Monday, August 25, 2008

वो इक सवाल बड़ा ही अजीब था उसका.....


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{इक छोटी सी इल्तेजा है, इस पोस्ट को पूरी पढने के बाद ही अपनी राय का इज़हार करें }
समाज ने हमेशा अपने उसूलों में औरत और मर्द के लिए वाजेह(स्पष्ट) फर्क रखा. हर मज़हब ने अपने उसूलों में हमेशा मर्दों को रियायत दी है वहीँ ओरतों के मामले में सख्ती से पेश आया है. 
समाज चाहे मगरिब(पश्चिम) का रहा हो या मशरिक का, ओरतों के लिए दोनों ने अपने नज़रिए में तास्सुब रखा. मशरिक में ये फर्क कुछ ज्यादा ही रहा है. 

ये कोई नयी बात नहीं है, सदियों से औरत ने इस फर्क को देखा और महसूस किया है, खामोशी से झेला भी है और आवाज़ भी उठायी है. आज भी औरत इस फर्क को मिटाने की लडाई लड़ रही है और जाने कब तक लड़ती रहेगी .
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वो मेरे कालेज में ही लेक्चरर हैं. दिलकश चेहरा, लंबा कद, खूबसूरत सरापा, जहीन लेकिन उदास आँखें.
पता नहीं कब मेरी उन से दोस्ती हुयी. शायद उनकी उदास आंखों की कशिश थी जिसने मुझे अपने करीब खींच लिया. 
मुझ में एक बड़ी अजीब सी खामी है
, पता नहीं क्यों, हर चेहरा मुझे कुछ कहता सा महसूस होता है या शायद ऐसे बोलते और मतवज्जह करते चेहरे ही मेरी कशिश का बायस बनते हैं. 
मैं जानती हूँ. दुनिया की इस भीड़ में मौजूद हर चेहरा अपने पीछे एक फ़साना छिपाए फिरता है. हर चेहरे की अलग कहानी, हम कहाँ तक भला इन चेहरों के पीछे पोशीदा फ़साने तलाश करते फिरेंगे. 

लेकिन हम अपनी कुछ आदतों के सामने ख़ुद ही बेबस होते हैं. मैं भी बेबस हो जाती हूँ. 
वो मेरी दोस्त बनीं तो बाकी सारे रिश्ते पस-ए-पुश्त डालकर हम बे तकल्लुफ होते चले गए. 
दिल में मौजूद ख्वाहिश के बावजूद मैंने उनकी आंखों की उदासी की वजह नहीं पूछी. पता नहीं क्यों, शायद ये यकीन सा था कि अगर मैं अपनी दोस्ती में ईमानदार हूँ तो वो एक दिन ख़ुद अपना आप मेरे सामने रख देंगी. 
और उस दिन ये यकीन सच्चा साबित हुआ. 
वो कहती रहीं और मैं सुनती रही, कई बार दिल में कई सवाल मचले थे लेकिन मैंने उन्हें जुबान नहीं दी. बस उन्हें सुनती रही. 

मैं कोशिश के बावजूद उन से कोई सवाल नहीं कर सकी उल्टे उन्होंने मुझ से एक सवाल ज़रूर पूछ लिया. मैं भला उनके सवाल का जवाब कैसे दे सकती थी जब कि जवाब दूर दूर तक मेरे पास भी नहीं था. 
लेकिन फिर भी, कहीं कोई जवाब तो होगा इसलिए मैं उनका वही सवाल आपके सामने रखने जारही हूँ. 

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                                     कि उसके बाद फजाओं ने ली थी इक सिसकी 



