Wednesday, September 17, 2008

कलम उठाऊं तो कागज़ सुलगने लगता है....


कलम उठाऊं तो कागज़ सुलगने लगता है....
नज़र में जलता हुआ घर है, क्या किया जाए..

एक छोटी सी कहानी पढ़ी थी. कहानी कुछ यूं थी कि ‘’गिद्धों का समूह बहुत दिनों से भूखा था, खुराक का कोई इंतजाम नहीं था. एक रात सब एक जगह जमा हुए, एक मीटिंग की. एक फैसले के तहेत उन्होंने मिलकर एक पार्क में लगे एक विशेष समुदाय के मुजस्समे (मूर्ती)की गर्दन तोड़ दी. 
दूसरी सुबह उस समुदाय ने दुसरे समुदाय पर इल्जाम लगा कर तोड़ फोड़ की और इलाके में तनाव फैल गया, झगडा इतना बढ़ा कि खून खराबे की नौबत आगई. जब तक पुलिस आई, इलाका फसाद की आग में जलने लगा था. पुलिस ने हालात पर काबू पाने के लिए गोलियाँ चलायीं और इलाके में कर्फियू लगा दिया गया. 

रात आई तो गिद्ध खुश थे. उनकी खुराक का इंतजाम हो गया था. उन्हें अपने मसले का हल मिल गया था. अब गिद्ध कभी भूखे नहीं रहेंगे. 

इस कहानी को पढ़ कर दिल की अजीब सी कैफियत हो गयी थी.
दंगे फसाद किस तरह शुरू किये जाते हैं, किस तरह कोई एक हाथ नफरत की हांडी जज़्बात के चूल्हे पर रखता है और फिर देखते ही देखते हजारों हाथ उसे आग देने का काम करते हैं. कोई हाथ उसे उतारने की हिम्मत नहीं करता, करता भी है तो उसके हाथ काट दिए जाते हैं. 
नफरतें किसी का भला नहीं किया करतीं. ये बात सब जानते हैं लेकिन फिर भी उसी को सींचते हैं.
 
आज हमारी ब्लोगिंग में जो कुछ हो रहा है, उसे दिख कर दिल दुःख से भर जाता है. कुछ लिखना चाहूँ तो लिखने को दिल ही नहीं चाहता, क्या लिखूं? कौन पढेगा? 
यहाँ तो हाल ये है कि एक ब्लोगर दुसरे ब्लोगर पर कीचड उछाल रहा है तो वो पोस्ट सब से ज्यादा हिट हो जाती है. दूसरा अपना बचाव करता है तो वो भी सबकी तवज्जा का बाएस बन जाता है. 
एक कुछ लिखता है, दूसरा गुस्से में उस पर रिअक्ट करता है, और फिर सब की तवज्जा उसी पर चली जाती है. कमेन्ट में एक दुसरे को कोसा जाता है, किसी किसी के कमेन्ट तो बेशर्मी कि हद तक चले जाते हैं. 
ऐसे में अच्छे ब्लोगर और उनकी बेहद अच्छी पोस्ट पढने वालों की राह ही तकती रह जाती हैं. 
क्या यही है ब्लोगिंग का मकसद? 

आज हमारा देश एक बहुत बड़ी तब्दीली से गुज़र कर तरक्की की नयी राहों पर जारहा है, ऐसे में हमारी ये मेंटालिटी इसे आगे बढाने के बजाय पीछे की तरफ ले जायेगी. 
दहशत गर्दी या आतंकवाद किसी भी देश के लिए एक नासूर है, कोई भी जीहोष इंसान इसकी वकालत नहीं कर सकता. , जिस रोज़ दिल्ली में ये अलाम्नाक हादसा हुआ. उस वक्त हमारी अजीब हालत थी. हम रोजे से थे, अफ्तार करना भूलकर फ़ोन पर फ़ोन किये जारहे थे क्योंकि दिल्ली में हमारे सब से ज्यादा रिश्तेदार रहते हैं.गफ्फार मार्केट के पास तो मेरे बेहद करीबी रिश्तेदार रहते हैं. आधा घंटा, एक घंटा तक तो कोई फ़ोन मिला ही नहीं. खौफ से दिल में अजीब अजीब ख्याल आरहे थे.
कहने का मतलब ये कि जब आग लगती है तो शोले ये नहीं देखते कि किसका घर जलाएं और किसका बचा लें . 
मरने वाले ना हिन्दू होते हैं ना मुसलमान. वो बस इंसान होते हैं और इंसान जब भी मरता है, शर्मिंदा सिर्फ इंसानियत होती है. 

