुके हैं.

Tuesday, July 15, 2008

ये रंग-ऐ-सियासत है....दिल थाम के देखें...



पिछले दिनों कुछ अपने आप में इस तरह गुम रही कि होश ही नही रहा कि हमारे आस पास क्या हो रहा है.

बहुत हो चुकीं सफर और उसकी यादें….

अब जो इर्द गिर्द देखा तो अहसास हुआ कि इस दरमियान थोड़ा नही बहुत कुछ फर्क आचुका है मुल्क और दुनिया के हालात में.

हम इस दुनिया में रहते हैं तो ज़ाहिर है यहाँ होने वाले हालात का असर हमारे ऊपर भी पड़ता ही है, तो फिर जिस मुल्क में रहते हैं उसके हालात तो फिर हमारे अपने ही हालात हुए ना. हम चाहें भी तो उस से मुंह मोड़ नही सकते.

अब ज़रा देश के हालात पर निगाह डाल रही हूँ तो पता चलता है कि यहाँ तो बड़े ही तूफानी मोड़ चुके हैं.

वैसे ये मोड़ कोई अनजाने नही हैं. इस मोड़ के आने का अंदाजा हमें क्या, देश के बच्चे बच्चे को काफी पहले से था.

एक बड़ी ही घिसी पिटी कहानी की तरह, जिसे सिनेमा हाल में देखते हुए फिल्मों के शैदाई साथ बैठे अपने दोस्तों को सुनाते जाते हैं, ‘’ अब पता है क्या होगा, अब हीरो की मां को विलेन मार डालेगा और हीरो बदला लेने की कसम खायेगा…..या हिरोइन पहले हीरो पर गुस्सा करेगी लेकिन फिर उसी हीरो से रोमांस भी करेगीवगैरा वगैरा….वो बोलता रहेगा और परदे पर उसके बताये हुए सीन ही चलते रहेंगे. ठीक इसी तरह हमारी सियासत की कहानी का ये मोड़ तो उसी लम्हा लिख दिया गया था जब लेफ्ट ने यूपीए सरकार को सपोर्ट तो किया लेकिन सरकार में कोई पोस्ट लेने से इनकार कर दिया.

सब को पता था इसका क्या मतलब है, ठीक उसी फ़िल्म की तरह, वही सब कुछ होता रहा जिसका अंदाजा क्या यकीन सब को था.

सरकार और लेफ्ट के बीच चूहे बिल्ली का खेल चलता रहा, चलता रहा और फ़िल्म आगे बढती रही.

क्लाईमेक्स आरहा था, कब तक वही सीन दोहराए जाते और कब तक पब्लिक अपना ज़ब्त आज़माती .



क्लाईमेक्स तो आना ही था.

कांग्रेस पार्टी अमेरिका के साथ एटमी करार के लिए बेताब थी , यूँ , जैसे करार हुआ तो पार्टी के हर मेंबर की जान चली जायेगी.

लेफ्ट जो इस करार के खिलाफ थी, लेकिन ये भी जानती थी की जिस मुद्दे को लेकर सालों से रूठती थी लेकिन फिर मान भी जाती थी, उसी मुद्दे को लेकर अगर उसने सपोर्ट वापस लिया तो ये तो बड़ा फुसफुसा एंड होगा.

लेकिन तभी उसे बहाना भी मिल गया.

जी 8 सम्मलेन के अमीर हाकिम , गरीबी भूख और महगाई का हल खोजने इथोपिया या बंगलादेश के किसी भूखे शहर या गाँव में नही, जापान के एक खूबसूरत द्वीप पर इकठा हुए. ‘अरे भाई इतने हैरान क्यों हैं? इतने पेचीदा मसले किसी ऐसी जगह हल किए जाते हैं जहाँ इंसान सुकून से कुछ सोच सके. जब जेहन पुरसुकून होगा, दिल--दिमाग और जिस्म को उसकी सारीखुराकमुयस्सर होगी तभी तो इतने मुश्किल मरहले आसान होंगे.

