Thursday, October 9, 2008

दुर्गा पूजा की वो सुनहरी शाम, जब मैंने पहली बार साड़ी पहनी थी......


यादें जालिम भी होती हैं, तो हसीन भी होती हैं. दिल को जितना तड़पाती हैं, उतना ही सुकून भी दिया करती हैं.

कभी कभी तो ये यादें इंसान के अन्दर एक दुनिया सी आबाद कर देती हैं. यादों का मेरी जिंदगी में बड़ा अहम् रोल है. यादों में मैं जीती तो नही, लेकिन कुछ यादें जीने का बहुत बड़ा जरिया भी हैं मेरे लिए.

खैर आज तो खुशी का दिन है तो क्यों ना कुछ खुश गवार यादों की बस्ती में डेरा डाला जाए.

त्योहारों का मौसम है. हर तरफ़ खुशियाँ अंगडाइयां ले रही हैं. ये त्यौहार होते ही ऐसे हैं. गम के हर बादल को हटा कर अपनी जगह बना लेते हैं. एक दिन के लिए इंसान हर गम, हर अंदेशे भुला कर बस इन्हीं का हो जाता है.

दशहरा जब भी आता है, मुझे कोलकाता की याद आती है. मेरा वो शहर जहाँ मेरा बचपन बीता.जिंदगी के एक एक पल को जहाँ बड़ी शिद्दत से जिया मैंने. जवानी की नाज़ुक सी कोंपल ने धीरे से इसी शहर में छुआ था मुझे.

कोलकाता याद आता है तो दुर्गा पूजा की याद अपने आप दिल के झरोखे में अपनी झलक दिखला जाती है.

कोलकाता की दुर्गा पूजा, जब भी याद आती है दिल बड़े खूबसूरत अंदाज़ में धड़कने लगता है. इस मौके की जाने कितनी हसीन यादें मेरे साथ जुड़ी हुयी हैं.जिन्हें मैं चाहूँ भी तो भूल नही पाती.

त्यौहार आने की आहट ही दिलों को उमंगों से भर देती थी. चारों तरफ़ जैसे एक अलग सा नशा छा जाता था. पता नही क्यों, पर ईद की ही तरह ये त्यौहार मुझे अपना त्यौहार महसूस हुआ करता था. वैसी ही तैयारी हम इसके लिए करते थे, नए कपड़े, ज्वेलरी दोस्तों के लिए तोहफेओह .आज सोचती हूँ तो बड़ा अजीब सा लगता है. आख़िर क्यों, आज हम पहले की तरह इस त्यौहार से अपने आप को जुडा महसूस क्यों नही कर पाते ? सोचती हूँ तो वजहें बड़ी साफ़ साफ़ दिखायी देने लगती हैं.

दरअसल कोलकाता ही असली मायनों में वो शहर है जहाँ असली सेकुलरिज्म दिखायी देता है. एक अकेला शहर जहाँ ईद जब आती थी तो लगता था हम किसी मुस्लिम शहर में चले आए हैं. सारा शहर सज उठता था. हर तरफ़ रौनक और खुशियाँ. हर मज़हब के लोग इस त्यौहार से जुड़े दिखायी देते थे. बंगाली हों या ईसाई, सबको सेवईयां खरीदते देख सकते हैं आप,दुर्गा पूजा में सारा शहर दुल्हन की तरह सज जाता था तो वैसी ही सजावट और खूबसूरती क्रिसमस पर दिखायी देती थी. शायद किसी को यकीन ना आए लेकिन हम बच्चे ही नही हमारी सारी फैमिली क्रिसमस पर चर्च जाती थी. वहां जाकर बड़ा ही सुकून और खुशी का अहसास होता था.

इसे वहां के लोगों के दिलों की खूबसूरती से ज़्यादा वहां की कम्निस्ट सरकार जादू कहा जाए तो ग़लत नही होगा.

मैं नही जानती कि अब बुद्धदेव भट्टाचार्य का कोलकाता भी वैसा ही है या नही लेकिन मैंने ज्योति बासु का कोलकाता देखा था और मैं पूरे यकीन से कहती हूँ की अगर ज्योति बासु इतने लंबे अरसे तक बंगाल में राज करते रहे तो इस में कोई हैरानी की बात नही थी. वैसा मुख्यमंत्री पता नही हम दुबारा कभी देख पायें या नही .

