Sunday, September 28, 2008

आई है ईद, लेकर उदासियाँ कितनी....

रात मुंबई से फायेज़ा (मेरी कजिन)का फ़ोन आया, चहकते हुए पूछ रही थी कि मेरी ईद की तैयारियां कहाँ तक पहुंचीं, मेरा जवाब सुनने से पहले ही मोहतरमा शुरू हो गयीं अपनी बातें लेकर..’पता है मैंने इस बार अपनी ड्रेसिंग की तैयारी एकदम अलग तरह से की है, आफ व्हाइट और पीच कॉम्बिनेशन का लहंगा सेट, साथ में मैचिंग ज्वेलरी और चूड़ियाँ, माथे पर बिंदी के साइज़ का टीका लगाने का इरादा है, इसके आलावा मैंने….वो कहती जारही थी और मैं सुनती जारही थी. उसकी तफसील ख़तम हुयीं तो वो फिर उसी सवाल पर आगयी..’’यार तुमने तो कुछ बताया ही नही, तुम क्या पहन रही हो?

मैं उसे क्या बताती की मुझे इस बात से कोई फर्क नही पड़ता की मैं क्या पहन रही हूँ, ये सारी बातें तो तब अच्छी लगती हैं ना जब दिल का मौसम खुश गवार हो, उमंगों और मुसर्रतों की कलियाँ दिल के गुलशन में खिल रही हों, जब अन्दर का मौसम ज़र्द होरहा हो तो उदासियाँ डेरे जमा लेती हैं, ऐसे में किसी खुशी के मायने ही कहाँ रह जाते हैं…एक बार दिल चाहा पूछूं कि बेहिस बन कर कैसे जिया जाता है? मुझे भी सिखा दो, बड़े फायदे हैं इसके..इंसान बहुत सारी मुश्किलों से बच जाता है. पल पल से खुशियाँ कशीद कर जिंदगी के सारे मज़े लेसकता है.

बड़ी मुश्किल से उसे टाला, कुछ कहती तो जानती थी, वो मेरा ही मजाक उडाते हुए मेरी बातों को चुटकियों में उडाते हुए मुझे महा बोर का खिताब देने में देर नही करेगी.

फ़ोन रखने के बाद भी मैं काफी देर उसके बारे में सोचती रही, क्या हो गया है हमारी कौम की लड़कियों को, क्योंकि फायज़ा से ही मिलता जुलता रूप मेरी तमाम कजिन्स, सहेलियों का है. उनकी दुनिया फैशन, ज्वेल्लरी, लेटेस्ट मूवीस, तक ही महदूद हो कर रह गई है. ज़्यादा से ज़्यादा वक्त की ज़रूरत के मुताबिक पढाई करके डिग्री ले लेना, कोई मनपसंद जॉब कर लेना या शादी रचा लेना और बसक्या यही सब कुछ होता है?

आज हमारा मुल्क किस मुश्किलों से गुज़र रहा है, देश का कोई कोना महफूज़ नही रह गया है. पुलिस इस कदर निकम्मी हो गई है की असल मुजरिमों को पकड़ने में जीजान लगाने के बजाये बेगुनाह नौजवानों को पकड़ कर उनकी जिंदगी तबाह कर रही है.

मैं भला ईद की क्या तय्यारी करूँ फायज़ा, मुझे धमाकों में मारे गए मासूम लोगों की लाशें दिखायी देती हैं, उन मासूम बच्चों के आंसू दिखायी देते हैं,जो इन धमाकों में अपने माँ या बाप को खो चुके हैं, मुझे उन बेगुनाह नौजवानों के चेहरे दिखायी देते हैं जो बेगुनाह होकर भी पुलिस के जालिमाना तशद्दुद सहने पर मजबूर हैं, उन माँओं के आंसू, उनके बाप की बेबसी दिखायी देती है जो एकदम अकेले हो गए हैं, मुझे वो मासूम गरीब ईसाइयों की लाशें दिखाई देती हैं जो कुछ खुनी दरिंदों के ज़ुल्म का शिकार होकर मौत के मुंह में चले गए, मुझे वो बेबस सैलाब के शिकार लोगों की बेबसी दिखाई देती है जो आज दाने दाने के मुहताज दर बदर भटक रहे हैंमैं ईद कैसे मनाऊं फायज़ा, मैं क्या तैयारियां करूँ, किस दिल से करूँ. खुशियाँ या उसकी सेलिब्रेशन तो तब होती हैं ना जब दिल अन्दर से खुश हो, लेकिन मैं ये सब भला फायज़ा से क्या कहती. जानती थी, उसे कुछ समझ नही आएगा.

हाँ, ईद आएगी, एक रस्म आदायगी की तरह गुज़र जायेगी. रोजों के बाद ईद की खुशियाँ मनाना मुस्लिम पर फ़र्ज़ है, सो ये फ़र्ज़ सादगी से अदा हो जायेगा.

बस इस ईद का चाँद देख कर कुछ दुआएं ज़रूर मांगूंगी कि ‘ मेरे रब, इस ईद जैसी ईद फिर कभी ना हो, अगली ईद जब आए तो खुशियाँ रग-रग में समायीं हों, मुल्क खुश हाल हो, किसी भी तरह की दहशत गर्दी से पाक, मुस्लिम हों या ईसाई, हिंदू हों या सिख, हर मज़हब के लोग महफूज़ हों, हर तरफ़ सुकून और अमन हो, तब हमारी असली ईद होगी. अगली बार मेरे रब बस ऐसा ही चाँद देखना नसीब हो(आमीन)

Wednesday, September 24, 2008

चुप की दहलीज़ पे ठहरा है कोई सन्नाटा


सारा दिन छाजों मेंह बरसता रहा. मौसम एकदम अभी से खुनक(सर्द) होने लगा है. सर्द मौसम की आमद का पैगाम देती ये बारिशें एक अजीब सी उदासी का तास्सिर देती हैं.