इसलिए हर एक देशवासी के लिए ये मुश्किल घडी है. एक दुसरे पर इल्जाम लगाने के बजाये कुछ ऐसा करने का वक्त है कि ये नासूर जड़ से ख़त्म हो जाए. 
मुल्क के हिफाजती निजाम को बेहद मज़बूत, चाक चौबंद और ईमानदार होना चाहिए. अमन के असली दुश्मनों को ना सिर्फ सजा दी जानी चाहिए बल्कि उनके हर ज़रिये का खात्मा होना चाहिए, जिनकी वजह से वो इतने मज़बूत हो गए हैं. 
लेकिन जो सबसे ख़ास बात हो, वो ये कि इस सारे मामले को निबटाते हुए इस बात का ध्यान रखा जाए कि गलती से भी कहीं हक़-ऐ-इंसानियत का खून ना होने पाए. 
दिमाग में किसी ख़ास समुदाय को ही लेकर तफ्तीश न कि जाए, उनके पीछे कहीं कुछ और लोग ना हों, इसके लिए भी दिलो दिमाग को खुला रखा जाए. 
इसके अलावा उनकी इस दहशत गर्दी का मतलब क्या है, मकसद क्या है, ये क्या चाहते हैं? इन चीज़ों पर भी नज़र रखी जाए. अगर वो खून खराबा छोड़ कर बात चीत की मेज़ तक आना चाहें तो इसके लिए भी तैयार रहा जाए कि मुल्क की अमन और सलामती से बढ़ कर कोई अना नहीं हो सकती. 
इस सारी कार्रवाई में पुलिस को अपने किरदार को पाक साफ़ रखना होगा जो बेहद मुश्किल है. 
सिर्फ शक की बिना पर किसी मासूम पर ज़ुल्म ना हो जाए इस बात का ख़ास ख़याल रखना होगा. याद रहे कि ऐसे वहशियाना सुलूक और जालिम रवैय्ये ही मासूम नौजवानों को दहशत गर्द बनने पर मजबूर करते हैं. वर्ना कोई भी आम जिंदगी जीने वाला इंसान बगैर किसी वजह क इक परिंदे तक को नहीं मारता, कुजा कि इंसानों की जान लेने पर उतर आये. 
दहशत गर्दी के पीछे हमारे सिस्टम के बदसूरत रवैय्ये ही जिम्मेदार होते हैं. 
मुल्क के एक एक बाशिंदे को इसके बारे में सोचना होगा. ये वक्त सबको अपने अपने किरदार बेहतर तरीके से निभाने का है.ऐसे में एक राईटर और ब्लोगर की ज़िम्मेदारी कितनी बढ़ जाती है क्या अब भी ये कहने की ज़रुरत है? 
पहले बड़ी हैरत से सोचा करती थी कि देखने में सब कुछ अच्छा दिखाई देता है फिर भी नफरतें कैसे जन्म ले लेती हैं? 
आज समझ में आया कि नफरतें जन्म नहीं लेतीं, नफरतें तो पहले से ही दिलों में मौजूद रहती हैं. हाँ, उन्हें दबा रहने दिया जाए तो वक्त के साथ उनका असर ख़त्म हो जाता है लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं चाहते, वो उन दबी नफरतों को जगाने का काम करते हैं कि इसी में उनके फायदे हैं. 
अंग्रेजों ने हमारी इसी कमजोरी का क्या खूब फायदा उठाया. और मुल्क के टुकड़े हो गए थे. मासूमों का खून बहाने वाली पार्टी इसी मुल्क में बरसों हुकूमत करती रही. 
सिर्फ हमारी इसी तंग नजरी के चलते. 
आज आप ब्लोग्स पर नज़र डालिए तो एक अजीब मानसिकता देखने को मिलती है.जो दुनिया मुझे अपनी खूबसूरती से लुभाती थी आज वही दुनिया इतनी बदसूरत नज़र आने लगी है कि दिल ही नहीं चाहता यहाँ आने का. 
एक दुसरे पर झूठे इल्जाम लगाना, कीचड उछालना, यहाँ तक कि ऐसा करते हुए ये भी नहीं देखा जाता है कि जिस ब्लोगर को इस कदर घटिया ज़बान में कोसा जारहा है, उसकी उम्र क्या है, वो कितना भी काबिल-ऐ-एहतराम हो, किसी भी उम्र का हो, उसे बख्शा नहीं जाता. 
ना कोई शर्म , न कोई लिहाज़……बाखुदा बस कीजिये, कितना नीचे गिरेंगे . कहीं कोई मर्यादा कोई तो हद होनी चाहिए. हर एक को अपनी बात कहने का हक़ हासिल होना चाहिए. ये क्या कि किसी ने कुछ कहा नहीं और हम सब मिलकर उस पर टूट पड़े. 
हमें अपने अपने नज़रिए बदलने होंगे, तंग नजरी से बचना होगा, दिलों को बड़ा करना होगा . 
हम एक हैं . हम इंसान हैं तो जानवरों से बदतर क्यों हो गए हैं?