मुहब्बत की हसीन वादियों में हमने एक साथ कदम रखे थे. जो ख्वाब मेरी आंखों में उतरे वही ख्वाब उसकी रातों का भी हिस्सा थे. हमने आने वाले लम्हों में हमेशा एक दूसरे को हमकदम ही देखा था. कोई लम्हा , कोई पल हमारे सपने में ऐसा नहीं था जब हम एक दूसरे से लम्हा भर भी दूर रहे हों. हमारे ख्वाब, हमारी खुशियाँ, हमारी मंजिलें एक थीं. हम एक दूसरे के बिना कुछ थे ही नहीं. 
और एक दिन हमने बड़ी ईमानदारी से अपने जज्बों की ख़बर अपने घर वालों को दे दी. लेकिन ये हमारी बदकिस्मती थी हम दोनों ही अपने अपने घर वालों को राजी नहीं कर सके, मेरे पापा जो एक कालेज में प्रोफेसर होने के साथ साथ एक अच्छे कवि भी थे. उनकी जिंदगी के कुछ उसूल थे जिसे मेरी माँ और हम बहनों ने हमेशा इज्ज़त दी थी. आस पास के लोगों में भी उनका बड़ा एहतेराम था. 
पापा इस रिश्ते पर क्यों राज़ी नहीं थे मैं इसकी तफसील में नहीं जाउंगी, बस इतना था कि उनके नज़रिए से उनके इनकार की वजह सही थी लेकिन काश पापा एक बार मेरे दिल में झाँक कर देखते तो दुनिया की बड़ी से बड़ी वजह भी उन्हें छोटी महसूस होती. 
जब हम दोनों अपने अपने घर वालों को राज़ी करने में नाकाम हो गए तो हमने वही रास्ता अपनाया जो किसी भी लिहाज़ से सही नहीं होता.
ये बात मैं आज स्वीकार कर रही हूँ, ऐसा बिल्कुल नहीं है. मेरा नजरिया कल भी वही था, आज भी वही है. जो कदम हमने उठाया, वो हमारी गलती थी और मैं हर उन लड़कियों को इस कदम से बाज़ रहने की अपील करती हूँ, जो दिल के हाथों मजबूर होकर ये ग़लत कदम उठाती हैं. 
हमने वो शहर छोड़ दिया. मैंने अपनी डिग्रियों के सर्टिफिकेट्स अपने घर वालों की फोटो और दो जोड़े कपडों के अलावा साथ कुछ भी नहीं लिया.लेकिन शायद मैं कुछ ग़लत हूँ. लिया क्यों नहीं, बचपन से लेकर जवानी तक की बेशुमार यादें, ढेरों मुहब्बतें भी तो मैं साथ लेकर आई थी. 
एक अनजान शहर में हमने अपनी नयी अरमानों भरी दुनिया बसाई थी. हम ने जो माँगा था, जो चाहा था , सब पा लिया था. हम खुश थे और खुश होना चाहते थ
लेकिन कहते हैं ना, कि जिस दुनिया की बुनियाद बहुत सारे लोगों के आंसुओं पर रखी जाए, जो आशियाना अपने चाहने वालों के मान को तोड़ कर बनाया जाए वो कभी आबाद नहीं हो पाता, चाहे उसे आबाद रखने के कितने भी जतन क्यों ना किए जाएँ. 
हम दोनों अपनी एक दुनिया छोड़ कर आए थे और वो दुनिया हमारे लिए क्या थी, इसका अहसास हमें उस दुनिया से नाता तोड़ने के बाद हुआ. समाज से कट कर भी कोई कहाँ जी सकता है. हम अकेले थे, न हमारे पास रिश्तों का मान था न बुजुर्गों कि चाहतों का गुरूर. 
हम अपनी अपनी सोचों में अकेले थे. सुना था कि जहाँ मुहब्बत हो, वहां बाकी किसी शै की ज़रूरत नहीं रह जाती, ग़लत है ये, एक मुहब्बत के आलावा भी इंसान को जीने के लिए बहुत सारी  दूसरी चीज़ों की ज़रूरत होती है. 
उन्हीं दिनों उस ने बताया कि उसकी माँ की तबियत बहुत खराब है, वो बेहद परेशान था. मैंने उसे उन से मिलने को कहा तो उसने बताया कि उसके बाप ने शर्त रखी है कि वो मुझ से हर रिश्ता तोड़ कर ही उनके पास आ सकता है. 
उसने कहा कि उसने इनकार कर दिया है लेकिन पता नहीं क्यों,
मुझे लगा कि उसके दिल में कहीं, इस ज़ंजीर से आजाद होने की हलकी ख्वाहिश धीरे धीरे आँखें खोल रही है. 
मैं डर गई. लेकिन ऐसा होता है ना कि जिस बात से हम डरते हैं, वो अक्सर हो ही जाती है. 
मैं देख रही थी कि माँ की मुहब्बतों के सामने हमारी मुहब्बत धीरे धीरे हार सी रही है. वो अन्दर से टूट रहा था.
 
उसकी माँ को कैंसर था. वो उस से मिलना चाहती थी.लेकिन उसके बाप की जिद उसी तरह कायम थी, पता नहीं दौलतमंदों के दिलों में ऊपर वाला जज़्बात क्यों नहीं शामिल करता. 
वो ऊपर से मुस्कुराता था लेकिन अकसर सारी सारी रात जागता रहता था. 
कई बार मुझे उसके रोने का भी गुमान हुआ. और इस से पहले कि हमारी वो मुहब्बत जिसके लिए मैंने अपने माँ बाप की इज्ज़तों, बहनों के मुस्तकबल की भी परवाह नहीं थी, अपना भरम खो देती, और मैं अपने आप से शर्मसार हो जाती मैं ने एक फ़ैसला कर लिया, हमेशा के लिए अपनी राहें जुदा कर लेने का फ़ैसला. वो मुझ से नाराज़ था, मैंने उसे अपनी कसम दे दी. और फिर वही हुआ जो होने वाला था. 
हम जुदा हो गए, वो मुझ से बहुत नाराज़ था लेकिन मैं जानती थी कि एक दिन उसे भी यही फ़ैसला करना था. 
वो चला गया. अपनी सारी जमा पूँजी उसने मेरे नाम कर दी थी, लेकिन मुझे इसे क्या करना था. मैं अपनी बिछडी अनमोल मुहब्बतों के पास लौटना चाहती, उन के पास जिनकी मुहब्बतों को चंद दिनों की मुहब्बत के लिए ठुकरा कर चली आई थी. शायद उसी की  सज़ा मुझे मिली थी. 
मैं पागलों की तरह लखनऊ पहुँची, अपने उसी घर जहाँ के आँगन में मैंने चलना सीखा था, जहाँ मेरे माँ बाप थे मेरी बहनें थीं, मैंने गलती की थी, बहुत बड़ी, लेकिन वो मेरे माँ बाप थे, भला मुझ से जायदा देर नाराज़ कहाँ रह सकते थे. 
पहले भी गलतियाँ करती रही थी, और वो थोडी देर की नाराजगी के बाद मुझे सीने से लगा लेते थे. 

लेकिन अपने घर पहुँच कर मुझे अहसास हुआ कि मैं जो गलती कर चुकी थी, वो बहुत बड़ी थी, मैंने क्या किया था इसका अंदाजा तो मुझे अपने घर पहुँच कर हुआ, हमेशा सर उठा कर चलने वाले मेरे पिता जी का सर मेरे जाने के बाद ऐसा झुका की फिर कभी उठ ही नहीं सका, मेरे जाने के सिर्फ़ छ महीने बाद उन्होंने मौत की गोद में मुंह छिपा लिया. 
मेरी माँ और बहनों ने नफरत से मुंह मोड़ लिया और मुझे पहचानने से इनकार कर दिया. मेरी माँ ने साफ़ कहा कि इस से पहले कि मेरी वजह से वो अपनी बेटियों को लेकर कहीं और जाने पर मजबूर हो जाएँ , अपनी स्याह परछाईं लेकर मैं यहाँ से दूर चली जाऊं. 
मैं वापस आगयी. अब मुझे अकेले जिंदगी के इस बोझ को उठाना था. मेरी डिग्री मेरे साथ थी सो मैंने जॉब कर ली और जीने का बहाना ढूंढ लिया. 
वो अपने घर पर खुश है. उसके घर वालों ने उसकी शादी अपने जैसे दौलतमंद घराने में कर दी है. मैं नहीं जानती कि वो खुश होगा या नहीं लेकिन उसके घर वाले अपने खोये बेटे को पाकर बहुत खुश हैं. 