सब सो चुके हैं लेकिन उसे नींद नही आरही है. दिल की उदासी जब हद से ज़्यादा बढ़ने लगी तो वो कमरे से बाहर निकल आती है.एक घुटन सी है हर तरफ़. वो दरवाज़ा खोलकर टेरिस पर चली आती है. बारिश रुक चुकी है लेकिन इक्का दुक्का बूँदें अभी टपक रही हैं. अंधेरे की चादर ओढे स्याह रात के लबों पर अजीब सी खामोशी है.ना चाँद ना सितारे, बस एक सर्द सा सन्नाटा. वो कुछ सोचना नही चाहती लेकिन उसके अन्दर सवालों की एक दुनिया है.उलझनों के कई दर खुल गए हैं. बेबसी सर उठाने लगी है.

किसी के हाथों का शफीक लम्स उसके बालों पर ठहर जाता है लेकिन वो हैरान नही होती. वो जानती है कि उसके दिल के मौसमों के एक एक रंग से अगर कोई वाकिफ है, तो वो उसके बाबा ही हैं. वो बाबा को परेशान ही तो नही करना चाहती थी वरना ख़ुद ही उनके कमरे में चली जाती. लेकिन वो जानती है कि कुछ सवालात ऐसे हैं जिनके जवाब उसके बाबा के पास भी नही हो सकते.

‘’मैं जानता हूँ तुम परेशान हो वरना ऐसे मौसम में इतनी रात गए यहाँ कभी नही आतीं. क्या परेशानी की वजह मुझे पूछने पड़ेगी बेटा?’’

जाने कितने लम्हे खामोशी की नजर हो जाते हैं, वो बाबा को देखती है. ‘’हाँ मैं परेशान हूँ, बहुत परेशान, मैं जानती हूँ, आप भी परेशान होंगे लेकिन ज़ाहिर नही कर रहे, लेकिन मुझ से बर्दाश्त नही होता, मुझे कुछ भी अच्छा नही लगता. आप जानते हैं, सब कुछ पहले जैसा होते हुए हुए भी पहले जैसा नही रहा.’’ बाबा की आंखों में अभी भी सवाल हैं. वो समझ नही पारहे या समझना ही नही चाहते. बाबा आप खबरें देखते हैं ना, एक अजीब सा माहौल हो गया है, कुछ सरफिरे और बुजदिल लोगों ने दहशत गर्दी की साजिश क्या अंजाम दी, लोगों की नज़रें ही बदल गयीं. कुछ हादसों ने पोशीदा नफरतों से नकाब ही हटा दिए. हम बेगुनाह होकर भी गुनाहगार ठहराए जारहे हैं. बाबा आज हिन्दुसानी मुस्लिम एक खौफ के साए में जीर आहा है. उसे शक की नज़र से देखा जारहा है.

’’ बाबा लब भींज लेते हैं, ‘’ हाँ कुछ बुजदिल लोग अपने नापाक इरादों से मज़हब को बदनाम करने की साजिश रच रहे हैं. ये देश के ही नही सारी कौम के दुश्मन हैं, इंसानियत के दुश्मन हैं.’’

‘’मैं मानती हूँ बाबा कि कुछ लोगों ने ऐसा घिनावना काम किया, लेकिन वो मुजरिम थे, हर मुजरिम जो जुर्म करता है तो सज़ा उसे मिलनी चाहिए, लेकिन सज़ा हमें क्यों मिल रही है? आप जानते हैं, कुछ लोग खुले आम हमारे मज़हब की तौहीन कर रहे हैं. उस मज़हब की जो बिना किसी वजह के इक पत्ता तक तोडे जाने के ख़िलाफ़ है. हमारे बारे में जिसका जो दिल चाहता है, खुले आम बोल रहा है. क्या ये जुर्म नही है? बाबा आज माहौल ये है कि किसी का दुश्मनी में भी किया हुआ एक इशारा एक मुस्लिम नौजवान की सारी जिंदगी तबाह करने के लिए काफ़ी है.

''आपने अखबार में पढ़ा है ना की किस तरह मुंबई में एक मौलाना महमूदुल हसन कासमी जो एक फ्रीडम फाइटर की फैमिली से ताल्लुक रखते हैं , की बेईज्ज़ती की गई. सिर्फ़ शक की बिना पर उन्हें नंगे पैर बगैर टोपी के घसीटते हुए पुलिस थाने ले गई. वो तो जब तलाशी में उनके घर के अलबम से पता चला कि वो कितने इज्ज़तदार शहरी हैं तब पुलिस ने ये धमकी देते हुए उन्हें छोड़ा की वो इस वाकये का किसी से ज़िक्र ना करें. बाद में उनकी बड़े नेताओं से जान पहचान देखते हुए उन से माफ़ी मांगी गई. बाबा जब ऐसे क़द वाले शहरी के साथ ऐसा सुलूक हो सकता है तो सोचिये एक आम मुस्लिम के साथ कैसा सुलूक होता होगा.

अपने ही देश में हमारे साथ गैरों जैसा सुलूक किया जाता है. हम एक साँस भी ले लें तो इल्जामों का पूरा पुलिंदा हमें थमा दिया जाता है.’’