45 comments:

Abhishek Ojha said...

"जब आग लगती है तो शोले ये नहीं देखते कि किसका घर जलाएं और किसका बचा लें .
मरने वाले ना हिन्दू होते हैं ना मुसलमान. वो बस इंसान होते हैं और इंसान जब भी मरता है, शर्मिंदा सिर्फ इंसानियत होती है. "

काश, यही बात सबको समझ में आ जाय !

कुश said...

पेट भरा हो तो हर आदमी मुल्क के हालात पर बात करता है.. भूखे को सिर्फ़ रोटी चाहिए.. वही उसका धर्म है वही उसका मज़हब..

मैने भी अपने लेख में वही कहा जो आपने कहा.. आपने कहा "हर एक देशवासी के लिए ये मुश्किल घडी है. एक दुसरे पर इल्जाम लगाने के बजाये कुछ ऐसा करने का वक्त है कि ये नासूर जड़ से ख़त्म हो जाए"

मैने लिखा "जब एक ओर, जहा विस्फोट में लोग मर रहे है वहा सब लोग उनके बारे में लिख रहे है..वही पर कुछ लोग लोग ये कहते फिर रहे है की हिन्दुओ ने मुसलमानो को बदनाम करने के लिए बम फोड़े.. "

आप का जो सवाल है वही मेरा भी सवाल था.. की किसी पढ़े लिखे ब्लॉगर को ऐसा लिखना चाहिए? जो सांप्रदायिक तनाव पैदा करता हो..

लेकिन आपका कहना ठीक है लोग मन में पहले ही नफ़रत लेकर चलते है.. इसलिए मेरी ब्लॉग पर भी तीखी टिप्पणिया आई थी.. और इसीलिए मैने अपनी पिछली पोस्ट भी डिलीट कर दी थी.. क्योंकि मेरा विचार व्यक्तिगत रूप से लिया जा रहा था. कारण पता नही पर मैं अमन ओर शांति चाहता हू.. पहला प्रयास मेरा था.. अगला प्रयास आप करे.. फिर दोनो मिलकर किसी ओर का इंतेज़ार करते है..

यहा पर सब अमन ही चाहते है..

रंजू भाटिया said...

शान्ति... शान्ति ..शान्ति ...प्यार और अमन चैन की जरूरत है इस वक्त ...सब वही चाहते हैं ...वही करे और अच्छा सार्थक लिखे ....

Unknown said...

दोस्त, यह आदमी की फितरत है. हर आदमी के अंदर जानवर होता है. वह कब जाग जाये. कुछ कहा नहीं जा सकता. हो सकता है, आप इत्तिफाक न करें. पर फुरसत के पलों में सोचिएगा. शायद कुछ समझ में आए.
मुकुंद, चंडीगढ़
mob-09914401230

दीपक कुमार भानरे said...

मौकापरस्त लोगों की अवसरवादी चालों को समझना होगा . उनकी लगाई हुई आग की लपटों से आमजन ही झुलसता है .

दीपान्शु गोयल said...