वजह साफ़ है, जहाँ हर मज़हब का एहतराम होगा, जहाँ किसी के साथ नाइंसाफी नही होगी , कोई कोम अपने आप को दूसरे से कमतर नही महसूस करेगी, वहाँ प्यार और मुहब्बतों के जज्बे अपने आप ही जग जाते हैं.

दुर्गा पूजा की एक यादगार शाम आज भी मेरे दिल में मुस्कुरा उठी है.

मेरी एक दोस्त थी, मोह चटर्जी. उसके बेपनाह इसरार पर मैं उसके घर गई थी. काफी धनवान फैमिली थी उनकी, इसी लिए हर साल दुर्गा पूजा का शानदार इंतजाम उनके यहाँ किया जाता था. बेहद खूबसूरत पंडाल जिसे देखकर किसी किले का सा अहसास होता था, में शानदार स्टेज पर संगमरमर की दुर्गा जी, जिनकी खूबसूरती देखते ही बनती थी. सफ़ेद सुर्ख और सुनहरे ज़रदोजी के काम वाली साड़ी और गोल्ड की भारी ज्वेलरी में वो इतनी हसीन नज़र आती थीं की बस नज़रें उन पर से हटती ही नही थीं.

बहरहाल उस शाम ममा की तबियत ठीक नही थी इसलिए मुझे बहन के साथ जाना पड़ा था.हमें देख कर मोह बहुत खुश थी. हमेशा की तरह वो बड़ी खूबसूरत साड़ी में ज्वेलरी पहने बड़ी प्यारी लग रही थी.

मुझे देख कर उसने जिद करनी शुरू कर दी की तुमने साड़ी क्यों नही पहनी. मैंने लाख बहाने बनाए लेकिन उसने मेरी एक नही सुनी और अपनी मम्मी की साड़ी पहनाने की फरमाइश करने लगी. सच कहूँ तो इस से पहले मैंने कभी साड़ी न पहनी थी ना ही पहनने की सोची थी. हालांकि मम्मी हमेशा साड़ी ही पहनती थीं लेकिन हमारे यहाँ शादी से पहले साड़ी पहनने का कोई रिवाज नही था. कुछ ख़ुद मुझे भी साड़ी बड़ी झंझट का लिबास लगा करता था(सच कहूँ तो आज भी…) लडकियां फेयरवेल पार्टी में बड़े शौक से साड़ी पहनती हैं, लेकिन मैंने उस मौके पर भी लहंगे से काम चलाया था.

लेकिन उसने कुछ इतने मान से मुझ से ये फरमाइश की कि मैं चाह कर भी उसेनानही कह पायी. मुझे पहननी पड़ी, इतनी हँसी आरही थी, वो पहना रही थी और मुझे गुदगुदी हो रही थी. थोडी देर में ही उसने बड़ी महारत से मुझे साड़ी पहना दी और सच पूछिए तो जब मैंने खुदको आईने में देखा तो एक पल को लगा जैसे मैं किसी और को देख रही हूँ. एकदम से काफी बड़ी सी लगने लगी थी, हमेशा से एकदम अलग. अपना आप अच्छा तो लग रहा था लेकिन साथ शर्म भी आरही थी कि ऐसे लिबास में बाहर सब के दरमियान कैसे जाउंगी?

आँचल से खुको ढकती, कभी आँचल तो कभी चुन्नट और कभी ज्वेलरी संभालती कभी इधर उधर देखती मैं आज भी अपनी उस कैफियत को भूल नही पाती. मेक -अप से चिढ़ने वाली लड़की को आज उसने ज़बरदस्ती से मेक -अप भी कर डाला था. इस में मोह का साथ मेरी बहन ने भी भरपूर तरीके से दिया था. जी भर के दोनों को कोसती हुयी मैं हिम्मत कर के बाहर आई थी. पंडाल में पहुँची तो एकदम जी चाहा, भाग जाऊं, ओह मेरे खुदा, इतनी नज़रें, सारी की सारी जैसे मुझ पर जम सी गई थीं, ऐसा लग रहा था, जैसे सबको पता हो कि इस लड़की ने पहली बार साड़ी पहनी है.

