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{इक छोटी सी इल्तेजा है, इस पोस्ट को पूरी पढने के बाद ही अपनी राय का इज़हार करें }
समाज ने हमेशा अपने उसूलों में औरत और मर्द के लिए वाजेह(स्पष्ट) फर्क रखा. हर मज़हब ने अपने उसूलों में हमेशा मर्दों को रियायत दी है वहीँ ओरतों के मामले में सख्ती से पेश आया है.
समाज चाहे मगरिब(पश्चिम) का रहा हो या मशरिक का, ओरतों के लिए दोनों ने अपने नज़रिए में तास्सुब रखा. मशरिक में ये फर्क कुछ ज्यादा ही रहा है.
ये कोई नयी बात नहीं है, सदियों से औरत ने इस फर्क को देखा और महसूस किया है, खामोशी से झेला भी है और आवाज़ भी उठायी है. आज भी औरत इस फर्क को मिटाने की लडाई लड़ रही है और जाने कब तक लड़ती रहेगी .
समाज चाहे मगरिब(पश्चिम) का रहा हो या मशरिक का, ओरतों के लिए दोनों ने अपने नज़रिए में तास्सुब रखा. मशरिक में ये फर्क कुछ ज्यादा ही रहा है.
ये कोई नयी बात नहीं है, सदियों से औरत ने इस फर्क को देखा और महसूस किया है, खामोशी से झेला भी है और आवाज़ भी उठायी है. आज भी औरत इस फर्क को मिटाने की लडाई लड़ रही है और जाने कब तक लड़ती रहेगी .
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वो मेरे कालेज में ही लेक्चरर हैं. दिलकश चेहरा, लंबा कद, खूबसूरत सरापा, जहीन लेकिन उदास आँखें.
पता नहीं कब मेरी उन से दोस्ती हुयी. शायद उनकी उदास आंखों की कशिश थी जिसने मुझे अपने करीब खींच लिया.
मुझ में एक बड़ी अजीब सी खामी है, पता नहीं क्यों, हर चेहरा मुझे कुछ कहता सा महसूस होता है या शायद ऐसे बोलते और मतवज्जह करते चेहरे ही मेरी कशिश का बायस बनते हैं.
मैं जानती हूँ. दुनिया की इस भीड़ में मौजूद हर चेहरा अपने पीछे एक फ़साना छिपाए फिरता है. हर चेहरे की अलग कहानी, हम कहाँ तक भला इन चेहरों के पीछे पोशीदा फ़साने तलाश करते फिरेंगे.
लेकिन हम अपनी कुछ आदतों के सामने ख़ुद ही बेबस होते हैं. मैं भी बेबस हो जाती हूँ.
वो मेरी दोस्त बनीं तो बाकी सारे रिश्ते पस-ए-पुश्त डालकर हम बे तकल्लुफ होते चले गए.
दिल में मौजूद ख्वाहिश के बावजूद मैंने उनकी आंखों की उदासी की वजह नहीं पूछी. पता नहीं क्यों, शायद ये यकीन सा था कि अगर मैं अपनी दोस्ती में ईमानदार हूँ तो वो एक दिन ख़ुद अपना आप मेरे सामने रख देंगी.
और उस दिन ये यकीन सच्चा साबित हुआ.
वो कहती रहीं और मैं सुनती रही, कई बार दिल में कई सवाल मचले थे लेकिन मैंने उन्हें जुबान नहीं दी. बस उन्हें सुनती रही.
मैं कोशिश के बावजूद उन से कोई सवाल नहीं कर सकी उल्टे उन्होंने मुझ से एक सवाल ज़रूर पूछ लिया. मैं भला उनके सवाल का जवाब कैसे दे सकती थी जब कि जवाब दूर दूर तक मेरे पास भी नहीं था.
लेकिन फिर भी, कहीं कोई जवाब तो होगा इसलिए मैं उनका वही सवाल आपके सामने रखने जारही हूँ.
-------------------------------------------------------------------------------------------------- वो इक सवाल बड़ा ही अजीब था उसका
पता नहीं कब मेरी उन से दोस्ती हुयी. शायद उनकी उदास आंखों की कशिश थी जिसने मुझे अपने करीब खींच लिया.