वो बोलती जारही है और बाबा हैरत से उसे देखे जारहे हैं. शायद उन्हें यकीन नही आरहा है.

‘’बेटा..वो जाने क्यों उसे टोक देते हैं.’’ मैं मानता हूँ की हमारे साथ ग़लत हो रहा है लेकिन ये वक्ति बेवकूफियां हैं जो वक्त के साथ ख़त्म हो जायेंगी.’’

‘’ लेकिन क्यों बाबा’’ उसे उन पर गुस्सा आजाता है ‘’हम सब ठीक होने का इंतज़ार क्यों करें? हम किसी को सफाई क्यों दें? ये हमारा देश है, वैसे ही जैसे बाकी लोगों का, वो चाहे चर्चों पर हमले करें,चाहे बेगुनाह ईसाइयों को क़त्ल करें, बिहारियों पर ज़ुल्म करें, बम बनाते हुए पकड़े जाएँ, उन्हें हाथ लगाने की हिम्मत कोई नही करता. सारी दुनिया के सामने मस्जिद को शहीद करने वाले, क़त्ल गारत मचाने वाले, खुले आम इज्ज़तदार बने घूम रहे हैं…आप मुझे बताइए बाबा, उनकी करतूतों की उनकी कौम से सफाई क्यों नही मांगी जाती? उन्हें शक की नज़रों से क्यों नही देखा जाता? हम सच भी बोलें तो गद्दारी का तमगा पहना दिया जाता है, क्यों?

हमारा जुर्म क्या यही है की जब मुल्क का बटवारा हुआ तो हम ने अपना देश नही छोड़ा?

बाबा उसकी आंखों में तड़पता हुआ गुस्सा देखते हैं और जाने क्यों सर झुका लेते हैं.

वो उनके सामने आ खड़ी होती है ‘’ बाबा आप ही कहते थे ना की दुनिया में सब से ज्यादा महफूज़ हिन्दुस्तानी मुस्लिम्स हैं, आज देख लीजिये, एक हादसे ने सारे मायने ही बदल डाले हैं. आज हम अपने ही मुल्क में अकेले हो गए हैं. आज हमें एक ऐसे सरबराह की ज़रूरत है जो हमारे साथ खड़ा हो कर हमें ये अहसास दिला सके कि हम अकेले नही हैं, लेकिन ऐसा कोई नही है, हमें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने वाले भी तमाशाई बने बैठे हैं.

आप जानते हैं, आज कालेज में एक्स्ट्रा क्लास लेने से इनकार करने पर एक लड़के ने मुझे कहा कि पता नही मुस्लिम्स लडकियां ख़ुद को इतना ख़ास क्यों समझती हैं.हालांकि उसके ऐसा कहने पर सर ने उसे डांटा भी, मैं कहना तो बहुत कुछ चाहती थी लेकिन आप ने मुझे मना किया था की ऐसे किसी टोपिक पर मैं अपनी ज़बान ना खोलूं, मैंने कोई जवाब तो नही दिया पर मैं उसकी आंखों के बदलते रंग देख कर दंग रह गई. आपको पता है ये वही लड़का था जो जाने कब से मुझ से दोस्ती की ख्वाहिश रखता था. कई बार सख्त लहजे में बात करने के बावजूद कभी उसके नर्म और मीठे लहजे में तब्दीली नही आई थी. आज उसका लहजा उसकी आंखों का अंदाज़ सब बदल गए थे. बाबा ये सब ठीक नही है, लोगों को बदलना होगा, ये हमारा देश है, कोई हमें पराया नही कर सकता. लोगों को समझना होगा की दहशत गर्दी का जन्म ज़ुल्म और बेइंसाफी की कोख से होता है. इसका ताल्लुक ना किसी मज़हब से होता है न किसी कौम से.

ये कुछ बेवकूफ और जज्बाती लोगों का इंतकाम होता है, ठीक उसी तरह जैसे ऊंची जात वालों के ज़ुल्म और तशद्दुद से तंग आकर छोटी जात के कहे जाने वाले कुछ जज्बाती बन्दूक उठा लिया करते थे. उसमें मज़हब का कोई दखल नही होता. बाबा ये बात लोगों को समझनी होगी, मीडिया को समझनी होगी जो तरह तरह की बातें फैला कर लोगों के जज़्बात भड़का रहा है. कुछ गलतियां हम पहले कर चुके हैं, अब और किसी गलती की गुंजाइश नही बची है. ये बात सब को समझनी होगी. हम एक घर में रहने वाले और एक ही फॅमिली का हिस्सा हैं. अगर खुशियों में एक हैं तो गम और मुसीबतों में भी एक होने चाहियें. परिवार तो वाही होता है ना बाबा?

वो थक कर चुप हो गई है, बाबा खामोश भीगे फर्श को तकते हुए जाने क्या सोचे जारहे हैं.

‘’बेटा, मैंने उम्मीद का दमन नही छोड़ा है, ये रमजान का महीना है, ये हमें सब्र की तलकीन करता है, सब्र से बड़ा हथियार कोई नही है.’’ आओ अब अनादर चलें’’

‘’सब्र…वो तल्खी से मुस्कुरा देती है. बाबा के सामने दिल में छाया गुबार निकाल कर मन कुछ हल्का हो गया है.बारिश की बूँदें फिर से गिरना शुरू हो गई हैं. मौसम कुछ और सर्द हो गया है, सन्नाटा भी और गहरा हो गया है. वो आसमान को देखती है. पता नही, उसका वहम है या सच, अँधेरा कुछ और बढ़ता महसूस हो रहा है. वो बाबा का हाथ थामे हुए अन्दर की जानिब बढ़ जाती है.