बड़ी मुश्किल से पसीना पोंछती खुदको संभालती, मैं स्टेज तक पहुँची थी. पूजा अपने शबाब पर थी, भक्ति में डूबे सब नाच रहे थे, मोह की फैमिली के कई लोग आए हुए थे, कुछ विदेश से भी ख़ास तौर से इसी मौके पर आते थे. मोह ने बड़ा प्यारा डांस किया. उसका डांस देखते देखते मैं अपनी सारी घबराहट भूल गई थी. हम सब जैसे एक रंग में डूब गए थे, मुहब्बत का रंग, भक्ति और विशवास का रंग. लेकिन तभी एक अजीब बात हुयी, मोह का एक कजिन, जो विदेश से आया था, उसने अचानक मेरे पास आकर मुझे भी डांस करने को कहा, मेरी सारी बौखलाहट फिर से वापस आगई, डांस और मैं?

वो भी इतने सारे लोगों के बीच?


लाख मना किया लेकिन वो बन्दा भी अपने आप में एक था, इस से पहले कि मैं रोना शुरू कर देती, मोह की मम्मी ने आकर उसे समझाया. वो उसे किसी काम के बहने ले गयीं तब मेरी जान में जान आई, मैंने मोह को कड़ी नज़रों से देखा जो हँसे जारही थी. उसके बाद मैं वहां नही रुकी, उसकी जिद से इस कदर घबरा गई कि मामा की तबियत का बहाना बनाकर जल्दी वहां से निकल आई. यहाँ तक की साड़ी पहने पहने ही घर आगई. मम्मी सो रही थीं. जल्दी जल्दी कपड़े बदले और तब जान में जान आई.

बाद में मोह ने बताया था कि उसका वो कजिन वापस आकर काफी देर मुझे पूछता रहा. मुझे बहुत हँसी आई.

आज भी वो दुर्गा पूजा याद आती है तो मुस्कुराए बिना नही रहती. पहली बार साड़ी पहना और फिर उस लड़के की जिद……मेरा बौखलाना, इतने लोग...उफ़

आज बड़ी शिद्दत से कोलकाता, अपनी दोस्त और दुर्गा पूजा को मिस कर रही हूँ. सोचती हूँ, काश मुहब्बतों और अपनाइयत की वो खुशबू हमारे हर शहर को वैसे ही अपनी आगोश में ले ले, जैसे मेरे उस शहर को लिए थी.जिसकी खुशबू में मेरा आज भी तं मन महका हुआ है....काश..

Sunday, October 5, 2008

सारे त्योहारों की ज़िम्मेदारी हमारे ही जिम्मे क्यों?

रमजान में अफ्तार करने के बाद आराम करने को दिल चाहता है. होता ये है कि दिन भर खाली पेट में जब गिजा (खाना) जाती है तो जिस्म में सनसनाहट पैदा होती है और थोडी गुनूदगी (नींद जैसी) कैफियत पैदा होजाती है. ज़ाहिर सी बात है, ऐसे में सब में ही आराम की ख्वाहिश जागती है लेकिन ज्यादातर होता ये है कि मर्द हजरात नमाज़ वगैरा से फारिग होकर मज़े से आराम करने लगते हैं और ओरतें अफ्तार के बाद खाने की फ़िक्र करने लगती हैं. खाना जल्दी तैयार होना चाहिए क्योंकि जल्दी सोना है, तभी सहरी में उठ सकेंगे.
सहरी में फिर खिलाने की फ़िक्र –चाहे हल्का फुल्का ही सही.
इतनी ड्यूटी निभाने के बाद भी अगर कोई ओरत पूरी तरह से इबादत कर लेती है तो वाकई उसके जैसा इबादत गुजार होने का कोई मर्द तसव्वर भी नही कर सकता.
ये तो रही रमजान की बातें.
आखिरी रोजे की अफ्तार से फारिग होते ही मेरी ममा आराम वगैरा भूल कर ईद की तैयारी की फ़िक्र में लग गयीं .
अब हालत ये है कि कभी बुआ (cook) को हिदायत दे रही हैं, कभी हम लोगों पर नाराज़ हो रही हैं कि हमें तो कल की कोई फ़िक्र ही नही. अब हम भला क्या करें, एक तो दिन भर का रोजा , ऊपर से काम इतने कि समझ में नही आरहा कि शुरू कहाँ से करना है?
दही बड़ों के लिए दाल भीग गई है, उसे पीसना है, छोले के लिए मसाला तैयार करना है, इमली की अखरोट और चिरौंजी वाली चटनी इसी वक्त तैयार होनी है, सेवइयां भून कर रखनी हैं. शामी कबाबों का मसाला तैयार करना है. यहाँ देहरादून में एक अलग तरह की सेवइयां बनती हैं जिसे' शीर खोरमा ' कहते हैं. ये खीर जैसी होती है, बस ऊपर से उस में थोडी भुनी सेवइयां डालनी होती हैं.
इधर दादी जान का आर्डर है कि मुगलई सेवइयां(खुश्क खोये वाली) तो ज़रूर बननी हैं. बाबा का ये एलान कि ‘ईद बिल्कुल सादगी से मनानी है’’ दूर कहीं कोने में रखा हैरानी से इस सादगी को देखे जारहा है.