मुझ में एक बड़ी अजीब सी खामी है, पता नहीं क्यों, हर चेहरा मुझे कुछ कहता सा महसूस होता है या शायद ऐसे बोलते और मतवज्जह करते चेहरे ही मेरी कशिश का बायस बनते हैं.
मैं जानती हूँ. दुनिया की इस भीड़ में मौजूद हर चेहरा अपने पीछे एक फ़साना छिपाए फिरता है. हर चेहरे की अलग कहानी, हम कहाँ तक भला इन चेहरों के पीछे पोशीदा फ़साने तलाश करते फिरेंगे.
लेकिन हम अपनी कुछ आदतों के सामने ख़ुद ही बेबस होते हैं. मैं भी बेबस हो जाती हूँ.
वो मेरी दोस्त बनीं तो बाकी सारे रिश्ते पस-ए-पुश्त डालकर हम बे तकल्लुफ होते चले गए.
दिल में मौजूद ख्वाहिश के बावजूद मैंने उनकी आंखों की उदासी की वजह नहीं पूछी. पता नहीं क्यों, शायद ये यकीन सा था कि अगर मैं अपनी दोस्ती में ईमानदार हूँ तो वो एक दिन ख़ुद अपना आप मेरे सामने रख देंगी.
और उस दिन ये यकीन सच्चा साबित हुआ.
वो कहती रहीं और मैं सुनती रही, कई बार दिल में कई सवाल मचले थे लेकिन मैंने उन्हें जुबान नहीं दी. बस उन्हें सुनती रही.
मैं कोशिश के बावजूद उन से कोई सवाल नहीं कर सकी उल्टे उन्होंने मुझ से एक सवाल ज़रूर पूछ लिया. मैं भला उनके सवाल का जवाब कैसे दे सकती थी जब कि जवाब दूर दूर तक मेरे पास भी नहीं था.
लेकिन फिर भी, कहीं कोई जवाब तो होगा इसलिए मैं उनका वही सवाल आपके सामने रखने जारही हूँ.
-------------------------------------------------------------------------------------------------- वो इक सवाल बड़ा ही अजीब था उसका
कि उसके बाद फजाओं ने ली थी इक सिसकी
मुहब्बत की हसीन वादियों में हमने एक साथ कदम रखे थे. जो ख्वाब मेरी आंखों में उतरे वही ख्वाब उसकी रातों का भी हिस्सा थे. हमने आने वाले लम्हों में हमेशा एक दूसरे को हमकदम ही देखा था. कोई लम्हा , कोई पल हमारे सपने में ऐसा नहीं था जब हम एक दूसरे से लम्हा भर भी दूर रहे हों. हमारे ख्वाब, हमारी खुशियाँ, हमारी मंजिलें एक थीं. हम एक दूसरे के बिना कुछ थे ही नहीं.
और एक दिन हमने बड़ी ईमानदारी से अपने जज्बों की ख़बर अपने घर वालों को दे दी. लेकिन ये हमारी बदकिस्मती थी हम दोनों ही अपने अपने घर वालों को राजी नहीं कर सके, मेरे पापा जो एक कालेज में प्रोफेसर होने के साथ साथ एक अच्छे कवि भी थे. उनकी जिंदगी के कुछ उसूल थे जिसे मेरी माँ और हम बहनों ने हमेशा इज्ज़त दी थी. आस पास के लोगों में भी उनका बड़ा एहतेराम था.
पापा इस रिश्ते पर क्यों राज़ी नहीं थे मैं इसकी तफसील में नहीं जाउंगी, बस इतना था कि उनके नज़रिए से उनके इनकार की वजह सही थी लेकिन काश पापा एक बार मेरे दिल में झाँक कर देखते तो दुनिया की बड़ी से बड़ी वजह भी उन्हें छोटी महसूस होती.
