कभी कभी ऐसा होता है न कि जब हम नसीहतों की बडी सी टोकरी लिए सारे ज़माने को बांटने की कोशिश कर रहे होते हैं तो पता नहीं क्यों, अपना हिस्सा बचाना भूल जाते हैं . शायद हमारे लाशऊर में कहीं न कहीं ये गुमान होता है कि हमें इसकी ज़रुरत नही है .
वो तो जब किसी और के हाथों से सच्चाई के चन्द टुकड़े अपने मुंह में रखते हैं तो बडी शिद्दत से अहसास होता है कि इसकी थोडी ज़रुरत तो हमें भी थी.
अपनी पिछली पोस्ट मैंने अपना आस पास बिखरी मग्रिबी रंग में लुथड़ी ज़हनियत से सख्त नाराज़ हो कर लिखी थी.
अपने दोस्तों रिश्तेदारों क्लास फेलोस की ज़हनियत से बडी कोफ्त का शिकार थी. अपनी सारी नाराजगी, अपना सारा गुस्सा उस पोस्ट के ज़रिये निकालते हुए मैंने जाने अनजाने में खुद को उस से अलग रखा.
एक लम्हे के लिए भी ये अहसास नहीं जागा कि कहीं इस भीड़ में, मैं खुद भी तो शामिल नहीं…क्योंकि घर हो या बाहर, सब ने ‘यू आर डिफरेंट’ का तमगा पहना कर खुश फहमी की एक अलबेली सी दुनिया में पहुंचा दिया था मुझे.
मेरे खयालात मुनफ़रिद(different) हैं.
मैं इस भीड़ का हिस्सा नहीं….ये गुमान कहीं न कहीं मुझे भी था लेकिन जब खुशफहमी की धुंध हटा कर सच्चाई के आईने में खुद को देखा तो अहसास हुआ कि पूरी तरह अलग तो मैं भी नहीं हूँ.
मशीनी बेहिसी और खुदगर्जी के रंगों में डूबते जारहे जिस दौर में मैं जी रही हूँ, उन रंगों के कुछ ना कुछ छींटे मेरे दामन पर भी पड़े हैं.
आसाईशों के हुसूल की ख्वाहिशें लिए भागे जारहे हुजूम में कहीं न कहीं या थोडी देर के लिए ही सही, मेरी अपनी जात भी शामिल हो ही जाती है.
सब से ज्यादा दुःख कि बात तो ये है कि इस हुजूम में भागते हुए हम सिर्फ खुद से आगे निकल जाने वालों को ही देखते हैं. कभी एक पल लिए भी पीछे रह जाने वालों को पलट कर नहीं देखते. ये बेहिसी नहीं तो और क्या है.
स्कूल कॉलेज से लेकर दफ्तर, रिश्तेदारी और पड़ोस से लेकर अपने घर तक हम सिर्फ आगे जाने वालों को देखते हैं.
हम बडे आराम से कह देते हैं कि हम इंसान हैं, फरिश्तों की सिफत(quality ) कहाँ से लायें? लेकिन ये कभी नहीं सोच पाते कि जब हम इंसान हैं तो फिर इंसानियत से मुहब्बत क्यों नही करते.
दुनिया का हर मज़हब इंसानियत से मुहब्बत करना सिखाता है.
हमारे रसूल(अ.स) ने फरमाया है कि जब भी तुम अपने घर वालों के साथ खाना खाने बैठो तो खाना शुरू करने से पहले सोचो कि कहीं पड़ोस में तुम्हारा पडोसी भूखा तो नहीं सो गया?
अगर सिर्फ इस एक फरमान को हम अपनी जिंदगी में शामिल कर लें तो बेहिसी की ये बर्फ पिघलते देर नहीं लगेगी.
लेकिन—बात फिर वहीँ पर आकर रुक जाती है, हम किसी नसीहत कर रहे हैं, किसी सिखाने की कोशिश कर रहे हैं.
क्या हम ने खुद का मुहासबा किया? अपने दिल के अन्दर झाँक कर देखा?
क्या हमारे ज़मीर के आईने ने हमें बताया कि हमारा चेहरा पाक और शफ्फाफ है?
सब से बडी बात यही है कि हर इंसान अपने ज़मीर के आईने में रोज़ अपनी शक्ल ईमानदारी से दिख लिया करे.