Wednesday, September 17, 2008

कलम उठाऊं तो कागज़ सुलगने लगता है....


कलम उठाऊं तो कागज़ सुलगने लगता है....
नज़र में जलता हुआ घर है, क्या किया जाए..

एक छोटी सी कहानी पढ़ी थी. कहानी कुछ यूं थी कि ‘’गिद्धों का समूह बहुत दिनों से भूखा था, खुराक का कोई इंतजाम नहीं था. एक रात सब एक जगह जमा हुए, एक मीटिंग की. एक फैसले के तहेत उन्होंने मिलकर एक पार्क में लगे एक विशेष समुदाय के मुजस्समे (मूर्ती)की गर्दन तोड़ दी. 
दूसरी सुबह उस समुदाय ने दुसरे समुदाय पर इल्जाम लगा कर तोड़ फोड़ की और इलाके में तनाव फैल गया, झगडा इतना बढ़ा कि खून खराबे की नौबत आगई. जब तक पुलिस आई, इलाका फसाद की आग में जलने लगा था. पुलिस ने हालात पर काबू पाने के लिए गोलियाँ चलायीं और इलाके में कर्फियू लगा दिया गया. 

रात आई तो गिद्ध खुश थे. उनकी खुराक का इंतजाम हो गया था. उन्हें अपने मसले का हल मिल गया था. अब गिद्ध कभी भूखे नहीं रहेंगे. 

इस कहानी को पढ़ कर दिल की अजीब सी कैफियत हो गयी थी.
दंगे फसाद किस तरह शुरू किये जाते हैं, किस तरह कोई एक हाथ नफरत की हांडी जज़्बात के चूल्हे पर रखता है और फिर देखते ही देखते हजारों हाथ उसे आग देने का काम करते हैं. कोई हाथ उसे उतारने की हिम्मत नहीं करता, करता भी है तो उसके हाथ काट दिए जाते हैं. 
नफरतें किसी का भला नहीं किया करतीं. ये बात सब जानते हैं लेकिन फिर भी उसी को सींचते हैं.
 
आज हमारी ब्लोगिंग में जो कुछ हो रहा है, उसे दिख कर दिल दुःख से भर जाता है. कुछ लिखना चाहूँ तो लिखने को दिल ही नहीं चाहता, क्या लिखूं? कौन पढेगा? 
यहाँ तो हाल ये है कि एक ब्लोगर दुसरे ब्लोगर पर कीचड उछाल रहा है तो वो पोस्ट सब से ज्यादा हिट हो जाती है. दूसरा अपना बचाव करता है तो वो भी सबकी तवज्जा का बाएस बन जाता है. 
एक कुछ लिखता है, दूसरा गुस्से में उस पर रिअक्ट करता है, और फिर सब की तवज्जा उसी पर चली जाती है. कमेन्ट में एक दुसरे को कोसा जाता है, किसी किसी के कमेन्ट तो बेशर्मी कि हद तक चले जाते हैं. 
ऐसे में अच्छे ब्लोगर और उनकी बेहद अच्छी पोस्ट पढने वालों की राह ही तकती रह जाती हैं. 
क्या यही है ब्लोगिंग का मकसद? 

आज हमारा देश एक बहुत बड़ी तब्दीली से गुज़र कर तरक्की की नयी राहों पर जारहा है, ऐसे में हमारी ये मेंटालिटी इसे आगे बढाने के बजाय पीछे की तरफ ले जायेगी. 
दहशत गर्दी या आतंकवाद किसी भी देश के लिए एक नासूर है, कोई भी जीहोष इंसान इसकी वकालत नहीं कर सकता. , जिस रोज़ दिल्ली में ये अलाम्नाक हादसा हुआ. उस वक्त हमारी अजीब हालत थी. हम रोजे से थे, अफ्तार करना भूलकर फ़ोन पर फ़ोन किये जारहे थे क्योंकि दिल्ली में हमारे सब से ज्यादा रिश्तेदार रहते हैं.गफ्फार मार्केट के पास तो मेरे बेहद करीबी रिश्तेदार रहते हैं. आधा घंटा, एक घंटा तक तो कोई फ़ोन मिला ही नहीं. खौफ से दिल में अजीब अजीब ख्याल आरहे थे.
कहने का मतलब ये कि जब आग लगती है तो शोले ये नहीं देखते कि किसका घर जलाएं और किसका बचा लें . 
मरने वाले ना हिन्दू होते हैं ना मुसलमान. वो बस इंसान होते हैं और इंसान जब भी मरता है, शर्मिंदा सिर्फ इंसानियत होती है. 