किसी धर्म का होने से पहले हर कोई इसान पहले है । हर इंसान का खून लाल ही होता है जिस दिन ये बात समझ आ जाये सारे झगडे ही मिट जायगें।

दिनेशराय द्विवेदी said...

रक्षंदा जी, आप बजा फरमाती हैं। आप ने जो बात कही वही कुश ने कही। आप ने किसी धर्मावलंबी का नाम नहीं लिया और कुश ने लिया। यहीं कुश भाई से गलती हुई। क्यों कि जो अमन को खतरे में डालता है वह किसी भी धार्मिक हो ही नहीं सकता। अगर इंसान को धरती पर जीवित रहना है तो अमन बनाना पड़ेगा, किसी भी धर्म को स्वीकार करने के पहले इन्सान बनना होगा।

manvinder bhimber said...

कलम उठाऊं तो कागज़ सुलगने लगता है....
नज़र में जलता हुआ घर है, क्या किया जाए..
jab bhi koi hadsa hota hai to insaaniyat hi sharmundha hoto hai

योगेन्द्र मौदगिल said...

सारी दुनिया सारी बातें ठीक मियां
सोये दिन और जागती रातें ठीक मियां
shesh aap jo theek samjhe

Anonymous said...

कीचड़ के बासिन्दे कीचड़ ही उछालेंगे
अब इनका निशाना आपके बजाय समीर भाई हो गये हैं

Satish Saxena said...

"आज हमारी ब्लोगिंग में जो कुछ हो रहा है, उसे दिख कर दिल दुःख से भर जाता है. कुछ लिखना चाहूँ तो लिखने को दिल ही नहीं चाहता, क्या लिखूं? कौन पढेगा? "

यह तो मेरे मन की बात तुमने छीन ली रख्शंदा ! बहुत दिन से एक गीत लिखने का दिल है....
" क्या लिखूं ? कौन पढता इसको ? " शायद जल्द आपको पढने को मिलेगा ! बहरहाल, हिन्दी ब्लाग जगत का माहौल वाकई अच्छा नही कहा जा सकता, जो समझदार व अच्छे हैं, वे चुप रहते हैं और अन्याय होते देखते रहते हैं ! ऐसे में आप जैसे नवोदितों और सशक्त कलम को किसी भी ग्रुप का हिस्सा बनने से बचना चाहिए ! अगर हम ईमानदार हैं तो वाकई निष्पक्ष रहें, मत सब ठीक होते हैं !
शुभकामनाएं !

Manish Kumar said...

कुश और रख्शंदा आप दोनों प्रबुद्ध और संवेदनशील प्राणी हैं। मेरे खयाल से आप दोनों, बात के दो पहलुओं के बारे कह रहे हैं और उनमें ज्यादा विरोधाभास नहीं है बस ठंडे दिमाग से चिंतन मनन करें ताकि एक दूसरे और इस देश की संवेदनाओं को समझने में मदद मिले।

नीरज गोस्वामी said...

बहुत ईमानदारी से लिखी पोस्ट...सोचने को बाध्य करती हुई...
नीरज

नीरज गोस्वामी said...

बहुत ईमानदारी से लिखी पोस्ट...सोचने को बाध्य करती हुई...
नीरज

شہروز said...

dard hai
main tumhare saath hoon.
jaldi http://saajha-sarokaar.blogspot.com/
aur
http://hamzabaan.blogspot.com
aur
http://shahr0z-ka-rachna-sansaar.blogspotcom/
ki nayi post padhen
shaayad kuch dar halka ho.
zaroor hoga.
sukoon milega ummeed hai.
khudahafiz

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही अच्छा लिखा हे आप ने , लेकिन अगर शेतान नही होगा तो इंसान की पहचान केसे होगी, ओर हमे ही पहचान करनी हे, ओर संग मिल कर भी रहना हे.
जैसी जिसे दिखे यह दुनिया,वैसी उसे दिखाने दो
अपनी-अपनी नज़र है सबकी क्या सच है, यह जाने दो
हम सब किसी को सुधार नही सकते, लेकिन इन्हे नजर आंदाज तो कर सकते हे, ओर मे यही करता हू, अपने मे मस्त रहॊ
धन्यवाद

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

मेरा घर है मेरा वतन - वो ऐसा हो जहाँ हरेक अमनोचैन से ज़िँदगी बसर करेँ..
जो कायदा और कानून ऐसा वतन कायम करे उसकी रखवाली और हिफाज़त करना हमवतनी इन्सान का फर्ज़ है --
- लावण्या

Udan Tashtari said...

