Sunday, July 27, 2008

कुछ ख्वाब सिसकते रहते हैं....


{वो मेरे दिल के बहुत करीब रहती है,उसके लबों से निकला सच है जिसे बस मैंने अपने कलम का सहारा दिया है} 
वो हमारे ही आस पास की एक औरत है. ज़रूरी नहीं कि मैं उसका नाम लूँ, मैं उस से मुन्स्लिक अपने रिश्ते के बारे में बयान करूँ, ये भी ज़रूरी नहीं है. वो आपके आस पास की भी हो सकती है. 
उसका दर्द कहने को बडा आम सा है, कुछ लोग शायद इसे पूरी तरह समझ ना पायें. कई लोगों की नज़रों में वह एक मुतमईन जिंदगी गुजार रही है लेकिन शायद ये सच नहीं है. वो लम्हा-लम्हा मर रही है. ऐसे जैसे स्लो poison का असर बहुत आहिस्ता-आहिस्ता इंसान से जिंदगी का राबता छीनता चला जाता है, वैसे ही बहुत कुछ करने की आरजू होते हुए भी कुछ न कर पाने की तड़प उसे पल-पल जिंदगी से दूर ले जारही है. 
बडी आम सी कहानी ही उसकी. 
बचपन से आला तालीम हासिल करने का जूनून दिल में लिए शऊर की मंजिलें तै करती हुई उस लड़की को मालूम ही नही था कि वो एक ऐसे घर में परवरिश पारही है जहाँ बेटियों और बेटों को अलग अलग निगाहों से देखा जाता है.
वो अपना जूनून साथ लिए, कामयाबी की मंजिलें तै करती जारही थी. उम्र के उस हिस्से में जब आम लड़कियों की आँखों में किसी अनजान शहजादे के हसीं ख्वाब खुद बखुद दर आते हैं, जाने क्यों, किसी शहजादे ने उसके ख़्वाबों की सरज़मीन पर कदम नहीं रखा. 
ख्वाब उसकी आँखों में भी उतरे लेकिन उन ख़्वाबों में भी उस ने खुद को कभी डाक्टर के रूप में देखा तो कभी इंजीनिअर के रूप में, कभी वो रिसर्च में खुदको मसरूफ देखती तो कभी आई.ऐ.एस ऑफिसर के रूप में अपने मुल्क की खिदमत करते हुए. उसे पता ही नहीं चला कि उसके माँ बाप चार चार बेटियों की लाइन से वहशतजादा हैं और उन्होंने उस वहशत का इलाज अपनी बेटियों को तालीम की दौलत से आरास्ता करने के बजाये जल्द से जल्द उनकी शादी को माना और महज़ दसवीं के बाद उसकी शादी कर दी. 
वो वक्त ही ऐसा था या शायद बचपन से ही माँ बाप के किसी हुक्म के खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत ही नहीं दी गयी थी उन्हें. वो भी इनकार नहीं कर सकी लेकिन उसके खामोश आंसू चीख चीख कर उनके फैसले से इनकार करते रहे लेकिन शायद उसके माँ बाप ने उन चीखों को सुना ही नहीं या सुन कर भी अनजान बन गए. 
उसकी शादी हो गयी, लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि शादी के बाद जिंदगी को उसने नहीं गुज़ारा, जिंदगी ने जैसे उसको गुज़ारा. 
ऐसा नही था कि वो कोई ना-आसूदा(असंतुष्ट) जिंदगी गुजार रही थी. शौहर अच्छी पोस्ट पर थे,अपने सारे फरायेज(कर्तव्य)  
 भी पूरे करते थे और शायद उस से प्यार भी करते थे. खूबसूरत घर, प्यारे प्यारे बच्चे, वो अपने फराएज़ और जिम्मेदारियों में पूरी तरह खो गयी. 
उसकी मेहनत उसके घर की खूबसूरती और बच्चों की तरबियत और उनके स्कूल के सालाना(yearly) रिज़ल्ट में साफ़ साफ़ दिखाई देती है. 
इस दरमियान एक दिलचस्प बात हुयी,बदलते वक्त ने उसके माँ बाप को बेटियों की तालीम की अहमियत और ज़रुरत वाजेह(स्पष्ट) कर दी और आज उसकी अपनी बहनें आला तालीम हासिल कर चुकी हैं. 
वो जब भी उन्हें एख्ती है,उसके दिल की अजीब कैफियत हो जाती है, कभी तो उनकी कमियाबियों पर बहुत खुशी महसूस करती है और कभी कभी वो सब उसे उसके ख़्वाबों के कातिल नज़र आते हैं. 
क्योंकि अपनी जिम्मेदारियों और फराएज़ से बहुत दूर उसकी दिल की धरती के किसी कोने में दफन उसके वो ख्वाब आज भी सिसकते रहते हैं. ऐसा नहीं है कि उसने उन ख़्वाबों की ताबीर पाने कि कोशिश नहीं कि. उसने अपनी इन ख्वाहिशों का इज़हार एक बार नहीं, कई कई बार किया लेकिन जाने क्या होता था, जब जब उसने अपने ख़्वाबों की ताबीर पाने की कोशिश कि, उसके घर का माहौल घुटन ज़दा हो जाता गया. काफी सुलझे हुए मिजाज के मालिक उसके शौहर को बात बात पर गुस्सा आने लगता था. वो गुस्सा कभी घर पर, कभी उस पर और कभी बच्चों पर बहाने बहाने से उतरने लगता और वो सदा की बुजदिल लड़की इस घुटन से वहशतज़दा, हर बार अपने ख़्वाबों को बडी खामोसी दफ़न कर देती है. 
बस--
 सब ठीक होजाता है. शौहर का रवैय्या, घर का माहौल, एक मुतमईन खुशहाल आसूदा फैमिली जो किसी के भी रश्क करने का बाईस हो सकती है. क्या हुआ…कुछ ख्वाब ही तो टूटते हैं , और ख़्वाबों का क्या है, कमबख्त बेवजह आँखों में उतर आते हैं और सारी जिंदगी आँखों में किर्चियों की सूरत चुभन देते रहते हैं......
कटे पंख...
(खामोश लबों की पुकार) 
मैं जिस वक्त और समाज में जी रही हूँ. उसमें दो किस्म की औरतें हैं. एक वो जो बदलते हुए वक्त में तरक्की के रास्तों पर मर्दों के कन्धों से कन्धा मिला कर चल रही हैं और एक वो जिन्हें तरक्की के मानी तक मालूम नहीं. जो बस जी रही हैं क्योंकि ये जिंदगी उन्हें जीने को मिली हुयी है.
दिलचस्प बात ये है कि उन्हें इस बात का कोई गम भी नहीं है क्योंकि उन्होंने खुद को पहचाना ही नहीं है इसलिए कुछ न कर पाने का उन्हें मलाल(दुःख) भी नहीं है.
मेरी ट्रेजडी ये है कि मैं इन दो किस्मों में से किसी एक में भी फिट नहीं आती.
खुद से आशना तो हूँ लेकिन उड़ने को पंख ही नहीं हैं.
कोई भी औरत तरक्की के आसमान में तभी उड़ सकती है जब उसके पास आला तालीम के पंख मौजूद हों. ये पंख ही उसे self-depend बनाते हैं. जाहिल औरत ज़माने में बगैर पंख के होती है. लेकिन उस जाहिल औरत के लिए भी इत्मीनान की बात ये होती है कि उसे अपने पंखों से आशनाई ही नहीं होती, मतलब वो जानती ही नहीं कि मुझे ये पंख नसीब हो सकते थे और इन पंखों के ज़रिये उड़ान भर कर वो कितने आसमान तलाश कर सकती थी. वो अपनी मौजूदा जिंदगी को ही अपना नसीब मान कर जीती और मरती है.