 गलती तो हम दोनों ने एक सी की थी, अपने अपने घर वालों की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ घर छोड़ने की, फिर सज़ा सिर्फ़ मुझे क्यों मिली? 
कहते हैं, सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आजाये तो उसे भूला नहीं कहते, उसे वापस बुला लेते हैं, फिर मेरी भूल को भी मेरी नादानी समझ कर माफ़ क्यों नहीं किया गया?
{यही वो एक सवाल था जो उन्होंने मुझ से किया, और मैं चाह कर भी उन्हें कोई जवाब नही दे सकी.....}











Tuesday, August 19, 2008

हम एक हैं,तो एक होने से डरते क्यों हैं?


अपने बारे में कहूँ तो दिल में आई सारी बातें ''अच्छी हों या बुरी'' हमेशा से सामने कह देने की आदी  रही हूँ. इस आदत ने मेरे कई दुश्मन भी बनाए हैं, लेकिन अकसर दोस्तों का यही कहना है कि उन्हें मेरी ये आदत पसंद है. ब्लोगिंग की दुनिया में आई तो भी वही हाल रहा, जहाँ जो बुरा लगा, लिख दिया, ये ख्याल नही आया कि इसे किस तरह चाशनी में डुबो कर लिखना है. शायद ये मेरी कमजोरी है.

इस बात का शुक्रिया अदा करुँगी कि आप सब ने मुझे पढ़ा और पूरी साफगोई से इस पर कमेन्ट दिए, ठीक उसी तरह बिना किसी लाग लपेट के,मुझे इस बात की खुशी है  लेकिन थोड़ा सा दुःख इस बात का है कि ठीक से समझने की कोशिश नही की गई,मेरे इस जुमले का '' उन्हें इसके बारे में जनवाया जाता है.'' का मतलब सही नही लगाया गया.

 ''जनवाया जाता है'' लिखने का मतलब ठीक वही था जो मैंने अब तक जाना है, शायद आपको नही मालूम कि मेरे बाबा बचपन में जब हम बच्चों को इमाम हुसैन अहिस्सलम पर हुए जुल्मों के वाकये सुनाते थे और ये बताते थे कि किस तरह उन्होंने अपनी और अपने परिवार और दोस्तों की शहादत तो कबूल कर ली लेकिन बुराई के आगे झुकना स्वीकार नही किया तब वो ये भी बताते थे कि अगर इमाम उस समय भारत आगये होते तो उनके साथ ऐसा नही हुआ होता, क्योंकि यहाँ के लोग उन्हें सर आंखों पर बिठाते, वो हमें अगर रसूल अ ह की बातें बताते थे तो राम चन्द्र जी की बातें भी सुनाते थे,मेरे बाबा हिंदू मज़हब में सब से ज़्यादा विष्णु जी से प्रभावित हैं और वो कहा करते हैं कि उन्होंने(विष्णु भगवान्) भी भविष्वाणी में कहा था कि धरती पर रसूल AH के रूप में आखरी नबी प्रकट होंगे...मैं इस बात का दावा नही करती कि इस बात में कितनी सच्चाई है और ये कि विष्णु भगवान् ने ऐसा कहा था या नही लेकिन इन बातों के लिखने का मतलब यही है कि हम ये सब जानते हुए बड़े हुए, ज़रा ईमानदारी से बताइयेगा, क्या आप में से किसी के बुजुर्गों ने रसूल और इमाम AH के बारे आपको सही जानकारी कभी देने की कोशिश की? जहाँ तक मुझे मालूम है ऐसा नही हुआ, मैं मानती हूँ कि ख़ुद मुस्लिम्स में भी ऐसा ही है, हमें ना ही सिखों के त्योहारों के बारे में पूरा इल्म है न ही हिंदू त्योहारों के बारे में लेकिन ऐसा नही होना चाहिए, हम एक देश यानी एक घर में रहते हैं, अगर हम ही एक दूसरे को नही जानेंगे और समझेंगे तो क्या कोई दूसरा देश आकर हमें समझेगा?
अब एक और बात, जिसे अगर मैं ना कहूँ तो बेईमानी होगी, मुझे इस बात का डर नही है कि आप में से किसी को मेरी बात का बुरा लगेगा, ''जनवाया जाना '' का ये मतलब बिल्कुल नही है कि कोई हमें ज़बरदस्ती जानने पर मजबूर करता है, हाँ ये ज़रूर है हम बहुत तरह से जान जाते हैं और सच पूछिए तो इस बात की खुशी होती है जब मेरी छोटी बहन आकर बताती है कि आज राखी कम्पटीशन है, जन्म अष्टमी के मौके पर हमें ड्राइंग फाइल में कृष्ण जी की तस्वीर बनानी होती थी तो हम उनके बारे में ध्यान से पढ़ते थे, उनके एक एक अंदाज़ पर गौर करते थे, दशहरा और दीवाली पर हमें निबंध लिखना होता था तो अलग अलग किताबों से ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी हासिल करने की कोशिश रहती थी कि सब से अच्छा हम लिख सकें, संस्कृत में श्लोक कम्पटीशन होते थे तो इच्छा होती थी कि हम भी पार्ट ले सकें, और आप यकीन मानें या ना मानें इन सब बातों की हम बच्चों को खुशी ही होती थी, दीवाली में हम भी पटाखे ज़रूर ले कर आते हैं, कोलकाता में थी तो दुर्गा पूजा तो जैसे हमारा ही त्यौहार हुआ करता था, नए कपड़े ज़रूर खरीदने हैं, पूजा देखने जो जाना है, थोडी ज्वैलरी भी होनी चाहिए, उस दिन सारी लड़कियां सजती जो हैं और मेरे पापा हमारे ये शौक बड़ी खुशी खुशी पूरा करते थे, पूजा के दिन हम बड़े इह्तेमाम से बाहर निकलते थे, दुर्गा देवी के बारे में और ज़्यादा जानने का शौक होता था, लेकिन--खुशी हो, गम हो या गुस्सा...कभी एकतरफा नही होता, एक तरफा हो तो इंसान थक जाता है और फिर उसे कहीं ना कहीं अपने नज़र अंदाज़ किए जाने का अहसास ज़रूर होता है,
 अपने स्कूल की बात करूँ, बहन के करूँ या मेरी छोटे भांजे के स्कूल की, इन सारे त्योहारों में कभी हमें ईद के बारे में नही बताया गया, कभी मुहर्रम के बारे में जानकारी नही दी गई, दुःख तब और शिद्दत अख्तियार कर जाता है जब क्रिसमस को बड़े ही शानदार तरीके से मनाया जाता है, बच्चों से गिफ्ट मंगाए जाते हैं, हम में से ही कुछ बच्चे संता के वेश भूषा में बाकी बच्चों को चाकलेट्स और गिफ्ट बाँटते हैं स्कूल में पार्टी होती है और खूब मस्ती करवाई जाती है, जब मैं पढ़ती थी तब भी और आज भी ये सब वैसे जारी है, इसके स्वरूप में कहीं भी कोई बदलाव नही आया है, ज़रा बताइये, क्या ये सही है?
क्या इस तरह हमें अहसास नही दिलाया जाता कि हम अलग हैं?
क्या हमारे स्कूलों का ये फ़र्ज़ नही कि हमारे हिंदू और सिख बच्चों को बताया जाए कि मुहर्रम क्यों मनाया जाता है? रमजान और ईद का क्या मतलब है?
क्या कहीं कोई कम्पटीशन या किसी तरीके से दूसरे बच्चों को इन त्योहारों की खासियत नही बतानी चाहिए?
अगर ऐसा होता तो क्या कोई लड़की मुहर्रम जैसे गमगीन त्यौहार को 'हैप्पी मुहर्रम'' कह कर शर्मिंदा होती? और क्या मेरे जैसी लड़की अपने ही देश में रहने वाली अपनी दोस्त को अपने त्यौहार के बारे जानकारी यूँ देती जैसे वो किसी अजनबी देश आई है?
नही....आप बुरा बड़ी जल्दी मान जाते हैं, लेकिन सच्चाई को स्वीकार नही करते, अरे , हम करीब आना चाहते हैं, आप को अपने करीब लाना चाहते हैं लेकिन आप आने तो दें..हम जितना करीब आयेंगे,दूरिया उतनी ही मिटेंगी,ये त्यौहार दूरियां मिटाते हैं, एक दूसरे के करीब लाते हैं, और जब हम एक हैं तो एक होने से डरते क्यों हैं?