हम कैसे हैं? हमारा ज़मीर कभी हमारा गलत तजजिया (आंकलन) नहीं कर सकता कि बकौल क़तील शाफ़ई-----
वो तो जब किसी और के हाथों से सच्चाई के चन्द टुकड़े अपने मुंह में रखते हैं तो बडी शिद्दत से अहसास होता है कि इसकी थोडी ज़रुरत तो हमें भी थी.
अपनी पिछली पोस्ट मैंने अपना आस पास बिखरी मग्रिबी रंग में लुथड़ी ज़हनियत से सख्त नाराज़ हो कर लिखी थी.
अपने दोस्तों रिश्तेदारों क्लास फेलोस की ज़हनियत से बडी कोफ्त का शिकार थी. अपनी सारी नाराजगी, अपना सारा गुस्सा उस पोस्ट के ज़रिये निकालते हुए मैंने जाने अनजाने में खुद को उस से अलग रखा.
एक लम्हे के लिए भी ये अहसास नहीं जागा कि कहीं इस भीड़ में, मैं खुद भी तो शामिल नहीं…क्योंकि घर हो या बाहर, सब ने ‘यू आर डिफरेंट’ का तमगा पहना कर खुश फहमी की एक अलबेली सी दुनिया में पहुंचा दिया था मुझे.
मेरे खयालात मुनफ़रिद(different) हैं.
मैं इस भीड़ का हिस्सा नहीं….ये गुमान कहीं न कहीं मुझे भी था लेकिन जब खुशफहमी की धुंध हटा कर सच्चाई के आईने में खुद को देखा तो अहसास हुआ कि पूरी तरह अलग तो मैं भी नहीं हूँ.
मशीनी बेहिसी और खुदगर्जी के रंगों में डूबते जारहे जिस दौर में मैं जी रही हूँ, उन रंगों के कुछ ना कुछ छींटे मेरे दामन पर भी पड़े हैं.
आसाईशों के हुसूल की ख्वाहिशें लिए भागे जारहे हुजूम में कहीं न कहीं या थोडी देर के लिए ही सही, मेरी अपनी जात भी शामिल हो ही जाती है.
सब से ज्यादा दुःख कि बात तो ये है कि इस हुजूम में भागते हुए हम सिर्फ खुद से आगे निकल जाने वालों को ही देखते हैं. कभी एक पल लिए भी पीछे रह जाने वालों को पलट कर नहीं देखते. ये बेहिसी नहीं तो और क्या है.
स्कूल कॉलेज से लेकर दफ्तर, रिश्तेदारी और पड़ोस से लेकर अपने घर तक हम सिर्फ आगे जाने वालों को देखते हैं.
हम बडे आराम से कह देते हैं कि हम इंसान हैं, फरिश्तों की सिफत(quality ) कहाँ से लायें? लेकिन ये कभी नहीं सोच पाते कि जब हम इंसान हैं तो फिर इंसानियत से मुहब्बत क्यों नही करते.
दुनिया का हर मज़हब इंसानियत से मुहब्बत करना सिखाता है.
हमारे रसूल(अ.स) ने फरमाया है कि जब भी तुम अपने घर वालों के साथ खाना खाने बैठो तो खाना शुरू करने से पहले सोचो कि कहीं पड़ोस में तुम्हारा पडोसी भूखा तो नहीं सो गया?
अगर सिर्फ इस एक फरमान को हम अपनी जिंदगी में शामिल कर लें तो बेहिसी की ये बर्फ पिघलते देर नहीं लगेगी.
लेकिन—बात फिर वहीँ पर आकर रुक जाती है, हम किसी नसीहत कर रहे हैं, किसी सिखाने की कोशिश कर रहे हैं.
क्या हम ने खुद का मुहासबा किया? अपने दिल के अन्दर झाँक कर देखा?
क्या हमारे ज़मीर के आईने ने हमें बताया कि हमारा चेहरा पाक और शफ्फाफ है?
सब से बडी बात यही है कि हर इंसान अपने ज़मीर के आईने में रोज़ अपनी शक्ल ईमानदारी से दिख लिया करे.
हम कैसे हैं? हमारा ज़मीर कभी हमारा गलत तजजिया (आंकलन) नहीं कर सकता कि बकौल क़तील शाफ़ई-----
जागा हुआ ज़मीर वो आईना है क़तील
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं
फिर न किसी नसीहत कि ज़रुरत रह जायेगी, न किसी दुसरे से शिकायत. मशीनी होते जारहे इंसान को सिर्फ और सिर्फ अपने अहसास को बेदार करने की ज़रुरत है, बाकी मसले खुद बखुद हल हो जायेंगे.