जब हम दोनों अपने अपने घर वालों को राज़ी करने में नाकाम हो गए तो हमने वही रास्ता अपनाया जो किसी भी लिहाज़ से सही नहीं होता. ये बात मैं आज स्वीकार कर रही हूँ, ऐसा बिल्कुल नहीं है. मेरा नजरिया कल भी वही था, आज भी वही है. जो कदम हमने उठाया, वो हमारी गलती थी और मैं हर उन लड़कियों को इस कदम से बाज़ रहने की अपील करती हूँ, जो दिल के हाथों मजबूर होकर ये ग़लत कदम उठाती हैं.
हमने वो शहर छोड़ दिया. मैंने अपनी डिग्रियों के सर्टिफिकेट्स अपने घर वालों की फोटो और दो जोड़े कपडों के अलावा साथ कुछ भी नहीं लिया.लेकिन शायद मैं कुछ ग़लत हूँ. लिया क्यों नहीं, बचपन से लेकर जवानी तक की बेशुमार यादें, ढेरों मुहब्बतें भी तो मैं साथ लेकर आई थी.
एक अनजान शहर में हमने अपनी नयी अरमानों भरी दुनिया बसाई थी. हम ने जो माँगा था, जो चाहा था , सब पा लिया था. हम खुश थे और खुश होना चाहते थे लेकिन कहते हैं ना, कि जिस दुनिया की बुनियाद बहुत सारे लोगों के आंसुओं पर रखी जाए, जो आशियाना अपने चाहने वालों के मान को तोड़ कर बनाया जाए वो कभी आबाद नहीं हो पाता, चाहे उसे आबाद रखने के कितने भी जतन क्यों ना किए जाएँ.
हम दोनों अपनी एक दुनिया छोड़ कर आए थे और वो दुनिया हमारे लिए क्या थी, इसका अहसास हमें उस दुनिया से नाता तोड़ने के बाद हुआ. समाज से कट कर भी कोई कहाँ जी सकता है. हम अकेले थे, न हमारे पास रिश्तों का मान था न बुजुर्गों कि चाहतों का गुरूर.
हम अपनी अपनी सोचों में अकेले थे. सुना था कि जहाँ मुहब्बत हो, वहां बाकी किसी शै की ज़रूरत नहीं रह जाती, ग़लत है ये, एक मुहब्बत के आलावा भी इंसान को जीने के लिए बहुत सारी दूसरी चीज़ों की ज़रूरत होती है.
उन्हीं दिनों उस ने बताया कि उसकी माँ की तबियत बहुत खराब है, वो बेहद परेशान था. मैंने उसे उन से मिलने को कहा तो उसने बताया कि उसके बाप ने शर्त रखी है कि वो मुझ से हर रिश्ता तोड़ कर ही उनके पास आ सकता है.
उसने कहा कि उसने इनकार कर दिया है लेकिन पता नहीं क्यों, मुझे लगा कि उसके दिल में कहीं, इस ज़ंजीर से आजाद होने की हलकी ख्वाहिश धीरे धीरे आँखें खोल रही है.
मैं डर गई. लेकिन ऐसा होता है ना कि जिस बात से हम डरते हैं, वो अक्सर हो ही जाती है.
मैं देख रही थी कि माँ की मुहब्बतों के सामने हमारी मुहब्बत धीरे धीरे हार सी रही है. वो अन्दर से टूट रहा था.
उसकी माँ को कैंसर था. वो उस से मिलना चाहती थी.लेकिन उसके बाप की जिद उसी तरह कायम थी, पता नहीं दौलतमंदों के दिलों में ऊपर वाला जज़्बात क्यों नहीं शामिल करता.
वो ऊपर से मुस्कुराता था लेकिन अकसर सारी सारी रात जागता रहता था.
कई बार मुझे उसके रोने का भी गुमान हुआ. और इस से पहले कि हमारी वो मुहब्बत जिसके लिए मैंने अपने माँ बाप की इज्ज़तों, बहनों के मुस्तकबल की भी परवाह नहीं थी, अपना भरम खो देती, और मैं अपने आप से शर्मसार हो जाती मैं ने एक फ़ैसला कर लिया, हमेशा के लिए अपनी राहें जुदा कर लेने का फ़ैसला. वो मुझ से नाराज़ था, मैंने उसे अपनी कसम दे दी. और फिर वही हुआ जो होने वाला था.