हमारा यही डर तीसरे लोगों को मौका देता है हमें एक दूसरे से अलग करने का, दोनों तरफ़ के सियासी लोग अपने अपने मुफाद के लिए इन दूरियों को और बढाते हैं.और हम इतने सादा हैं कि उनकी चाल को समझ ही नही पाते.



Monday, August 18, 2008

इस हसीं रात के दामन में....


शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने कभी शब-ऐ-बारात का नाम नहीं सुना होगा, इसकी वजह इसे बातचीत में इस्तेमाल होने वाले फिकरों में अकसर इस्तेमाल किया जाना रहा है. खुशियों भरे दिनों में अक्सर ये मिसाल दी जाती है, कि आजकल उनके दिन ईद और रातें शब-ऐ-बारात जैसी गुज़र रही हैं. लेकिन बड़े अफ़सोस कि बात है कि इतने ख़ास दिन को अगर किसी हिंदू या सिख भाइयों पूछा जाए कि इसके मनाने की वजह क्या है या ये त्यौहार कैसे मनाया जाता है तो शायद ही कोई बता सके, हम एक ही मुल्क में रहते हैं, हम देखने में एक जैसे हैं, हमारे रात और दिन एक दुसरे की संगत में गुज़रते हैं लेकिन हम एक दुसरे की रीत रिवाजों से पूरी तरह नावाकिफ हैं. 
मुस्लिम्स तो फिर भी हिन्दू रीत रिवाजों के बारे में थोडा बहुत जानते हैं, शायाद इसकी वजह भी ये रही हो कि उन्हें इसके बारे में जनवाया जाता है.लेकिन मुस्लिम्स के त्योहारों के बारे में जानने की वो कोशिश भी नहीं करते, इस कि एक बड़ी अफसोसनाक मिसाल मेरे साथ खुद पेश आई.
हुआ यूं कि एक बार कालेज में मेरी एक करीबी दोस्त ने मुझे मुहर्रम की मुबारकबाद दी. कितने दुःख की बात है कि मुहर्रम उनकी याद में मनाया जाता है जिन पर ग़मों का ऐसा पहाड़ टूट पड़ा था जो शायद नहीं यकीनन तारीख में कभी सुनने को नहीं मिला. ये वो मौका है जब सारे शिया मुस्लिम्स इमाम हुसैन और उनके परिवार की शहादत की याद में पूरे सवा दो महीने सिर्फ गम मनाते हैं.
ऐसे मौके पर मेरी दोस्त का हैप्पी मुहर्रम कहना किसी थप्पड़ मारने जैसा लगा था. जब मैंने उसे समझाया और इसके बारे में बताया तो उसे बहुत अफ़सोस हुआ और उस से ज़यादा अफ़सोस इस बात का हुआ कि एक ही देश में रहते हुए हम एक दुसरे से इस कदर नावाकिफ हैं. 
खैर शब-ऐ-बारात बहुत ही ख़ास दिन है. जो परसों मनाया गया. 
ये इमाम-ऐ-ज़माना (12th इमाम) हजरत मेहदी आखिर-उज़-जमां अलाहिस्सलाम की पैदाइश का मुबारक दिन है. जो निहाइत ख़ुशी का दिन है. 
इस मौके को दीवाली की तरह मनाते हैं. वैसे ही घरों को मोम बत्तियों से सजाया जाता है. पटाखे आतश बाज़िओं से माहौल चरागाँ सा हो जाता है. कई तरह के पकवान बनाए जाते हैं. जिन में तीन चार तरह के हलवे, जैसे चने कि दाल का हलवा, सूजी का हलवा, मैदे और मूंग दाल का हलवा, पूरी पराठे, चिकन पुलाव खीर बनायीं जाती है. फिर नज़र दिया जाता है. 
इस रात सारी रात इबादत कर के गुजारी जाती है.ऐसा माना जाता है कि इस रात हमारे बुजुर्गों(सवर्गीय) की रूहें भी अपने अपने घरों में आती हैं. इसलिए सारी रात रौशनी की जाती है.ठीक १२ बजे यानी इमाम की पैदाइश के वक्त लोग अरीज़े डालने जाते हैं. अरीज़े का मतलब अपनी कोई ख्वाहिश (इच्छा) लिख कर पर्ची पानी में डाली जाती है. फिर वापस आकर इबादत की जाती है और दुआएं मांगी जाती हैं. अपने, अपने रिश्तेदारों, दोस्तों अपने देश के लोगों के लिए, मुल्क का अमान-ओ-अमान के लिए. 
इस तरह एक बहुत ही हसीन रात अपनी दिलकशी के साथ ख़त्म होती है. 
यही है शब-ऐ-बारात. हमारे बारहवें इमाम की पैदाइश का यादगार दिन. 