तड़पती और घुटती तो वो औरत है जिसे पंख देकर काट लिए जाएँ.
वो तालीम तो हासिल कर ले लेकिन अधूरी.
कहते हैं ना, अधूरापन सब से ज़्यादा दुःख देता है. टांगें रखने वाले इंसान की टांगें हादसे में कट जाएँ तो वो सारी जिंदगी जिंदा रह कर भी जिंदा लाश जैसी जिंदगी गुज़रता है.
कुछ न कर पाने की तड़प, अपनी खूबी से आशना होते हुए भी उसे दुनिया के सामने ना ला पाने की घुटन---शायद वही समझ सकता है जो इन हालात से गुज़र चुका हो. कि कैसा महसूस होता है जब अपने जैसी औरतों को तरक्की के खुले आसमान में उड़ते हुए देखती हैं और हसरत से देखती रह जाती हैं.
उड़ना चाहें तो कटे हुए पंख का जान लेवा दर्द दो कदम पर ही ज़मीन में गिरा देता है.
आह...जी चाहता है, वक्त को वापस मोड़ कर उस दौर में ले आयें जब वो तालीम हासिल कर रही थीं. हालात चाहे जैसे भी हों, उन्हें अपने मुताबिक मुड़ने पर मजबूर कर दें. दुनिया की कोई मजबूरी इन क़दमों को रोक न पाये. कोई एहतराम कोई रिश्ता उनके पंखों की कुर्बानी ना ले सके.
लेकिन लम्हे जो गुज़र गए, उन्हें वापस कौन ला सका है भला. अब तो घुट घुट के जीना और हसरत से उड़ान भरती अपनी कौम को देखते रहना है.