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं
फिर न किसी नसीहत कि ज़रुरत रह जायेगी, न किसी दुसरे से शिकायत. मशीनी होते जारहे इंसान को सिर्फ और सिर्फ अपने अहसास को बेदार करने की ज़रुरत है, बाकी मसले खुद बखुद हल हो जायेंगे.
39 comments:
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...!
यह आईना देखना बहुत जरुरी है ...पर वही बात कि कहाँ देखते हैं हम .अच्छा लिखा है आपने
I read the article and it is excellent. Please keep it up in Hindi . Since thoughts are so good , it would be better if an attempt is made in poetry also Kshetrapal Sharma
यह लिखना ही आपको अलग कर देता है.... आपके भावः बहुत अच्छे हैं और उसे सुंदर तरीके से कलमबद्ध किया आपने
एक शेर है rakhshanda
"फ़रिश्ते से बेहतर है इंसान होना
मगर उसमे लगती है मेहनत ज्यादा '
तुम्हारी लिखी सारी बातो को इस शायर ने अपने शेर में समेट दिया है ,अच्छा है अगर तुम ये सब बातें सोचती हो...ऐसी ही बने रहना ताउम्र.. ...
सुन्दर लेख,सच्चे भाव.बहुत बहुत बधाई.हम सभी अक्सर उस आइने के सामने आने से बचते हैं जो हमेम सच दिखाता है.
ये पोस्ट अच्छी लगी... (इसका ये मतलब नहीं है की पहले वाली ख़राब थी :-))
rakhshanda
सच मायनों में तुमने खुद आईना देखने के साथ-साथ एक बार फिर हमें भी दिखा दिया. वास्तव में हम सब इसी खुशफहमी में जीते हैं कि नसीहतों कि ज़रूरत दूसरो को ज्यादा है जबकि हमें भी उतनी ही होती है. खैर तुमने इसे कबूल किया और ये ही बात तुम्हे दूसरों से diffrent बना देती है
सही लिखा है।
फिर न किसी नसीहत कि ज़रुरत रह जायेगी, न किसी दुसरे से शिकायत. मशीनी होते जारहे इंसान को सिर्फ और सिर्फ अपने अहसास को बेदार करने की ज़रुरत है, बाकी मसले खुद बखुद हल हो जायेंगे.
-बिल्कुल सही फरमाया.
"मैं इस भीड़ का हिस्सा नहीं….ये गुमान कहीं न कहीं मुझे भी था लेकिन जब खुशफहमी की धुंध हटा कर सच्चाई के आईने में खुद को देखा तो अहसास हुआ कि पूरी तरह अलग तो मैं भी नहीं हूँ."
आपके उपरोक्त अहसास तो कबीर वाणी में पहले से ही मौजूद है :
बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिल्या कोई
जो तन देखो आपनो , मुझसे बुरा न कोई.
आपकी बातो का निचोड़ यही है कि
आदमी तो मिले , मिलते ही रहे
गुरूर में हर कोई मचलते हे रहे
पर इन्सान न मिले, भगवन न मिले
इसी लिए पत्थरों को नमन करते रहे
चन्द्र मोहन गुप्त
जो कुछ मैंने ख़ुद महसूस किया, ईमानदारी से वही लिखा...आप सब का किस दिल से शुक्रिया अदा करूँ, समझ नही आता..बहुत शुक्रिया...
अंगूठा छाप जी, ये कैसा कमेन्ट है? समझायेंगे?
वैसे आपने जो मशवरा दिया था, एक लम्हे के लिए तो अजीब सा लगा, सच कहूँ तो थोड़ा सा बुरा भी..लेकिन जब सोचा तो अहसास हुआ की इस में सिर्फ़ मेरा भला छिपा है...काफी कुछ...अब आपको क्या कहूँ..शुक्रिया या कुछ और?
bahut sahi likha hai...par aajkal aaina dekhna kaun chahta hai!
शुक्रिया रक्षंदा!
...तुमको ही नहीं मुझे भी अच्छा लग रहा है।(देखो, अब तुम्हारा ब्लॉग पहले से ज्यादा संजीदा लगने लगा है ना!)