(ऐ इमाम-ऐ-ज़माना मेरे मुल्क के लोगों को हर आफत और मुसीबत से दूर रखियेगा. इस मुल्क में सुकून और खुशियाँ हों, तरक्की के साथ साथ मेरे देश के लोगों को बे राह रवी और बुराइयों से दूर रखियेगा(आमीन)

Wednesday, August 13, 2008

एक सुबह को छू कर देखा......


गुलामी किसी नासूर की तरह होती है. ये दर्द वही समझ सकता है जिसने इसका दर्द सहा हो. जिल्लतों और वहशतों का वो दर्दनाक दौर जो हम ने सौ साल तक झेला है, उसका अहसास हमारी नस्लों को हमेशा याद रहेगा और रहना भी चाहिए. 
इसीलिए १५ अगस्त की ये मुबारक सुबह जब तुलू होती है तो रग-रग में एक अजीब सी सरखुशी का अहसास हिलकोरे लेने लगता है. 
कभी १५ अगस्त की सुबह बाद-ऐ-नमाज़ बाहर निकल कर एक बार माहौल का जाएजा तो लीजिये. 
ऐसा लगता है जैसे सारा माहौल ही फसूं खेज़(जादुई) हो गया हो. 
बाद-ऐ-सबा सब से पहले आपके चेहरे को धीरे चूम कर इस मुबारक लम्हे कि मुबारकबाद देती है. 
फूलों की खुशबू कुछ और ही पैगाम देती महसूस होती है. ये वो पैगाम तो हरगिज़ नही होते जो आप रोज़ महसूस करते हैं. 
हद्दे निगाह तक फैला हुआ सब्ज़ा आज़ादी की कीमत का अनोखा अहसास कराता दिखाई देता है. 
हम आजाद हैं, हम ने गुलामी के नासूर को जड़ों से काट कर हमेशा के लिए अलग कर दिया है और आज हम जिस माहौल में साँस ले रहे हैं वो हमारा है. दायें बाएँ ऊपर नीचे, सिर्फ़ हमारा, रेशे रेशे पर सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारा हक है. 
दरख्तों पर चहचहाते परिंदे सिर्फ़ यही नगमे सुनाते हैं. 
आपकी आँखें किसी नशे के अहसास में बंद होती चली जाती हैं. हाँ,
आज़ादी का अहसास ही ऐसा होता है. इसका नशा दुनिया के हर नशे से जायदा ताक़तवर होता है. 
आपकी आँखें बंद हैं लेकिन आपके अन्दर एक दुनिया सी आबाद हो रही है. अन्दर और बाहर फजाओं में आज़ादी के नगमे से गूंजते सुनाई देते हैं. 
आप महसूस तो कीजिये. आपको बहुत सारी आवाजें आपस में गडमड होती महसूस होंगी. आपकी रग-रग में उमंगें सी भरती चली जायेंगी. 
रोएँ रोएँ में जोश का अनोखा अहसास आपके अन्दर कुछ कर गुजरने की ताकत पैदा करता महसूस होगा. 
आवाजें नुमायाँ होती जा रही हैं. 
वो कह रही हैं. हाँ, यही तो कह रही हैं. ‘’ज़रा देखो, महसूस करो, तुम आजाद हो, हर डर हर खौफ से आजाद. तुम किसी को जवाब देह नही हो. इस  वतन की मिटटी का एक-एक ज़र्रा तुम्हारा है. 
ज़रा इस मिटटी को गौर से देखो’’…आप हैरान रह जाते हैं. आँखें खुल जाती हैं. नीले आसमान में हलकी हलकी सुर्खियाँ शामिल हो रही हैं. 
आवाजें कहाँ से आरही हैं? 
, आप मिटटी उठाते हैं, गौर से देखते हैं, ठंडक का फरहत बख्श अहसास आपके तन-मन में फैल जाता है. 
आप देखते चले जाते हैं.
आवाजें शायद मिटटी से ही आरही थीं.’’ मुझे देखो, आवाज़ फिर आती है. ‘’ मैं तुम्हारे इस आजाद वतन की मिटटी हूँ , जिस आज़ादी को तुम महसूस कर रहे हो वो इतनी आसानी से तुम्हें नसीब नही हुयी है, बड़ी कुर्बानियों के बाद मिली है. 
आप देखते चले जाते हैं,
मिटटी सुर्ख हो रही है.’’ये देखो, आवाज़ फिर उभरती है.’’ये उन मतवालों के खून कि सुर्खी है जिन्होंने अपने खून बहा कर इस मिटटी को आजाद कराया. वो किसी एक मज़हब के नही थे. हर मज़हब के थे लेकिन उनका पहला मज़हब अपने वतन कि आज़ादी था. इसकी कीमत समझो. अब ये मिटटी तुम्हारी है. इसकी हिफाज़त अब ख़ुद तुम्हें करनी है. इस धरती के बच्चे बच्चे को करनी है. 
आप मिटटी को किसी जोश के तहेत मुठी में भींज लेते हैं. रग-रग में तमानियत का अहसास जागता चला जाता है. 
हाँ, अब इस मिटटी कि हिफाज़त हमें ख़ुद करनी है. 
एक बार माहौल का जायेज़ा तो लीजिये. 
चारों तरफ़ आज़ादी के नगमे बिखर रहे हैं. एक अनोखी सुबह का नूर हर तरफ़ बरस रहा है. 
आज़ादी मुबारक हो, फिजायें झूम झूम कर कह रही हैं. 
आज़ादी कि सुबह का सुनहरा सूरज तुलू हो रहा है. 