34 comments:

आशीष कुमार 'अंशु' said...

सत्य वचन

Rajesh Roshan said...

आज इस प्रिटी वूमन को हुआ क्या है.. आसमान खुला है। पंख भी हैं। उड़ान भरो.. यह भूल जाओ की कौन उपर उड़ रहा है कि कौन नीचे। आप अपने मौज में उड़ो और उड़ते जाओ..

डॉ .अनुराग said...

जी हाँ होता है कई बार ऐसा ...इसलिए ऐसे कई मां अपने सपने ..अपनी बेटी की आँखों में डाल देती है ...मै इस बात से इत्तेफाक रखता हूँ की किसी भी घर में माँ बाप की सोच बहुत कुछ चीजों को बदलती है ,मैंने पहले भी कही कहा है की मैंने दो ऐसे परिवारों को जिनकी आर्थिक स्थितिया लगभग एक जैसी है में से एक ने अपनी बेटी की शादी कर दी ,दूसरे ने अपनी बिटिया के जज्बे को हौसला दिया ओर आज वो इंजीनियर है..यानि की सिर्फ़ सोच की बात है......
गुजरा वक़्त तो वापस नही आ सकता पर ये जरूर है की अच्छे ओर जहीन इन्सान हर रूप में अपनी खुशबु बिखेरेंगे ...चाहे उनको इल्म हासिल हो या नही ......

Nitish Raj said...

सही कहा है आपने। लेकिन हर चीज का उपाय सिर्फ एक ही है शिक्षा।

राज भाटिय़ा said...

हम सब हर चीज को अपनी नजर से अपनी सोच से देखते हे,हर घर की अपनी अपनी कहानी हे,हम ने देखा हे कंधे से कंधा मिलाने वाली नारिया ओर आम घरेलू नारिया, अब इन मे आजाद कोन हे खुश कोन हे, खुश नसीब कोन हे यह वो ही जाने या फ़िर एकता कपुर के नाटको मे भी इस का जबाब मिल जायेगा,हमे पहले आजादी का मतलब मालुम होना चाहिये,वरना वही हाल होगा जो अपने देश का ६० साल होगये आजाद हुये,ओर हमे पता ही नही आजादी कया हे, गन्दगी डालना, आपस मे लडना,अपने अपने धर्मिक स्थानो पर शोर मचना, अपने अपने धर्म को बचाना, दुसरो को नीचा दिखना,शोर मचाना,यही तो हे हमारी समझ मे आजादी,कंधे से कंधा मिलाने वाली ओरते पहले भी होती थी, लेकिन बत्मीज नही होती थी आज की तरह, मेरी मां ने उम्र भर ओर आज तक कंधे से कंधा मिलाया हे, लेकिन कभी अपने फ़र्ज से, जिम्मे दारियो से मुंह नही मोडा,
नारी तभी तक महान हे जब तक वो कोमल हे सहन शील हे वरना मर्द ओर ओरत मे फ़र्क ही क्या बचेगा.
मेरी किसी बात से आप को या किसी को भी दुख पहुचे तो माफ़ करना, लेकिन सच्चाई तो यही हे.