इसलिए हर एक देशवासी के लिए ये मुश्किल घडी है. एक दुसरे पर इल्जाम लगाने के बजाये कुछ ऐसा करने का वक्त है कि ये नासूर जड़ से ख़त्म हो जाए. 
मुल्क के हिफाजती निजाम को बेहद मज़बूत, चाक चौबंद और ईमानदार होना चाहिए. अमन के असली दुश्मनों को ना सिर्फ सजा दी जानी चाहिए बल्कि उनके हर ज़रिये का खात्मा होना चाहिए, जिनकी वजह से वो इतने मज़बूत हो गए हैं. 
लेकिन जो सबसे ख़ास बात हो, वो ये कि इस सारे मामले को निबटाते हुए इस बात का ध्यान रखा जाए कि गलती से भी कहीं हक़-ऐ-इंसानियत का खून ना होने पाए. 
दिमाग में किसी ख़ास समुदाय को ही लेकर तफ्तीश न कि जाए, उनके पीछे कहीं कुछ और लोग ना हों, इसके लिए भी दिलो दिमाग को खुला रखा जाए. 
इसके अलावा उनकी इस दहशत गर्दी का मतलब क्या है, मकसद क्या है, ये क्या चाहते हैं? इन चीज़ों पर भी नज़र रखी जाए. अगर वो खून खराबा छोड़ कर बात चीत की मेज़ तक आना चाहें तो इसके लिए भी तैयार रहा जाए कि मुल्क की अमन और सलामती से बढ़ कर कोई अना नहीं हो सकती. 
इस सारी कार्रवाई में पुलिस को अपने किरदार को पाक साफ़ रखना होगा जो बेहद मुश्किल है. 
सिर्फ शक की बिना पर किसी मासूम पर ज़ुल्म ना हो जाए इस बात का ख़ास ख़याल रखना होगा. याद रहे कि ऐसे वहशियाना सुलूक और जालिम रवैय्ये ही मासूम नौजवानों को दहशत गर्द बनने पर मजबूर करते हैं. वर्ना कोई भी आम जिंदगी जीने वाला इंसान बगैर किसी वजह क इक परिंदे तक को नहीं मारता, कुजा कि इंसानों की जान लेने पर उतर आये. 
दहशत गर्दी के पीछे हमारे सिस्टम के बदसूरत रवैय्ये ही जिम्मेदार होते हैं. 
मुल्क के एक एक बाशिंदे को इसके बारे में सोचना होगा. ये वक्त सबको अपने अपने किरदार बेहतर तरीके से निभाने का है.ऐसे में एक राईटर और ब्लोगर की ज़िम्मेदारी कितनी बढ़ जाती है क्या अब भी ये कहने की ज़रुरत है? 
पहले बड़ी हैरत से सोचा करती थी कि देखने में सब कुछ अच्छा दिखाई देता है फिर भी नफरतें कैसे जन्म ले लेती हैं? 
आज समझ में आया कि नफरतें जन्म नहीं लेतीं, नफरतें तो पहले से ही दिलों में मौजूद रहती हैं. हाँ, उन्हें दबा रहने दिया जाए तो वक्त के साथ उनका असर ख़त्म हो जाता है लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं चाहते, वो उन दबी नफरतों को जगाने का काम करते हैं कि इसी में उनके फायदे हैं. 
अंग्रेजों ने हमारी इसी कमजोरी का क्या खूब फायदा उठाया. और मुल्क के टुकड़े हो गए थे. मासूमों का खून बहाने वाली पार्टी इसी मुल्क में बरसों हुकूमत करती रही. 
सिर्फ हमारी इसी तंग नजरी के चलते. 
आज आप ब्लोग्स पर नज़र डालिए तो एक अजीब मानसिकता देखने को मिलती है.जो दुनिया मुझे अपनी खूबसूरती से लुभाती थी आज वही दुनिया इतनी बदसूरत नज़र आने लगी है कि दिल ही नहीं चाहता यहाँ आने का. 
एक दुसरे पर झूठे इल्जाम लगाना, कीचड उछालना, यहाँ तक कि ऐसा करते हुए ये भी नहीं देखा जाता है कि जिस ब्लोगर को इस कदर घटिया ज़बान में कोसा जारहा है, उसकी उम्र क्या है, वो कितना भी काबिल-ऐ-एहतराम हो, किसी भी उम्र का हो, उसे बख्शा नहीं जाता. 
ना कोई शर्म , न कोई लिहाज़……बाखुदा बस कीजिये, कितना नीचे गिरेंगे . कहीं कोई मर्यादा कोई तो हद होनी चाहिए. हर एक को अपनी बात कहने का हक़ हासिल होना चाहिए. ये क्या कि किसी ने कुछ कहा नहीं और हम सब मिलकर उस पर टूट पड़े. 
हमें अपने अपने नज़रिए बदलने होंगे, तंग नजरी से बचना होगा, दिलों को बड़ा करना होगा . 
हम एक हैं . हम इंसान हैं तो जानवरों से बदतर क्यों हो गए हैं?



Thursday, September 11, 2008

और भी मज़बूत बन कर उभरी हूँ....{और फैलुंगी जो लौटाओगे आवाज़ मेरी...}


जिंदगी के रास्ते अजीब से होते हैं, एकदम सीधे हमवार रास्तों में पेचीदा मोड़ कब आजाते हैं, पता ही नही चलता.

पिछले दिनों मेरे साथ जो भी हुआ या अभी भी हो रहा है, उनका मेरी जात पर कोई असर नही पड़ा, अगर मैं ये कहती हूँ तो ग़लत कहूँगी. खामोशी से अपने अपने आप में मगन, आप कहीं जारहे हों और अचानक बहुत सारी  अजीब निगाहें सिर्फ़ आप पर मारकूज़ हो जाएँ तो कुछ लम्हों के लिए आपका उलझ जाना लाज़मी है.


मैं भी उलझी थी, सिर्फ़ उलझी थी बल्कि चाँद लम्हों के लिए बेहद मायूस भी हो गई थी, सच कहूँ तो नफरत सी हो गई थी लोगों की मेंटालिटी से. हालाँकि ये मेरे साथ पहली बार हो रहा हो, ऐसा नही है, स्कूल, कॉलेज हर जगह ऐसी मेंटालिटी वाले लोगों को देखा है मैंने, लेकिन फिर भी ज़ख्म जब भी लगता है, ताज़ा महसूस होता है. दरअसल इसकी वजह ये है की असल जिंदगी में मैं एक बेहद रिज़र्व टाइप लड़की रही हूँ. बचपन से कुछ कुछ शर्मीली और अपने आप में सिमटी हुयी.