क्या कहें, हम तो रोज झेल रहे हैं-कभी यहाँ तो कभी वहाँ. अब ध्यान देना ही बंद कर दें तो बेहतर...शायद चाहत का एक नजरिया हो:

अपने अंदर ही सिमट जाऊँ तो ठीक
मैं हर इक रिश्ते से कट जाऊँ तो ठीक.

मेरी चादर बढ़ सके मुमकिन नहीं
मैं ही थोड़ा सा सिमट जाऊँ तो ठीक.

Anonymous said...

कीचड़ तो होता ही है उछलने के लिये हैं। चिंता मती करें। मौज से लिखें, लिखती रहें।

सुजाता said...

जो दुनिया मुझे अपनी खूबसूरती से लुभाती थी आज वही दुनिया इतनी बदसूरत नज़र आने लगी है कि दिल ही नहीं चाहता यहाँ आने का.
----
ओह तो आपको भी मेरी तरह इस दुनिया के बारे मे भ्रम हुआ था:-)

खैर यह बेहद स्वाभाविक है। ब्लॉगिंग के शुरुआती दो महीनो मे ही मेरे भ्रम टूट चुके थे ।ये बाहरी दुनिया का ही आइना है रक्षंदा जी, और आज़ादी अधिक होने से उससे ज़्यादा गन्दा भी हो जाता है कई बार।इसमे हम स्वयम को कितना संतुलित और मैनेज कर पाते हैं यही महत्वपूर्ण है। हमारे लिए बेहतर है कि एक छोटी सी दुनिया से ढेर सारी उम्मीदें लगाए बिना लिखें।

फ़िरदौस ख़ान said...

मरने वाले ना हिन्दू होते हैं ना मुसलमान. वो बस इंसान होते हैं और इंसान जब भी मरता है, शर्मिंदा सिर्फ इंसानियत होती है.


बहुत सही कहा है आपने...पिछले दिनों हमारी एह तहरीर पर जिस तरह लोगों ने बिला वजह खासा तमाशा किया उससे यही लगा कि लोग अच्छी बात को न तो सुनना चाहते हैं और न ही उसे समझना चाहते हैं...आपके ब्लॉग को 'दोस्तों की महफ़िल' यानि अपने ब्लॉग में शामिल किया है...

कुन्नू सिंह said...

"इंसान जब भी मरता है, शर्मिंदा सिर्फ इंसानियत होती है" ऎसे कई सब्द लिखीं है जो प्रभावीत कर देता है।

सही बात है ईसपर बडे बलागर ही कूछ कर सक्ते हैं।
सूरूवात आज मै हि कर देता हूं

कुन्नू सिंह said...

बडे ब्लागर मतलब बडे ब्लागर जो 50-60 साल के हैं वो। मै तो उन्के सामने बहुत छोटा हूं।
और सूरूवात मतलब सिर्फ मसाल जला देता हूं सायद कोई समझ जाए और ये सब करना बंद कर दे।

डॉ .अनुराग said...

)रक्ष्नान्दा
मुझे कई फिल्मे बेहद पसंद है शोर्य ओर आमिर ...शोर्य हालांकि a few good men का भारतीय संस्करण है ,फ़िर भी एक संदेश छोड़ती है ...आमिर तमाम हालातो से गुजरकर भी अपनी इंसानियत को तवज्जो देता है....एम् एस सथ्यू साहेब ने कभी एक फ़िल्म बनायी थी "गर्म -हवा "ओर एक फ़िल्म ओर ध्यान आती है ..."सलीम लंगडे पे मत रो "..कभी देखियेगा ...
इन्सान वही होता है जो अपनी कडवाहटो को साथ लेकर नही चलता है ,अच्छी चीजो को उठाकर रख लेता है...हम जब कोई माध्यम अपनी अभिव्यक्ति के लिए चुनते है तो लिखते वक़्त जाने अनजाने एक जिम्मेदारी भी हम पर आ जाती है ,भाषा की जिम्मेदारी ...शब्द कई बार अपने अर्थ अपने आप खोज लेते है....(ख़ुद आपने महसूस किया होगा की शब्द कितना हर्ट करते है ).एक गुजारिश है आपसे .....वैचारिक असहमति को आप पर्सनल विरोध मत मानिये (इसी ब्लॉग जगत में ढेरो लोग ऐसे है जो आपके साथ तब भी खड़े थे जब आपके वजूद पर प्रश्न उठे थे )हाँ वैचारिक असहमति अपेक्षित उदारता से संतुलित हो ये दोनों पक्षों के लिए एक अलिखित शर्त है ......