कुश said...

जागरूकता और शिक्षा ही समाधान है.. आपकी कलम बढ़िया है..
राजेश रोशन जी के कमेंट की तरफ ध्यान दीजिएगा

रंजू भाटिया said...

शिक्षा मनुष्य को आगे ले जा सकती है ..जागरूक भी वही करती है ..सही कहा आपने।

Abhishek Ojha said...

सब सिर्फ़ सोच की बात है... अनुराग जी की बात से पूर्णतया सहमती है.

vipinkizindagi said...

आपकी पोस्ट हमेशा ही अच्छी होती है,
बेहतरीन प्रस्तुति है

Manish Kumar said...

अब क्या कहा जाए..सिर्फ महसूस कर सकते हैं इस पोस्ट के जरिए उस तड़प को..

Udan Tashtari said...

वक्त गुजर गया-कोई बात नहीं-कुछ सीख तो दे ही गया. एकदम सहमत हूँ कि शिक्षा और जागरुकता के सिवाय कोई समाधान नहीं. बहुत उम्दा लेखन.

दिनेशराय द्विवेदी said...

हाँ, यही जिन्दगी है। हम हर पल सपने बुनते हैं। सपनों के लिए संघर्ष करते हैं। पर किसी मोड़ पर अपने को समर्पित कर देते हैं। यह समर्पण मंहगा बहुत मंहगा पड़ता है। कभी सोचते हैं थोड़ा सा विद्रोह कर लिया होता तो जीवन कुछ और ही होता। लेकिन जीवन तो जिस राह पर एक बार चल पड़ता है वहाँ से वापस नहीं लौटता। अगर कोई राह चुननी पड़ती है तो वहीं से जहाँ आप जा पहुँचे हैं।
और यह महिलाओं के साथ ही नहीं, पुरुषों के साथ भी होता है।

Ila's world, in and out said...

यह अमूमन हर औरत की कहानी है जिसे आपकी कलम ने खूब संवार कर उकेरा है.किन्तु यहां आइन्स्टाइन की थिओरी ओफ़ रिलेटिविटी को नज़रअन्दाज़ करना ठीक नहीं है.कहते हैं ना,दूसरों की थाली में घी ज़्यादा नज़र आता है.

rakhshanda said...

शुक्रिया कहने से पहले मैं कहना चाहूंगी की प्लीज़ इसे एक कहानी की तरह न लेकर कुछ ऐसा बताइये...कोई राह...की ऐसे हालात की शिकार औरत क्या करे...ये जो अधूरापण उसे पल पल मार रहा है, उस से निकलने का क्या कोई रास्ता नही है?
जिंदगी बहुत छोटी भी है और लम्बी भी...ये सोच कर की वो अपने ख्वाब अपने बच्चों के ज़रिये पूरा कर लेगी, बड़ा आम सा और रवायती सा रास्ता है, बच्चों की जिंदगी उनकी अपनी होगी,उसकी जिंदगी क्या ख़त्म हो गई?
कोई तो रास्ता होगा इस मौत से बचने का?
अगर आपको समझ आए तो ज़रूर लिखियेगा..शायद उस में कोई ऐसा रास्ता निकल आए जो किसी को जिंदगी की तरफ़ ले जाए..

seema gupta said...

"very beautifully written and presented"
Regards

Power of Words said...

sach kaha rakshanda ji

बालकिशन said...

विचारोत्तेजक पोस्ट है.
आपसे पूरी सहमती है.

L.Goswami said...

rauby unse kaho apne sare anubhaw aur apni kahani aur drd likh dalen phir use ek kahani ki shakl me chhpwa den .isse unhe aatmik santi milegi.tum unki help kar sakti ho kyonki tum khud ek lekhak ho.bas yahi ek antim rasta hai.

डा. अमर कुमार said...

.