हम जुदा हो गए, वो मुझ से बहुत नाराज़ था लेकिन मैं जानती थी कि एक दिन उसे भी यही फ़ैसला करना था.
वो चला गया. अपनी सारी जमा पूँजी उसने मेरे नाम कर दी थी, लेकिन मुझे इसे क्या करना था. मैं अपनी बिछडी अनमोल मुहब्बतों के पास लौटना चाहती, उन के पास जिनकी मुहब्बतों को चंद दिनों की मुहब्बत के लिए ठुकरा कर चली आई थी. शायद उसी की सज़ा मुझे मिली थी.
मैं पागलों की तरह लखनऊ पहुँची, अपने उसी घर जहाँ के आँगन में मैंने चलना सीखा था, जहाँ मेरे माँ बाप थे मेरी बहनें थीं, मैंने गलती की थी, बहुत बड़ी, लेकिन वो मेरे माँ बाप थे, भला मुझ से जायदा देर नाराज़ कहाँ रह सकते थे.
पहले भी गलतियाँ करती रही थी, और वो थोडी देर की नाराजगी के बाद मुझे सीने से लगा लेते थे.
लेकिन अपने घर पहुँच कर मुझे अहसास हुआ कि मैं जो गलती कर चुकी थी, वो बहुत बड़ी थी, मैंने क्या किया था इसका अंदाजा तो मुझे अपने घर पहुँच कर हुआ, हमेशा सर उठा कर चलने वाले मेरे पिता जी का सर मेरे जाने के बाद ऐसा झुका की फिर कभी उठ ही नहीं सका, मेरे जाने के सिर्फ़ छ महीने बाद उन्होंने मौत की गोद में मुंह छिपा लिया.
मेरी माँ और बहनों ने नफरत से मुंह मोड़ लिया और मुझे पहचानने से इनकार कर दिया. मेरी माँ ने साफ़ कहा कि इस से पहले कि मेरी वजह से वो अपनी बेटियों को लेकर कहीं और जाने पर मजबूर हो जाएँ , अपनी स्याह परछाईं लेकर मैं यहाँ से दूर चली जाऊं.
मैं वापस आगयी. अब मुझे अकेले जिंदगी के इस बोझ को उठाना था. मेरी डिग्री मेरे साथ थी सो मैंने जॉब कर ली और जीने का बहाना ढूंढ लिया.
वो अपने घर पर खुश है. उसके घर वालों ने उसकी शादी अपने जैसे दौलतमंद घराने में कर दी है. मैं नहीं जानती कि वो खुश होगा या नहीं लेकिन उसके घर वाले अपने खोये बेटे को पाकर बहुत खुश हैं.
गलती तो हम दोनों ने एक सी की थी, अपने अपने घर वालों की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ घर छोड़ने की, फिर सज़ा सिर्फ़ मुझे क्यों मिली?
कहते हैं, सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आजाये तो उसे भूला नहीं कहते, उसे वापस बुला लेते हैं, फिर मेरी भूल को भी मेरी नादानी समझ कर माफ़ क्यों नहीं किया गया?
मुहब्बत की हसीन वादियों में हमने एक साथ कदम रखे थे. जो ख्वाब मेरी आंखों में उतरे वही ख्वाब उसकी रातों का भी हिस्सा थे. हमने आने वाले लम्हों में हमेशा एक दूसरे को हमकदम ही देखा था. कोई लम्हा , कोई पल हमारे सपने में ऐसा नहीं था जब हम एक दूसरे से लम्हा भर भी दूर रहे हों. हमारे ख्वाब, हमारी खुशियाँ, हमारी मंजिलें एक थीं. हम एक दूसरे के बिना कुछ थे ही नहीं.
और एक दिन हमने बड़ी ईमानदारी से अपने जज्बों की ख़बर अपने घर वालों को दे दी. लेकिन ये हमारी बदकिस्मती थी हम दोनों ही अपने अपने घर वालों को राजी नहीं कर सके, मेरे पापा जो एक कालेज में प्रोफेसर होने के साथ साथ एक अच्छे कवि भी थे. उनकी जिंदगी के कुछ उसूल थे जिसे मेरी माँ और हम बहनों ने हमेशा इज्ज़त दी थी. आस पास के लोगों में भी उनका बड़ा एहतेराम था.