क्या जाने धूप किस ओर आयेगी पहले
कल रात चाँद बटा था दो महजबो मे

महेन्द्र मिश्र said...

Har achchi vicharacharadhara ka virodh hota hai . pratyek vicharao ki alochana ora pryalochana hoti hai par kya alochanao se darakar log apna maarg badal dete hai jara vichaar kigiye.

Rakesh Kaushik said...

badi hi achchi shuruaat ki hai post ki. itni vichaarsheel likhni likhi hai. bahut hi achcha mudda uthya hai or udharan to or bhi achcha hai.

Rakesh Kaushik

rakhshanda said...

अनुराग जी, आपकी बात मैं कैसे भूल सकती hun लेकिन फिर भी कभी कभी कुछ बातें बहुत हार्ट करती हैं....कितना ये आप शायद समझ नही सकते, फिर भी मुझे किसी से कोई शिकायत नही है...आपको कैसे लगा की मैंने पर्सनली लिया है....अगर है भी तो वक्त के साथ सब भूल jaaungi ...

rakhshanda said...

आप सभी के बेहद शुक्रिया, आपके दिए हुए हौसले ही यहाँ मुझे रहने पर मजबूर करते हैं...ये आपका प्यार है, आपकी मुहब्बत है जिसने मुझे हर लम्हा नई ताकत दी है...सच लिखने की ताकत, किसी से भी नही डरने की ताकत...बस इसी तरह मेरे साथ रहिएगा...थैंक्स

rakhshanda said...

कुश जी,बहुत शुक्रिया, बेहद शुक्रिया...आप जो कहें, वो सही....आप ग़लत हो ही नही सकते..आपकी साड़ी बातें सही हैं...अब आपकी तारीफ़ में और क्या कहूँ...

rakhshanda said...

@कन्नू जी, बहुत अच्छी शुरुआत होगी, ज़रूर करें...बस एक गुजारिश है आपसे...प्लीज़ अपनी किसी पोस्ट में मेरे नाम को मत घसीटें...मुझे इस तरह की चर्चा से कोफ्त होती है...उम्मीद है आपने बुरा नही मन होगा...thanks

rakhshanda said...

@फिरदौस जी, thank u, आपने मुझे अपनी महफ़िल में शामिल किया, आपको पढ़ना अच्छा लगता है...ख़ास कर आपकी ग़ज़ल्स , मुझे नज़्म और ग़ज़ल से इश्क है...अब आपको पढ़ती रहूंगी...आपकी बेबाकी भी अच्छी लगती है...

अभिषेक मिश्र said...

काफी अच्छा ब्लॉग और काफी संवेदनात्मक लेख भी. दरअसल हम अपनी साझी विरासत और संस्कृति से कटते जा रहे हैं. जरूरत है युवाओं को आगे बढ़ने और एकजुट होने की. इसी दिशा में मैंने भी एक प्रयास किया है, आशा है आपका भी सहयोग मिलेगा.

ज़ाकिर हुसैन said...

रक्षंदा
क्या लिखूं?
मन बहुत क्षुब्द है.
आतंकवाद सच में एक बड़ी समस्या बन चुकी है.
असल समस्या तो ये है कि इसके खिलाफ बोलने वाले किसी मुस्लिम नाम को भी लोग अजब हैरत और संदेह से देखते हैं. उसे तो दो मोर्चों पर लड़ना पड़ता है. एक तो अपने जैसे नाम वालों से जो इंसानियत के नाम पर कलंक हैं और दुसरे अपने से भिन्न समुदाय वालों के संदेहों से.
खैर....................
हमें हार नहीं माननी है

L.Goswami said...