समय मिलते ही एक-दो रोज में मैं अपने ब्लॉग पर ब्लॉगरोल बनाने जा रहा हूं। तुम्हारी इजाजत हो तो तुमको भी उसमें शामिल कर लूं। और और अच्छा लिखो! और और यश पाओ! शुभकामनाएं!
फिलहाल इतना ही....
इक चलत मुसाफिर
उर्फ ‘अंगूठा छाप’
और हां!
तुमने मेरे ब्लॉग पर दस्तक दी। कमेंट किया।
शुक्रिया, उसके लिए भी।
अंगूठा छाप
सही है।
रक्षंदा दी वैसे तो मैं अनुराग जी से पूरी तरह सहमत हूं। जो उन्होंने शेर लिखा है बहुत ख़ूब।
और हां रक्षंदा जी इंसान अपने पूरे जीवन में सबसे ज़्यादा झूठ ख़ुद से बोलता है। वो हर बार ख़ुद को धोखा देता है। वो ख़ुद से झूठ बोलना छोड़े तभी तो आइना देखे।
मैं पहली बार आपके ब्लाग पर आया हूं और आपकी लेखनी पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा। आशा करता हूं कि और ख़ूबसूरत रचनाएं पढ़ने को मिलती रहेंगी। शुभकामनाएं।
हर इंसान अपने ज़मीर के आईने में रोज़ अपनी शक्ल ईमानदारी से दिख लिया करे....
अच्छा लिखा है आपने,
आप सभी एक बार फिर से शुक्रिया,आपके दिए ये हौसले ही मेरी असली ताक़त हैं...और अंगूठा छाप जी, ये भी कोई पूछने की बात है, ये तो मेरे लिए बड़ी इज्ज़त और फख्र की बात होगी अगर आप मुझे शामिल करेंगे...और आपके ब्लॉग पर इंशाल्लाह अब आती ही रहूंगी...
@anurag ji,आपका ये शेर दो लाइन में सचमच सब कुछ लाह गया, वाकई फ़रिश्ता होना क्या होता है वो तो नही मालूम लेकिन इंसान बनने में उस से ज़्यादा मेहनत होती है क्योंकि गुनाह की जो हिस अल्लाह ने तोहफे में दे दी है, उस से ख़ुद को बचा कर रहना फ़रिश्ता होने से ज़्यादा मुश्किल है की फरिश्तों को ये मुश्किल खुदा ने दी ही नही.....थैंक्स
bahut sahi kaha apne, atmaanushasan bahut hi avashyak hai.
जागा हुआ ज़मीर वो आईना है क़तील
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं
It was really nice to read ur thoughts!!
()^..^()
वाह, चंद दिनों में ही जैसे यहाँ की दुनिया ही बदल गयी !
आइने देखे और दिखाये जाने लगे..पर अच्छा लग रहा है सब कुछ...लगता है, यह खिलंदड़ी सी लगने वाली लड़की अब संज़ीदा होने होने को है !
चंद क़तरात याद आ रहे हैं,
ये माना कि निहायत बुरी है ये दुनिया
हमारी ही नहीं आपकी भी है ये दुनिया
किसी ने बनाई क्या, ये तो बन गयी है
कि इंसाँ से ही इतनी बेबस है ये दुनिया
और एक अरमाँ भी है, कि..
बनाया है तुमने फ़रिश्ते को शैताँ
इसे फिर से फ़रिश्ता बनाओ तो जाने
इन रवायतों को पहले हटाओ तो जानें
But, you have proved yourself
a serious thinker in this post,
that I must say . Congrats !
wah!
Dr. Amar ka jawab nahin...
really!!
ये माना कि निहायत बुरी है ये दुनिया
हमारी ही नहीं आपकी भी है ये दुनिया
किसी ने बनाई क्या, ये तो बन गयी है
कि इंसाँ से ही इतनी बेबस है ये दुनिया
हाँ,इंसान से ही बेबस है ये दुनिया लेकिन आपने बिल्कुल ठीक कहा,हमने और आपने ही दुनिया बनाई है,शकल अगर बिगड़ गई है तो हम ही हैं जो इसे फिर से संवार सकते हैं...और दूसरों को देखने से पहले इस काम में सब से पहले ख़ुद को वक्फ़ कर देने वाले ही इस दुनिया को सही मायनों में खूबसूरत बना सकते हैं..वो चाहे आप हों या हम...बहुत बहुत शुक्रिया अमर जी...मुझे अपना बनाने के लिए लेकिन थोडी मुश्किल भी होगी आपको,बार बार आना होगा...
kaisi ho ruby ?? e-mail ka jawab to do..waise sab to tarif kar hi rahen hain fir bhi kah hi deti hun sachmuch ab tum gambhir ho chali ho.replay karo jaldi ...