पापा इस रिश्ते पर क्यों राज़ी नहीं थे मैं इसकी तफसील में नहीं जाउंगी, बस इतना था कि उनके नज़रिए से उनके इनकार की वजह सही थी लेकिन काश पापा एक बार मेरे दिल में झाँक कर देखते तो दुनिया की बड़ी से बड़ी वजह भी उन्हें छोटी महसूस होती.
जब हम दोनों अपने अपने घर वालों को राज़ी करने में नाकाम हो गए तो हमने वही रास्ता अपनाया जो किसी भी लिहाज़ से सही नहीं होता. ये बात मैं आज स्वीकार कर रही हूँ, ऐसा बिल्कुल नहीं है. मेरा नजरिया कल भी वही था, आज भी वही है. जो कदम हमने उठाया, वो हमारी गलती थी और मैं हर उन लड़कियों को इस कदम से बाज़ रहने की अपील करती हूँ, जो दिल के हाथों मजबूर होकर ये ग़लत कदम उठाती हैं.
हमने वो शहर छोड़ दिया. मैंने अपनी डिग्रियों के सर्टिफिकेट्स अपने घर वालों की फोटो और दो जोड़े कपडों के अलावा साथ कुछ भी नहीं लिया.लेकिन शायद मैं कुछ ग़लत हूँ. लिया क्यों नहीं, बचपन से लेकर जवानी तक की बेशुमार यादें, ढेरों मुहब्बतें भी तो मैं साथ लेकर आई थी.
एक अनजान शहर में हमने अपनी नयी अरमानों भरी दुनिया बसाई थी. हम ने जो माँगा था, जो चाहा था , सब पा लिया था. हम खुश थे और खुश होना चाहते थे लेकिन कहते हैं ना, कि जिस दुनिया की बुनियाद बहुत सारे लोगों के आंसुओं पर रखी जाए, जो आशियाना अपने चाहने वालों के मान को तोड़ कर बनाया जाए वो कभी आबाद नहीं हो पाता, चाहे उसे आबाद रखने के कितने भी जतन क्यों ना किए जाएँ.
हम दोनों अपनी एक दुनिया छोड़ कर आए थे और वो दुनिया हमारे लिए क्या थी, इसका अहसास हमें उस दुनिया से नाता तोड़ने के बाद हुआ. समाज से कट कर भी कोई कहाँ जी सकता है. हम अकेले थे, न हमारे पास रिश्तों का मान था न बुजुर्गों कि चाहतों का गुरूर.
हम अपनी अपनी सोचों में अकेले थे. सुना था कि जहाँ मुहब्बत हो, वहां बाकी किसी शै की ज़रूरत नहीं रह जाती, ग़लत है ये, एक मुहब्बत के आलावा भी इंसान को जीने के लिए बहुत सारी दूसरी चीज़ों की ज़रूरत होती है.
उन्हीं दिनों उस ने बताया कि उसकी माँ की तबियत बहुत खराब है, वो बेहद परेशान था. मैंने उसे उन से मिलने को कहा तो उसने बताया कि उसके बाप ने शर्त रखी है कि वो मुझ से हर रिश्ता तोड़ कर ही उनके पास आ सकता है.
उसने कहा कि उसने इनकार कर दिया है लेकिन पता नहीं क्यों, मुझे लगा कि उसके दिल में कहीं, इस ज़ंजीर से आजाद होने की हलकी ख्वाहिश धीरे धीरे आँखें खोल रही है.
मैं डर गई. लेकिन ऐसा होता है ना कि जिस बात से हम डरते हैं, वो अक्सर हो ही जाती है.
मैं देख रही थी कि माँ की मुहब्बतों के सामने हमारी मुहब्बत धीरे धीरे हार सी रही है. वो अन्दर से टूट रहा था.