मेरी दुनिया मेरे घर वाले, मेरा घर, मेरी पढाई और मेरा शौक पढ़ना और लिखना.


बचपन ही से घर में किताबों का कीडा कही जाने लगी थी. आज भी वही  हाल है. ब्लोगिंग मजाक मजाक में शुरू हुयी और जल्दी ही दिल के बेहद करीब हो गई.
दिल को सुकून मिलने लगा लिखकर, और इतने सारे दोस्त और चाहने वाले मिले तो एक नई दुनिया का सा गुमान होने लगा, जहाँ पहुँच कर मैं जिंदगी की तल्खियाँ भूल जाया करती थी. अपनी बात साफगोई से कहने का मौका जो मिला था यहाँ.लेकिन कुछ चर्चा के भूखे लोगों की वजह से पिछले दो दिन मेरा सारा सुकून दरहम-बरहम हो गया.


हालांकि मैंने देखा कि इतने सारे काबिल-ऐ-एहतराम लोग मेरे साथ थे. उन्होंने मुझे किसी की परवाह किये बिना बस लिखते रहने की सलाह भी दी लेकिन गुस्सा और मायूसी ने मुझे बेहद डिस्टर्ब कर दिया था. जब से मैं इस जगह आई, मैंने सिर्फ वही लिखा जो मेरे दिल ने मुझे लिखने पर इसरार किया, जब भी किसी वाकये और किसी बात ने मुझे कुछ कहने पर मजबूर किया, मैंने बिना किसी खौफ के लिखा.
 मैंने देखा था कि कुछ लोग चर्चा में आने के लिए एक दुसरे को निशाना बनाते हैं, लेकिन मुझे इन सब बातों से हमेशा वहशत रही है. भड़ास छोड़ने की कई वजहों में से एक वजह ये भी रही कि मैंने देखा कि यहाँ बस एक दुसरे के कसीदे पढ़े जाते हैं या फिर किसी को निशाना बनाया जाता है, और इन बातों से मुझे हमेशा से चिढ रही है. 
अमर जी, अनुराग जी, दनिश जी, रचना जी ,रंजू जी ,लावण्या जी, अफलातून जी अनुराग (अनुवेशी) जी लवली और मेरे बहुत सारे दोस्तों ने मुझे बहुत ताकत दी लेकिन फिर भी अपने बारे में होती झूठी चर्चा, छिछोरेपन की हद तक जाती जांच और पड़ताल ने मुझे बेहद सदमा पहुँचाया था.सब से ज्यादा दुःख इस बात का था कि जिस बात से मुझे नफरत थी, मुझे उसी पर मजबूर कर दिया गया था. 
हमेशा की तरह मैंने अपना ये दर्द भी अपने बाबा से ही बांटा . मैंने उन्हें सारी  बातें बतायीं , उस पागल इंसान की वो पोस्ट भी दिखाई और लोगों के कमेन्ट भी. 
मुझे लगा मेरी तरह बाबा भी नाराज़ होंगे और दुखी, लेकिन मैं उस वक्त हैरान रह गयी जब मैंने देखा कि उन्होंने निहायत सुकून से वो सब कुछ सुना और पढ़ा. उनके चेहरे पर जो सुकून था उसने मुझे हैरान कर दिया. 
मैं झुंझला गयी, मैंने कहा बाबा आपको इतना सब कुछ देख कर गुस्सा नहीं आया? 
आपको पता है क्या हुआ? बाबा मुस्कुरा पड़े और कहने लगे, ‘’किस बात पर गुस्सा करूँ? इस बात पर, कि किसी बेवकूफ ने तुम्हें लड़की के बजाये लड़का साबित करने की कोशिश कि है या इस बात पर कि इतने सारे लोग सिर्फ तुम्हारे साथ हैं और तुम्हें किसी की परवाह न करने को कह रहे हैं?’’ 
मैं कुछ नहीं कह पायी, वो थोडी देर खामोश रहे फिर मेरे पास आये, मेरे सर पर हाथ रखा और कहा ‘’
बेटा ये दुनिया है, जब आप कोई अच्छा काम कर रहे हों तो बहुत सारी आँखें आपकी तारीफ़ के लिए उठेंगी लेकिन कुछ आँखों में नापसंदीदगी के रंग भी होंगे. हमारी तारीख ऐसी बहुत सारी मिसालों से भरी पड़ी है. बड़े बड़े अज़ीम लोग भी दुनिया के इस जालिम सच से बच नहीं पाए. हमारे रसूल(अ.स) ने जब इस्लाम के बारे में दुनिया को बताना शुरू किया तो बहुत सारे लोग उनके अपने हो गए तो बहुत सारे लोग उनकी जान के दुश्मन भी हो गए. जानती हो ये कौन लोग थे?
ये वही लोग जिन्हें उनके किरदार की मजबूती में अपना किरदार बहुत छोटा दिखाई देने लगा था. 
वो उनके दुश्मन नहीं थे, दरअसल वो अन्दर से खौफ का शिकार थे. गांधी जी को क़त्ल करने वाला बस इसी खौफ का शिकार था तो अब्राहम लिंकन की जान लेने वाला भी इसी डर में मुब्तेला था. लेकिन तुम बताओ, उन्हें ख़त्म कर के क्या वो उनके किरदार को छोटा कर सके? 