बहुत खूब रक्षन्दा ! आपके बुलन्द इरादे और वक़्त ब वक़्त अपने भीतर झाँक़ते रहने का हुनर् काबिले तारीफ है ।
इसे बनाए रखना ।
apki urdu jabardast hai..
aur hamari urdu ki taleem thori si kam...islie jayada to to nahi samajh paya..
shayad padhte padhte hi seekh jaon!
Cheers!!
कभी कभी ऐसा होता है न कि जब हम नसीहतों की बडी सी टोकरी लिए सारे ज़माने को बांटने की कोशिश कर रहे होते हैं तो पता नहीं क्यों, अपना हिस्सा बचाना भूल जाते हैं . शायद हमारे लाशऊर में कहीं न कहीं ये गुमान होता है कि हमें इसकी ज़रुरत नही है .
बहुत महत्वपूर्ण लेकिन हर एक के लिए काम आने वाली बात है। याद दिलाने का शुक्रिया।
aapko pehli baar padha..you come accross as a serious thinker...jab ham kisi pe ungli uthaate hai tab kuch ungliyan ham par ham khud hi uthaate hai..yeh baat samajh aane ke liye...ek imaandaari chahiye jo..nazar aayi..
bas isi honesty se likha karein..aapki ek achha insaan ban ne ki koshish hi aapko sabse alag banaati hai..
likhte rahe..
रक्षंदा,
तुम मेरे ब्लॉग पर आईं।
कमेंट किया।
उसके लिए आभार।
बहुत बहुत शुक्रिया!!
अंगूठा छाप
आप सभी का एक बार फिर से शुक्रिया,इतना हौसला और ताकत सी मिली है मुझे,मैं बता नही सकती...बाखुदा इसे कभी कम मत होने दीजियेगा...हमेशा यूंही मेरे साथ रहिएगा...इतना प्यार मिलने की आदत हो जाए तो तन्हाई बर्दाश्त नही होती...बहुत शुक्रिया..
@सुजाता जी...thank u so much.. मुझे याद करने के लिए...लेकिन प्लीज़ फिर से भूल मत जाइयेगा...बहुत बहुत शुक्रिया...
uska sajda.
per dharti pe jab chhoda tha usne kaha tha kya karna kya nahin?
humne kitna mana yeh hum hi jante hai.
achchaa likha apne......
rajesh
अनुराग आर्य ने अपने ब्लॉग पर कैसी करूण कहानी लिखी है......
तुम पढ़ो उसको रक्षंदा। .......शायद कोई कहानी लिखने में कुछ ‘एहसासात’ तुम्हें मिल सकें....
अनुराग वाकई बहुत अच्छा लिख रहे हैं आजकल.... पढ़ती रहा करो उनको.......
मेरा तो दिल ही डूब गया जी............कृपा की कहानी जानकर....रियली
अंगूठा छाप
रक्षंदा,बहुत ही प्रभावित हुआ हु तुम्हारे सभी लेखो से,दिल के आईने मे हमे जरुर अपने आप को देखना चाहिये फ़िर अपनी अच्छईयो ओर बुराईयो की तुलना दुसरो से करनी चाहिये. धन्यवाद, एक बहुत अच्छे लेख के लिये.
पता नही केसे छुट गया यह अच्छा लेख
मैं ज़रूर पढूंगी सर, और अनुराग जी तो मेरे सब से पसंदीदा राइटर हैं,आपको नही पता शायद, की नेट पे आते ही सब से पहले मैं उनके ब्लॉग पर जाती हूँ...और जहाँ तक उनकी नई कहानी सवाल है उसे मैं थोड़ा इत्मीनान से पढूंगी, जल्दी नही कोई की बस उनके कम्मेंट में अपना नाम शामिल करना है...और मुझे इतने अच्छे मशवरे के लिए शुक्रिया..सर...शायद आपको सर कहलवाने बहुत शौक है वरना अपना नाम तो बताते...
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