आठ हाकिमों के पीछे उनकी हाँ में हाँ मिलाने वाले पाँच और खुशनसीब वहां जाने वाले थे और उस में हमारे मुल्क के वजीर--आज़म भी शामिल थे.

ये कोई कम एजाज़(सम्मान) की बात थोड़े ही है.

प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को वहीं एटमी करार पर बात आगे बढानी थी. लेकिन हमेशा की तरह लेफ्ट विलेन की तरह रास्ते में आगई.

लेफ्ट की मांग थी कि सरकार सेफगार्ड कर पूरा मसौदा दिखाए लेकिन सरकार ने ऐसा करने से ये कह कर इनकार कर दिया की ये सीक्रेट फाइल किसी को दिखाई नही जासकती.

और बस---

आगया क्लाइमेक्स ---

वैसे कुछ हद तक लेफ्ट के लिए ये ठोस बहाना था. लेफ्ट की समर्थन वापसी के बाद प्रणव मुखर्जी ने साफ़ कहा था कि सांसद में बहुमत हासिल करने के पहले यूपीए सरकार IAEA में सेफगार्ड मसौदे के अग्रीमेंट के लिए नही जायेगी और उन्होंने ये बात G 8 सम्मलेन में हिस्सा लेने गए प्रधान मंत्री से बात करने के बाद कही थी.

लेकिन ठीक उसके अगले दिन ख़बर आगई की सरकार IAEA में पहुँच गई और IAEA ने ड्राफ्ट सेफगार्ड अग्रीमेंट को अपने बोर्ड मेम्बरों को भेज दिया है.

आख़िर इस झूठ की वजह क्या थी ?

दूसरी वजह जो वाकई चौकाती है वो ये की जिस ड्राफ्ट सेफगार्ड अग्रीमेंट को सीक्रेट कहकर सारी पार्टियों, आम लोगों यहाँ तक की चार साल से बाहर से सपोर्ट कर रही लेफ्ट पार्टी तक से छिपाया गया, वही ड्राफ्ट कुछ अमेरिकी साइटों पर मौजूद था.

हैरानी यही होती है की जो ड्राफ्ट सीक्रेट था ही नही उसके लिए यूपीए सरकार ने सियासी पार्टियों से झूट क्यों बोला?

बहरहाल बहाने काफी ठोस थे क्लाइमेक्स सीन के लिए और लीजिये, क्लाइमेक्स हो गया. लेकिन तभी एक और मोड़ आगया और क्लाइमेक्स एंटी क्लाइमेक्स हो गया.

अच्छा मौका देख कर मुलायम सिंह ने सरकार को सपोर्ट करने का वादा कर लिया.

क्या बात हैइसे कहते हैं सियासत की गहरी समझ.

सरकार मुतमईन हो गई कि चलो, फिलहाल तो मुसीबत टली लेकिन अभी ड्रामा ख़तम नही हुआ था बल्कि ये तो ड्रामे की शुरुआत थी.

सरकार ने मुलायम का हाथ थामा तो लेफ्ट भी कहाँ पीछे रहने वाली थी, उसने मायावती से हाथ मिला लिया.

या खुदा…..ये है हमारे मुल्क की सियासत और उसकी ड्रामे बाजियां, अजीब रंग हैं इसके , अजीब रिश्ते हैं….लता जी का एक गाना है,,,

कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ के.

दो पल मिलते हैं, साथ साथ चलते हैं

जब मोड़ आए तो बच के निकलते हैं

तो यही है सियासत, यहाँ मतलब के लिए रिश्ते बनते हैं और मतलब के लिए ही दूसरे ही पल तोड़ दिए जाते हैं.

बहरहाल जोड़ तोड़ का ये खेल जारी है और हम जैसे लोग हैं तमाशबीन….कि हम सिर्फ़ देख सकते हैं, कुछ कर नही सकते.

सिर्फ़ बेबसी से तमाशा देखते हैं और कुढ़ते हैं सो हम भी कुढ़ रहे हैंआप भी हमारे संग थोड़ा सा कुढ़ लें.