पापा का कहना था कि मेहमान अगर खाना खाना चाहें तो उसका इंतजाम भी होना चाहिए. तो लीजिये जनाब, अब चिकन बिरयानी भी बनेगी . खैर पापा ने कहा कि बिरयानी तो सुबह उनका एक आदमी आकर तैयार करेगा. लेकिन मसाला वगैरा तो तैयार करना ही होगा. थोडी देर बाद पापा एक और इजाफा करने आ पहुंचे..’’ यार मेहमानों में जो लोग वेजेटेरियन होंगे उनके लिए थोड़े बर्गर वगैरा का इंतजाम कर लो. लीजिये यानी कि हद हो गई….वेज खाने वाले अगर बिरयानी या कबाब नही खाएँगे तो दही बड़े, छोले भठूरे और इतने टाइप की सेवइयां क्या कम हैं जो बर्गर और साथ में वगैरा भी बनायें, लेकिन पापा से बहेस कौन करे.
बहरहाल रात के बारह बजे तक बुआ ममा और हम बहनें तैयारी में लगे रहे. तब कहीं जाकर सोना नसीब हुआ.
इतनी थकन के बाद सुबह उठने का किसका दिल चाहेगा , लेकिन अभी तो सारे काम बाकी थे . उठना ही पड़ा.
अब ईद की सुबह का नज़ारा कुछ यूँ है कि हम तो जम्हाइयां ले रहे हैं, ममा और बुआ किचन में लगी हुयी हैं, दादी जान सफाई करने वाली अनीला और मंजू को नए नए आर्डर देरही हैं…साथ साथ हम दोनों की भी क्लास ले रही हैं. इधर पापा, बाबा जान और भाई नहा कर नए कपड़े पहनकर नमाज़ के लिए ईदगाह जाने की तैयारी कर रहे हैं.
थोडी देर में ही महकते निखारते सलाम दुआ से फारिग होकर गाड़ी में रवाना हो गए. अब हम रह गए और हमारे ढेर सारे काम.
12 बजे तक साड़ी तैयारी से फारिग हुए, खैर झूट क्यों बोलें , हमें तो मामा ने पहले ही तैयार होने को भेज दिया था लेकिन ममा और ख़ास कर बुआ को 12 बजे जाकर फुर्सत मिली.
फुर्सत?
फुर्सत कहाँ मिली, अब तो जैसे तैसे नहाकर तैयार होना था और उसके बाद महमानों को attend करने की अलग ड्यूटी निभाना थी.
बहरहाल होने को तो सब हो गया, निखरी निखरी ममा तैयार भी हो गयीं . पापा के साथ मुस्कुरा मुस्कुरा कर मेहमानों को attend भी करती रहीं. आने वाले मेहमान जम कर तारीफें भी करते रहे, ममा की ड्रेसिंग को सराहते भी रहे लेकिन रात होते होते ममा और बुआ की जो हालत हुयी उसे बयां नही किया जासकता . दोनों दर्द की दवाएं खाकर सो सकीं .
ख़ुद मेरा थकन से बुरा हाल था.दूसरे रोज़ सब की हालत कह्राब थी.पापा ने लंच बाहर से मँगवाया .
ये तो रहा हमारे घर का ज़िक्र , यहाँ तो खैर ममा की हेल्प के लिए माशाल्लाह कई लोग हैं लेकिन ऐसे भी घर हैं जहाँ तमाम कामों की ज़िम्मेदारी घर की ओरतों पर होती हैं, ज़यादा से ज़्यादा सफाई और बर्तन के लिए मुलाज़्मा (मासी ) आजाती है. ऐसे में उन लोगों की क्या हालत होती होगी, इसका तसव्वुर भी तकलीफ देह होता है. दुःख की बात तो ये है ki इस की शिकायत करना भी निकम्मे होने का सबूत मान लिया जाता है.