देर से पहुँची हूँ कहीं व्यस्त थी ..मैंने बार बार कहा है फ़िर कहती हूँ ..अच्छी या बुरी चीजें ब्लोगिंग,अख़बार या लेखन नही होता अच्छे और बुरे होते हैं लोग..जो इसे ऐसा बनातें हैं..इनकी कोई परवाह ही क्यों करे ..अच्छे लोगों की भी अच्छी खासी जमात है उधर ही देखा करो.

makrand said...

हम एक हैं . हम इंसान हैं तो जानवरों से बदतर क्यों हो गए हैं?

well written
lovely crafted words well edited
regards

Dr. Nazar Mahmood said...

aik tahrir ki kamyabi yehi hoti hai ki us per logon ke beech baat ho aur mashallah aapki post per toh kafi logon ne baat ki hai
mubarakbaad

vijaymaudgill said...

रक्षंदा जी, एक राइटर की असली पहचान यही है कि उसके लिखे हुए के बारे में बात हो। अब ये आप पर निर्भर करता है कि आप सिर्फ़ लिखने के लिए लिखती हैं या मन को सुकून देने के लिए। बाकी रही किसी को बुरा भला कहने की बात, तो वो उसकी सोच-समझ। ख़ैर सच कहूं, तो मन को दुख होता है कभी-कभी। मैं इस जगत में लिखने के लिए नहीं बल्कि पढ़ने के लिए आया था। अब ये तो मुझ पर ही निर्भर करता है कि मैं क्या पढ़ूं। अच्छा या बुरा। सो ऐसे लोगों की चिंता करना छोड़ दें। बस आगे बढ़ते रहते। बहुत ऐसे लोग हैं अभी भी जिनका दीन-इमान ज़िंदा है। हम आपके साथ हैं...

Satyendra PS said...

बहुत बेहतरीन लिखा। बहरहाल तमाम चीजें ऐसी होती हैं जो अपनी संतुष्टि के लिए की जाती हैं। मेरा मानना है कि ब्लागिंग भी उनमें से एक है। मजे की बात है कि ज्यादातर लोग इस विधा में विचारों के आधार पर ही जुड़ते हैं, न कि नाम और प्रतिष्ठा के आधार पर।

Kavita Vachaknavee said...

सकारात्मक सोच के साथ चलना सभी के हित में होता है, अपने या पराए सभी के।

कडुवासच said...

बहुत अच्छा लेखन , सुन्दर ब्लाग। ........... अभिव्यक्ति फिर कभी!

makrand said...

नफरतें किसी का भला नहीं किया करतीं. ये बात सब जानते हैं लेकिन फिर भी उसी को सींचते हैं.
great lines and art work is too great
regards

admin said...

कलम उठाऊं तो कागज़ सुलगने लगता है....
नज़र में जलता हुआ घर है, क्या किया जाए..

नफरतें किसी का भला नहीं किया करतीं. ये बात सब जानते हैं लेकिन फिर भी उसी को सींचते हैं.

मरने वाले ना हिन्दू होते हैं ना मुसलमान. वो बस इंसान होते हैं और इंसान जब भी मरता है, शर्मिंदा सिर्फ इंसानियत होती है.


कुछ बातें ऐसी हैं, जो सीधे दिल पर असर करती हैं, फिर चाहे सामने वाला कोई भी हो। आप द्वारा उपर कही गयी बातें ऐसी ही हैं। बधाई, इन दिल को छू लेने वाले अलफाजों के लिए।

दीपक said...

आपने बजा फ़र्माया है रक्षंदा जी !!इनके लिये बस इतना ही कह सकते है!!

दुश्मनी करो तो ये गुंजाइश रहे
कि जब दोस्ती हो तो शर्मिंदा ना होना पडे॥

rakhshanda said...

आप सब का बहुत शुक्रिया...

roushan said...

असल गिद्ध तो खात्मे की कगार पर हैं अब जो इंसान हैं गिद्धों के वेश में वो कुछ भ कर सकते हैं. शायद असल गिद्धों को ख़त्म करने के पीछे ऐसे ही लोगो की साजिशें थी.