(कभी महसूस किया है आपने? अगर नही तो बाखुदा महसूस कर के देखिये,इस अनोखी सुबह का नशा आपकी नस-नस में उतर जायेगा. आप सभी को आज़ादी के मुबारक दिन की ढेर सारी पेशगी मुबारकबाद)

Sunday, August 10, 2008

जब मजबूरियां खूबसूरत हों?


सब से पहले माफ़ी चाहूंगी अपने पढने वालों और दोस्तों से जिन से इतने दिन दूर रही, याद बहुत आई, दोस्तों के घरों(ब्लॉग) में जाने का दिल भी बहुत किया लेकिन कभी कभी मस्रूफियतें इंसान को कहीं का नहीं छोड़तीं. 
अब देखिये न, ब्लोगिंग की ये दुनिया भी बडी अजीब सी है, ब्लोगिंग ही क्या कोई भी महफ़िल हो, जब तक साथ रहता है, कभी ये अहसास छू कर नहीं गुज़रता कि इन महफिलों से दूर हो कर कैसे जियेंगे. लेकिन जब कोई छोटी सी मजबूरी भी एक दुसरे से दूर होने पर मजबूर कर दे तो अहसास होता है कि पल दो पल जो साथ आज है, वो कितना कीमती है. 
वो तो हम ही हैं जिसे लगता है कि जो आज है वो कल भी होगा लेकिन हर लम्हे से खुशियों को कशीद कर लेना ही अकलमंदी है. 
अब मैं बताऊँ कि ye छोटी सी मजबूरी क्या थी?  
मजबूरी अगर प्यारी सी हो तो बुरी नहीं लगती. ठीक समझा आपने, हमारे त्यौहार मसरूफ तो कर देते हैं लेकिन खूबसूरत भी तो बहुत होते हैं ना? 
रजब महीने के इख्तेताम(लास्ट वीक) के दिनों से ही त्योहारों का सिलसिला शुरू होजाता है. 
२२ रजब, २७ रजब के बाद ३ शाबान यानी ६ अगस्त को इमाम हुसैन अलाहिस्सलाम की विलादत(बर्थडे) का मुबारक दिन होता है. हमारे यहाँ यानी शिया लोगों में ये दिन किसी ईद से कम नहीं होता. होना भी चाहिए, ये उनके जन्म का दिन है जिसने इस्लाम को अपने खून से जिंदा रखा, वो कुर्बानियां दीं जो आज तक तारीख में किसी ने नहीं दी. 
३ शाबान की शब् को नज्र की तय्यारियां शुरू हो जाती हैं. 
नजर के लिए मीठी टिकियाँ और खीर बनायी जाती है. 
ये मीठी टिकियाँ बहुत ही लज़ीज़ होती हैं. इन्हें मैदे, सूजी, नारियल के बुरादे, चीनी घी और ढेर सारे मेवे के साथ बनाया जाता है. 
खीर के साथ शामी कबाब, पूरियां छोले, दही बडे और मिठाईयां होती हैं. 
कालीन पर छोटे पायों वाली मेज़ पर सफ़ेद चादर पर खूबसूरत सफ़ेद नेट के कवर से ढक कर बडे एहतेमाम से सुबह नजर दी जाती है. 
लोग आते हैं, हाथ धोकर एहतेराम से कालीन पर बैठ कर नजर चखते हैं. आने वालों को खिलाना, उन्हें एक एक डिश पेश करना और मेहमान नवाजी करते हुए बहुत अच्छा लगता है. 
एक लम्हे को दिल चाहता है कि हम अपने इमाम के जन्म के इस मुबारक दिन क्या क्या न कर दें. 
रात गए तक मेहमानों के आने का सिलसिला चलता है. 
थकान तो हो जाती है लेकिन सच कहूँ तो बहुत बहुत खूबसूरत होता है ये दिन. 
शाबान में ही शब-ऐ-बारात का खूबसूरत त्यौहार होता है. 
शाबान से ही बहुत से लोग रोजे शुरू कर देते हैं. शाबान के बाद ही रमजान-उल-मुबारक की शुरुआत हो जायेगी.फिर ईद मतलब ये कि मसरुफियतें ही मसरुफियतें…लेकिन बहुत हसीन. 
अब समझ गए होंगे कि आप सब से दूर क्यों रही. 
दूर ज़रूर रही लेकिन मेरे दिल में आप हमेशा थे और रहेंगे. जनाब जो जिंदगी में शामिल हों, वो दूर हो कर भी बहुत करीब होते हैं. 
वो दिलों में और दुआओं में भी तो शामिल होते हैं…यकीन कीजिये, आप मेरे साथ मेरी दुआओं में भी साथ रहे और रहेंगे. 
कोशिश तो यही रहेगी कि मसरूफ रह कर भी आप सब के करीब रहूँ. देखिये कितना रह पाती हूँ. 
खुदा करे, आप सभी अपनी अपनी जगह बखैरियत और बहुत खुश हों(अमीन)

Monday, August 4, 2008

एक शिकवा है मेरे रब तुझ से.....