नहीं, बल्कि उनके किरदार आसमानों की बलंदी तक पहुँच गए. इन अजीम-उष-शान किरदार के मालिकों के सामने हमारी और तुम्हारी क्या औकात? 
ये सुनहरी मिसालें हमें जिंदगी के बदसूरत से बदसूरत चेहरों का सामना करने की ताकत देती हैं. 
खलील जब्रान ने लिखा है कि अगर आप साबित कदम हैं तो आपकी तरफ फेंका गया पत्थर लौट कर फेंकने वाले के हाथ ज़ख्मी कर देगा. 
बाबा बोलते जारहे थे और मैं —हैरान सी उनके पुरसुकून चेहरे को देखे जारही थी. 
दोस्तों,
हैरान मैं अपनी कैफियत पर भी थी, जहाँ न अब कोई सवाल बाकी था ना कोई जवाब. 
सारी नाराजगी, सारा गुस्सा..कुछ भी तो बाकी नहीं रहा था. 


जो बात मेरे इतने सारे दोस्तों ने समझाने की कोशिश की थी और मैं समझ कर भी समझ नहीं पारही थी वो इतनी आसानी से समझ में आगई थी कि अब न कोई हैरानी थीं न कोई शिकायत. 
मैं जो कल तक यहाँ तक सोच बैठी थी कि लिखना छोड़ दूंगी, इतनी मज़बूत हो गयी थी कि अपनी ताकत का अहसास खुद मुझे हैरान कर रहा था. 
बाबा की नमाज़ का टाइम हो गया था. मैं भी उनके साथ नमाज़ के लिए उठ गयी, बिलकुल हलकी फुल्की, मुस्कुराहटों की खुशनुमा चादर ओढे. 
निगाह उठा कर चारों तरफ देखा तो हैरान रह गयी, ताहद्दे निगाह सिर्फ रौशनी ही रौशनी थी, इतनी कि आँखें खैरा हुयी जारही थीं, अब अंधेरों के वजूद की गुंजाइश ही कहाँ थी.


Sunday, September 7, 2008

अब औरत होने का सबूत पेश करना होगा?

रमजान का महीना शुरू हुए हफ्ता हो चुका है. इन दिनों कुछ रोजों की मसरूफियत और कुछ नेट की प्रोब्लम्स की वजह से ब्लॉग की दुनिया से नाता तकरीबन टूट सा गया था. 
अपने पसंदीदा अदीबों और शायरों की याद तो आती रही और उनकी लिखी पोस्ट पढने को दिल भी मचलता रहा लेकिन सच कहूँ तो ये याद पिछली गैर हाजिरी की तरह फर्स्टऐट नहीं करती थी. ये रमजान और रोजों का नशा था जनाब जो सारी दुनिया को भुला देता है यहाँ तक कि खुद को भी. 
इसलिए इस बार इतनी जल्दी भी नहीं थी. लेकिन कुछ दिन पहले अनुराग जी के मेल ने एक अजीब खबर दी कि किसी सज्जन ने अपने ब्लॉग पर लिखा है कि मैं एक परुष हूँ जो रख्शंदा यानी महिला के नाम से लिखता है. 

मेरी बहुत साडी खामियों में से एक खामी ये भी है कि मैं किसी मामले को शुरू में इतनी संजीदगी से नहीं लेती. इस बार भी ऐसा ही हुआ. हाँ, अनुराग जी से मैंने उन साहब का नाम ज़रूर जानने की ख्वाहिश की. 
सच कहूँ तो उस लम्हे मुझे बस यही लगा कि किसी ने यूंही मजाक में ऐसा लिखा होगा लेकिन जब उन्होंने उन साहब का नाम लिखा तो मुझे उस पोस्ट को पढने की बड़ी ख्वाहिश हुयी क्योंकि घोस्ट बस्टर को मैंने काफी कम पढ़ा है लेकिन बावजूद इसके मैं उन्हें एक काबिल और संजीदा किस्म का ब्लोगर समझ कर उनका एहतराम भी करती थी. 
इत्तेफाक से सर्च करते हुए मुझे ब्लोग्वानी में वो पोस्ट मिल गयी जो इन दिनों में सब से ज्यादा चर्चित पोस्ट रही थी. जब मैंने उसे पढना शुरू किया तो इसके चर्चित होने की वजह बड़ी आसानी से समझ में आगई. 
अरे भाई, जब आप सड़क पर खड़े हो कर किसी को गाली देने लग जाएँ, यहाँ तक कि गांधी जी को, तो थोडी देर के लिए लोग आपकी तरफ मत्वज्जा तो हो ही जायेंगे और आप थोड़े दिनों के लिए ही सही, चर्चा का विषय बन ही जायेंगे. 
एक मजेदार घटना याद आरही है. विवेक ओबराय ने एक बार मीडिया में खुद को चर्चित करने के लिए एक बड़ा आसान तरीका अपनाया था . उन्होंने प्रेस को बताया कि एक रात सलमान खान ने सारी रात उनको कॉल किया और ४१ बार जान से मारने की धमकी दी…बड़ी हंसी आई थी उस समय, दिल चाह पूछूँ कि विवेक जी, आपके मोबाइल में सिविच ऑफ करने का आप्शन नहीं था जो सारी रात सलमान की धमकी सुनते रहे? 
आज सलमान कहाँ हैं और विवेक कहाँ, ये सारी दुनिया जानती है लेकिन उन दिनों चर्चा का विषय तो खैर विवेक जी बन ही गए थे. 