उसकी माँ को कैंसर था. वो उस से मिलना चाहती थी.लेकिन उसके बाप की जिद उसी तरह कायम थी, पता नहीं दौलतमंदों के दिलों में ऊपर वाला जज़्बात क्यों नहीं शामिल करता.
वो ऊपर से मुस्कुराता था लेकिन अकसर सारी सारी रात जागता रहता था.
कई बार मुझे उसके रोने का भी गुमान हुआ. और इस से पहले कि हमारी वो मुहब्बत जिसके लिए मैंने अपने माँ बाप की इज्ज़तों, बहनों के मुस्तकबल की भी परवाह नहीं थी, अपना भरम खो देती, और मैं अपने आप से शर्मसार हो जाती मैं ने एक फ़ैसला कर लिया, हमेशा के लिए अपनी राहें जुदा कर लेने का फ़ैसला. वो मुझ से नाराज़ था, मैंने उसे अपनी कसम दे दी. और फिर वही हुआ जो होने वाला था.
हम जुदा हो गए, वो मुझ से बहुत नाराज़ था लेकिन मैं जानती थी कि एक दिन उसे भी यही फ़ैसला करना था.
वो चला गया. अपनी सारी जमा पूँजी उसने मेरे नाम कर दी थी, लेकिन मुझे इसे क्या करना था. मैं अपनी बिछडी अनमोल मुहब्बतों के पास लौटना चाहती, उन के पास जिनकी मुहब्बतों को चंद दिनों की मुहब्बत के लिए ठुकरा कर चली आई थी. शायद उसी की सज़ा मुझे मिली थी.
मैं पागलों की तरह लखनऊ पहुँची, अपने उसी घर जहाँ के आँगन में मैंने चलना सीखा था, जहाँ मेरे माँ बाप थे मेरी बहनें थीं, मैंने गलती की थी, बहुत बड़ी, लेकिन वो मेरे माँ बाप थे, भला मुझ से जायदा देर नाराज़ कहाँ रह सकते थे.
पहले भी गलतियाँ करती रही थी, और वो थोडी देर की नाराजगी के बाद मुझे सीने से लगा लेते थे.
लेकिन अपने घर पहुँच कर मुझे अहसास हुआ कि मैं जो गलती कर चुकी थी, वो बहुत बड़ी थी, मैंने क्या किया था इसका अंदाजा तो मुझे अपने घर पहुँच कर हुआ, हमेशा सर उठा कर चलने वाले मेरे पिता जी का सर मेरे जाने के बाद ऐसा झुका की फिर कभी उठ ही नहीं सका, मेरे जाने के सिर्फ़ छ महीने बाद उन्होंने मौत की गोद में मुंह छिपा लिया.
मेरी माँ और बहनों ने नफरत से मुंह मोड़ लिया और मुझे पहचानने से इनकार कर दिया. मेरी माँ ने साफ़ कहा कि इस से पहले कि मेरी वजह से वो अपनी बेटियों को लेकर कहीं और जाने पर मजबूर हो जाएँ , अपनी स्याह परछाईं लेकर मैं यहाँ से दूर चली जाऊं.
मैं वापस आगयी. अब मुझे अकेले जिंदगी के इस बोझ को उठाना था. मेरी डिग्री मेरे साथ थी सो मैंने जॉब कर ली और जीने का बहाना ढूंढ लिया.
वो अपने घर पर खुश है. उसके घर वालों ने उसकी शादी अपने जैसे दौलतमंद घराने में कर दी है. मैं नहीं जानती कि वो खुश होगा या नहीं लेकिन उसके घर वाले अपने खोये बेटे को पाकर बहुत खुश हैं.
गलती तो हम दोनों ने एक सी की थी, अपने अपने घर वालों की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ घर छोड़ने की, फिर सज़ा सिर्फ़ मुझे क्यों मिली?
कहते हैं, सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आजाये तो उसे भूला नहीं कहते, उसे वापस बुला लेते हैं, फिर मेरी भूल को भी मेरी नादानी समझ कर माफ़ क्यों नहीं किया गया?
{यही वो एक सवाल था जो उन्होंने मुझ से किया, और मैं चाह कर भी उन्हें कोई जवाब नही दे सकी.....}