सिर्फ़ ईद या रमजान ही नही, हमारे यहाँ जितने त्यौहार हैं, चाहे वो ईद-उज़ -जुहा हो, कूंडा हो या शब् -ऐ-बारात…सब के सब थका देने वाले, और मज़े की बात तो ये है कि ये थकान बस घर की ओरतों के खाते में लिखी जाती है. त्यौहार कोई भी हो, ज़िम्मेदारी बस ओरतों पर, उन्हें इंतजाम भी करने हैं और इंतजाम भी ऐसे कि आने वाले तारीफ़ किए बगैर ना रह सकें और मर्द हजरात मुस्कुरा मुस्कुरा कर इस तारीफ़ को अपना हक़ समझ कर बड़े फख्र से वसूल करते हैं. कहीं कोई गड़बड़ हो गई तो बेचारी ओरत दिल पर एक बोझ लिए मुजरिम बन जाती है, चाहे कोई कुछ कहे या न कहे.
क्योंकि बचपन से लड़कियों के दिमाग में ये बात डाल दी जाती है कि उन्हें अच्छा मुन्ताजिम कार होना चाहिए , यही एक कामयाब ओरत की पहचान है.
और मज़े की बात ये है कि ये कोई मर्द नही सिखाता ,ये सीख हमारी कौम की ओरतें ही देती हैं.
घर में इस मौज़ू (टोपिक ) पर बात करना चाहो तो टोकने वाली सब से पहली मेरी दादी जान होती हैं जो बड़े आराम से मुझे ‘निकम्मी लड़की’ का खिताब नवाज़ देती हैं. उनका कहना है कि ये सारे वावैले (विरोध ) आजकल की नालायक लड़कियां ही उठाती हैं, वरना त्यौहार तो खुशियाँ लेकर आते हैं, ज़रा सा हाथ पैर हिला लेने में शिकायत कैसी.
ममा इस टॉपिक पर ‘नो कमेन्ट ’ का तास्सर देते हुए मुस्कुराती रहती हैं.
मुझे इस बात से इत्तफाक है कि त्यौहार खुशियों का पैगाम होते हैं. वैसे भी पूरे साल एक रूटीन से उकताई हुयी जामिद जिंदगी में ताज़गी की नई फुआर ले आते हैं ये त्यौहार.
सवाल ये नही है कि इनकी तैयारियां और इंतजाम थका देने वाले होते जारहे हैं, सवाल ये है कि सारे त्योहारों की ज़िम्मेदारी अकेले ओरत पर ही क्यों?
पूरे साल में कोई एक त्यौहार, कोई एक मौका तो ऐसा होना चाहिए ना जब जिसका इन्तजाम और ज़िम्मेदारी मर्दों पर हो. जिम्मेदारियों से आजाद घूमने फिरने के मौके ओरत को भी दिए जाएँ . उन्हें भी अहसास हो कि त्यौहार वाकई खुशियाँ लाते हैं. बगैर किसी ज़िम्मेदारी का अहसास किए वो भी अपने लोगों से मिलजुल सके. खुल के हंस सके.

कभी कभी दादी जान का मूड जब खुश गावर होता है तो मैं ये बात उन से कहती हूँ . ये भी पूछती हूँ कि क्या आपको जिंदगी के किसी मौके पर ऐसा ख़याल छू कर नही गुज़रा ?
ऐसे मौकों पर दादी कोई नादीदा (अनदेखी ) चीज़ अपनी तकिये के नीचे तलाश करने लगती हैं, ऐसा लगता है जैसे कोई बहुत कीमती चीज़ तकिये के नीचे से गायब हो गई हो. लेकिन सच मैं जानती हूँ.
मैं जानती हूँ कि उन्हें किसी चीज़ की तलाश नही है, बल्कि वो मेरे सवाल से बचना चाहती हैं, क्योंकि इसका कोई जवाब उनके पास है ही नही.