परसों टीवी पर और कल सुबह अखबार में जो कुछ देखा, न कुछ सोचने के लायक रही न कहने के,कितनी देर तो घर में किसी से बात करने के काबिल भी नही रही, ऐसा हौलनाक मंज़र जिसका कभी ख्वाब में भी तसव्वुर नही किया था किसी ने, नैना देवी मन्दिर के रास्ते में पड़ी वो लाशें हमारे ही जैसे इंसानों की थीं, वो भी उस मासूम इंसान की जो अपनी आम जिंदगी गुजारने के लिए दिन रात रोटी रोज़ी के फिराक में जद्दोजहद करता है और जो कुछ मुयस्सर होता है उसके लिए उस पालने वाले का शुक्रिया अदा करने कभी मन्दिर पहुँच जाता है तो कभी मस्जिद. ये वो आम आदमी है जो एहसान फरामोश नही है, जो उसके साथ करम करता है उसका एहसान मरते दम तक नही भूलता तो भला अपने रब का अहसान कैसे भूल सकता है. 
पहुँच जाता है उसका शुक्र करने किसी पवित्र स्थान पर, बिना ए सोचे कि ये ऊपर वाला उनको भी तो नवाजता है और ढेरों ढेर नवाजता है जो शायद ही उसे कभी याद करते हों या उस का शुक्र अदा करने के लिए किसी भी तूफानी मौसम या किसी भी दुश्वारी की परवाह किए बिना मंदिरों या मस्जिदों तक चले जाते हैं. 
लेकिन वो बेनियाज़ रब......
 पता नही उसके सोचने का अंदाज़ कैसा है…
बजाये इसके कि अपने इन भक्तों और मानने वालों को दुनिया की हर आफत से बचा कर बहिफाज़त उन्हें उनकी मंजिल तक पहुंचा दे..उन्हें इस कदर बेबसी की मौत मरते देखता रहता है.
बहाना कभी कोई वजह बनती है कभी कोई, मरते तो ये मासूम इंसान हैं.
जाने क्यों आज एक शिकायत सी है तुझ से,
ये दुनिया लाख उनकी परवाह न करें…ऐ खुदा तू तो है ना, तेरे भरोसे ये इंसान तेरे घर पर मेहमान बन कर गए थे, बड़ा विशवास, बड़ा एतमाद था उन्हें तुझ पर, वो हर बात से लापरवाह थे, न उन्हें ख़राब मौसम का डर था न हजारों की भीड़ का, न उन्होंने एक पल को ये सोचा कि वहां उनकी हिफाज़त के क्या एक्दाम किए गए हैं, 
सोचते भी क्यों? 
वो तो तेरे घर गए थे, तेरे महमान बन कर, इस अंधे विशवास के साथ कि अपने घर आने वालों की हिफाज़त तो तू ख़ुद करता है, कोई करे या ना करे, क्योंकि तेरे लिए तो तेरा हर बन्दा बराबर है चाहे वो बादशाह हो या फकीर, फर्क तो ये दुनिया वाले करते हैं,, तेरे ही घर पर अगर अमिताभ बच्चन, अनिल अम्बानी, अडवाणी या अमर सिंह जैसे ख़ास लोग आते तो तेरे ही घर के चप्पे चप्पे पर हिफाज़त के लिए सैकडों लोग जी जान से लग जाते क्योंकि दुनिया के लिए ये ख़ास लोग हैं जिन्हें कोई नुक्सान नही होना चाहिए, आम आदमी तो कीडे मकोडे हैं उनके लिए, कभी कहीं मर जाते हैं कभी कहीं, कब पैदा होते हैं, कब मर जाते हैं, पता ही नही चलता, क्योंकि ये आम लोग हैं न, इनका जीना क्या, इनका मरना क्या लेकिन मेरे रब, तेरे लिए तो ये फर्क कोई मायने नही रखते न, फिर तूने अपने महमानों को ऐसी बेबसी की मौत मरने से क्यों नही बचाया? 
क्यों कहर बन कर उन्हें नेस्त नाबूद नही किया जिन्होंने इन मासूमों की हिफाज़त में कोताही बरती. 
क्या हो गया है मेरे मालिक तुझे? 
कहीं तू भी तो ख़ास और आम का फर्क नही करने लगा है? 

कहीं…कहीं तू भी अपने बन्दों को उन की हैसियत के हिसाब से…..नही ..नही , ये मैं क्या सोचने लगी, पागल हूँ न, क्या करूँ, अखबारों में आंधी तूफ़ान के बाद टूटे पत्तों की तरह बिछी लाशें दिख कर जाने दिल कैसी कैसी बहकी बातें सोच रहा है, 
तू माबूद है, हर फर्क से बेनियाज़, शायद इस में भी तेरी कोई मस्लहेत रही होगी. 

ऐ खुदा, बस तुझ से मेरी इतनी सी इल्तेजा है, अपने घर की और अपने महमानों की हिफाज़त ख़ुद किया कर कि ये दुनिया इस काबिल नही रही जो तेरे महमानों कि हिफाज़त कर सके, ऐ मेरे रब, जो चले गए, उनकी रूह को पुरसुकून रख और उनके अपनों को इस दुःख को बर्दाश्त करने की ताकत अता फरमा…(आमीन)


Saturday, August 2, 2008

ये मौसम हमें खा जायेगा...