अब घोस्ट की पोस्ट पर…..उस पोस्ट में एक बेहद काबिल और काबिल-ऐ-एहतराम लेखक को बुरा भला कहा गया था तथा उनकी बेहद शानदार और बेहद सच्चाई पर आधारित पोस्ट को घटिया कह कर उनका मजाक बनाया गया था. 
उसके बाद उन्होंने मुझ पर निशाना साधा था और बाकायदा हाईलाईट करते हुए मेरी एक पोस्ट के खिलाफ ज़हर उगला था. 
खैर जिस इंसान ने अभय जी जैसे ब्लॉगर को नहीं बख्शा उसने अगर मुझे गलत ठहराया तो इतनी हैरानी की बात नहीं थी लेकिन बात अगर विचारों की असहमति तक सीमित होती तो मुझे बुरा नहीं लगता लेकिन यहाँ बात विचारों तक सीमित नहीं थी. यहाँ बड़ी बेशर्मी के साथ मुझे व्यक्तिगत तौर से निशाना बनाया गया था. 
मैं उन साहब की हिम्मत पर हैरान हूँ कि बगैर किसी को जाने हम किसी के बारे में मामूली बात भी लिखते हुए दस बार सोचते हैं, यहाँ तो बिना किसी सबूत के मुझे महिला से पुरुष बना दिया गया.
 
ब्लोगिंग हो या कोई और मंच , हर जगह के कुछ उसूल होते हैं जिन्हें सख्ती से निभाने की ज़रुरत होती है. किसी को व्यक्तिगत तौर से हम निशाना नहीं बना सकते, लेकिन यहाँ तो जैसे कोई उसूल ही नहीं रह गया . 
कल को अगर मैं अपने ब्लॉग पे लिखती हूँ कि घोस्ट बस्टर जी असल में एक महिला ( महिलाओं की बेईज्ज़ती के लिए माफ़ी चाहूंगी) हैं या पुरुष और महिला का मिला जुला रूप हैं या फिर कोई जानवर हैं जो इंसान या शैतान के नाम से ब्लॉग लिखता है तो यकीनन आप सब को बुरा लगेगा क्योंकि मेरे पास इस बात का कोई सबूत जो नहीं है तो मैं अपने बेहद काबिल-ऐ-एहतराम ब्लोगरों से पूछती हूँ कि जब उस इंसान ने मुझ पर कीचड़ उछाला तो आप में से कितनों ने उस से जवाब माँगा? कितनों ने उस से सबूत माँगा? 
उल्टा एक साहब ने बड़ी हैरानी जताते हुए लिखा कि अच्छा रख्शंदा एक पुरुष है? ये तो मुझे पता ही नहीं था…मतलब ये कि अच्छा हुआ आपने ये सनसनीखेज़ खुलासा कर दिया. 
ज़ाहिर सी बात है ऐसी सनसनीखेज़ बातें हमारी कमजोरी जो ठहरीं. 
उस पोस्ट को पढ़ कर ही मुझे अंदाजा हुआ कि ब्लोगिंग की दुनिया में कुछ ज़हरीले सांप भी मौजूद हैं जो अपने विनाशकारी ज़हर से इस खूबसूरत दुनिया को उसी तरह ज़हरीला कर देना चाहते हैं जिस तरह हमारे समाज में कुछ ज़हरीले लोग नफरतें बोने का काम करते हैं. 
ज्यादा दुःख मुझे उस इंसान के घटिया विचारों या उसके इल्जाम पर नहीं हुआ, ज्यादा अफ़सोस इस बात का हुआ कि किसी ने भी मेरी तरफ से उस इंसान से जवाब नहीं माँगा कि बिना किसी सबूत के उसे किसी लड़की पर ऊँगली उठाते हुए शर्म क्यों नहीं आई. 
सुजाता जी जो ब्लोगिंग की दुनिया में सच्चे मायनों में औरतों की रहबरी का काम करती हैं, उन्होंने भी इस बेशर्मी का विरोध नहीं किया…खैर हो सकता है कि उन्हें इस बात का पता ही न चला हो…लेकिन आज मैं इस   पोस्ट के ज़रिये आप से पूछती हूँ  कि क्या मुझे अपने महिला होने का कोई सबूत  पेश करना होगा? 
मुझे इस  बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कुछ लोग मुझे क्या समझते हैं लेकिन व्यक्तिगत रूप से निशाना बनाना की ये  घटिया मानसिकता बंद होनी चाहिए .आप अपने सशक्त और सुंदर विचारों से चर्चित हो सकते हैं, समाज की समस्याओं को समाज के सामने पेश कर सकते हैं, जिस तरह से बहुत से काबिल ब्लोगर्स कर रहे हैं, समीर जी, अनुराग जी, दनिश जी, रंजू जी सुजाता जी, ऐसे कितने नाम हैं जो बहुत मशहूर हैं और लोग उनकी पोस्ट पढ़े बिना नही रहते, मैं तो बस मिसाल के तौर पर ही कुछ नाम ले रही हूँ वर्ना ऐसे बहुत नाम हैं जो लिखे जा सकते हैं.दूसरों के बारे में उलटी सीधी बातें लिख कर आप कब तक अपना उल्लू सीधा कर सकते हैं? 

और इसके लिए मैं  यकीनन आप सब का साथ चाहूंगी.
मुझे यकीन है  कि मुझे निराश नहीं होना पड़ेगा.