अब नही जागे तो ये मौसम हमें खा जाएगा
धुप चल कर आ गई है साया-ऐ-दीवार तक 



एक खौफ का साया है हर तरफ, अजीब सा माहौल है शहर का. लब खामोश हैं लेकिन फजाएं इस खौफ की आहट सुन रही हैं. एक निगाह दूसरी निगाह से बडे खामोश से सवाल करती है और जाने क्यों दूसरी निगाह पहली निगाह के खामोश सवालों में छिपे इसरार(राज़) को समझ कर चुपचाप निगाह चुरा लेती है.

ये कैसे मनहूस सायों ने अचानक गिरिफ्त में ले लिया है हमारे मुल्क को. चंद दिन और दो शहरों में सीरियल बम धमाके.

धमाकों के बाद जगह जगह बमों के मौजूद होने की खबर.

कहने को जान और माल का ज्यादा नुक्सान नहीं हुआ लेकिन जान एक कि जाए या दस कि, मरता एक हिन्दुस्तानी ही है न…गम एक का हो या कई का, गम तो गम होता है. हैरानी की बात ये है कि शहरों के मुख्तलिफ हिस्सों में इतनी जगह बम रखे जाते हैं और हमारी सीक्रेट एजंसियां जो इसी काम की तनख्वाहें लेती हैं, उन्हें गुमान तक नहीं होता।

ज्यादा जान माल का नुक्सान नहीं हुआ , इस से मुतमईन हो कर खुश फहमी पालने कि ज़रुरत नहीं है, क्योंकि इस मे भी हमारी काबिल एजंसियों का कोई हाथ नहीं है। जिन्होंने ये धमाके किये, उनका मकसद ही ज्यादा जान-ओ-माल का नुक्सान न होने देना रहा होगा.

लगता तो यही है कि असल मकसद सिर्फ अपनी मौजूदगी का खौफनाक अहसास कराना रहा होगा वर्ना न तो हमारी सीक्रेट एजंसियां इतनी मुसैद हैं न ही धमाके करने वाले इतने बेवकूफ।

जिंदगी का काम ही है चलते रहना। हादसे खौफनाक हों या मामूली, कोई हादसा जिंदगी की रफ्तार नहीं रोक सकता।

लेकिन जिंदगी की रफ्तार में अंदेशों के कुछ स्याह साए ज़रूर उभर आये हैं। कहीं तन्हा साइकल देख कर लोग उलझन में पड़ जाते हैं। सिनेमा के नाईट शोज़ पर रोक लग चुकी है। भीड़ भाड़ वाली जगहों पर जाने से लोग परहेज़ कर रहे हैं।

जिंदगी नार्मल होते हुए भी नार्मल नहीं रह गयी है।
खुदानाखास्ता इसी तरह के दो चार हादसे और हो जाते हैं तो लोगों कि जिंदगियों में ख़ुद एतमादी के रंग ख़त्म हो जायेंगे और वो जिंदगी जिस में ख़ुद एतमादी का रंग न हो, मौत के बराबर होती है।
ऐसा नहीं होना चाहिए, ये मंज़र बदलना चाहिए। कुछ ऐसे कदम जो वाकई इस मकसद से उठाये जाएँ जो आगे चल कर ऐसे हादसों को रोकने में मददगार साबित हों।
ऐसे खतरनाक हालात में सियासत को पसे -पुश्त(पीछे) डालकर अपने अपने मुफाद(लाभ) भूलकर संजीदगी से सोचने कि ज़रुरत है.
हंसी आती है जब कोई हादसा होता है  और इल्जाम बडी आसानी से पकिस्तान और आई.एस.एस.आई को देकर लोग खुद को हर इल्जाम से बरिउल्ज़िम्मा कर लेते हैं. और तो और ऐसे में हमारा मीडिया भी ऐसे लोगों के साथ होता है.
जो पाकिस्तान खुद दहशत गर्दी की आग में जल रहा है, वो अपने बारे में सोचने के बजाये दुसरे मुल्कों में आग लगता फिरेगा, क्या ये बात पूरी तरह गले उतरती है?
इस में कोई दो राय नहीं है कि माजी में पाकिस्तान ऐसी हरकतों को बढ़ावा देने में शामिल रहा है लेकिन सिर्फ इसी वजह से हर बार बगैर कोई और रुख देखे एक ही रुख को देखते रहना सिर्फ हमारे लिए नुकसान दायक होगा. मुस्लिम हलकों में इसे बी.जे.पी की कारस्तानी बताया जा रहा है. दलील ये दी जाती है कि जो पार्टी रिश्वत ले सकती है, अपने मुफाद के लिए अपने ही मुल्क को फिरका परस्ती की आग में झोंक सकती है, बेगुनाह मासूम इंसानों की जानें ले सकती है, पार्लिमेंट हाउस में नोटों की गड्डियों के साथ बेशर्म मुजाहरा कर सकती है वो अपने मुफाद के लिए किसी भी हद से गुज़र सकती है.
पता नहीं इस में सच क्या है, क्या नहीं. लेकिन सच जो भी है, हमारे सामने आना चाहिए.
बहुत हो चुका , अब मसले को पूरी तरह हल होना चाहिए. अपने मुफाद को भूलकर खुद अपने गरीबां में भी देखने की ज़रुरत है.
इस अहसास से दामन छुडा कर कि कहीं गरीबान में अपनी सूरत, बदसूरत न दिखाई पड़े.
अपना एहतेसाब करना होगा, ये देखना होगा कि कहीं हमारी लम्हों की गलती हमें सदियों की सजा का मुस्तहेक तो नहीं ठहरा गयी है?