हाज़िर हूँ, मोहतरमा
चलिये कहानी के तौर पर नहीं लेता..
लेकिन.. एक नुक्ते पर आप ख़ामोश हैं,
क्या वज़ह है कि तालीम से ख़वातीनों को महरूम
रखने की कोशिशें, यहाँ क्या, तक़रीबन हर मुस्लिम
मुल्क़ में तारी हैं । तालिबान तो ख़ैर एक बेहूदा किस्म
की मिसाल होगी, पर बाकियों के मुतल्लिक़ आपके
ख़्यालात याकि दलीलें जानने की ख़्वाहिश है ।
चंद दिनों की दीनी तालीम ही इस्लाम ने इन बेचारियों
के लिये मुकर्रर कर रक्खा हैं...
सवाल कुछ संज़ीदा सा है, ज़वाब दरियाफ़्त न करूँ,
तो करार भी तो न आयेगा !

rakhshanda said...

आपका सवाल जायज़ है,और कुछ हद तक सही भी है,तकरीबन सारे मुस्लिम मुमालिक में ओरतों की तालीम का प्रतिशत काफी कम है,शायद इसकी वजह मज़हब से ज़्यादा ख़ुद मुस्लिम समाज जिस में मर्द और ओरत दोनों को शामिल किया जासकता है,का तालीम से दूर रहना रहा है,जैसे जैसे मुस्लिम समाज तालीम याफ्ता होता गया, उन्हें तालीम और ख़ास कर ओरतों की तालीम की अहमियत का अंदाजा होता गया,उन्हें समझ में आ गया की एक जाहिल ओरत एक अच्छी माँ चाह कर भी नही बन सकती, तालीम याफ्ता माँ ही आने वाले दिनों में अपने बच्चों को तरक्की की राहों में गामज़न कर सकती है,और इस सोच ने काफी तब्दीली का अहसास कराया है,मैं मानती हूँ की अब भी हम बाकी कौमों की तुलना में तालीम के मामले में काफी पीछे हैं लेकिन तब्दीली काफी तेज़ी से आरही है..ये मैं महसूस कर सकती हूँ. हाँ, इतना ज़रूर है की आज भी मुस्लिम वालदैन बेटियों को शहर से बाहर पढने के लिए भेजते हुए डरते हैं, जो उनकी तरक्की के रास्ते में काफी मुश्किलें हायल करता है, परदा कभी तालीम की राह में रुकावट नही बना,परदा कर के भी लडकियां सब कुछ कर सकती हैं लेकिन जिस तरह का परदा हमारे यहाँ करवाया जाता है वो ज़रूर रुकावट बनता है,फिर भी....उम्मीद की खिड़की खुली है,और हवाओं को आने से कोई नही रोक सकता...वो तो आएँगी...ज़रूर आएँगी.इंशाल्लाह
बहुत शुक्रिया अमर जी...thank u

अंगूठा छाप said...

आदरणीय अमरजी,


आप आए, बहार आई....

Manjit Thakur said...

१७ विस्फोटों से क्या मतलब है जनाब? विस्फोटो की श्रृंखला यहीं से शुरु क्यों.. विस्फोट उससे पहले भी हुए हैं.. होते रहे हैं। कहां तक गिनेंगे.. अक्षरधाम, पहलगाम, बनारस.. धमाके होते रहे हैं। हीरोशिमा और नागासाकी को भी गिने लें.. लड़ना आदमी की फितरत में है। हम कई तरह से कई तरह की चीज़ों के लिए लड़ते हैं।
बमों से लड़ो, तलवार से दांतों से किटकिटा या नखों से....
झड़ गई पूंछ रोमांत झड़े, पशुता का झड़ना बाकी है,
बाहर-बाहर तन संवर चुका, मन अभी संवरना बाकी है।

मानवता का इतिहास दरअसल लड़ाईयों का इतिहास है, विचारिएगा।
सादर

Manjit Thakur said...

गलत कमेंट चला गया मोहतरमा, मुआफ़ी फ़रमाइएगा। वैसे, रक्षंदा जी लगातार पढ़ रहा हूं आपको, बीच-बीच में आए अंग्रेजी के लफ़्ज परेशान करते हैं। शायद इसी वजह से ग़लत कमेंट गया है।

मुनीश ( munish ) said...

SO be it . may god bless! Anyway y r u alvez fuming n fretting , lamenting the sorry state of things around us! itz a beautiful world out there n u r alvez cribbing, why? will this discussion make her life better? think positive baby n keep ur spirits high. if u know something about Pasta, noodles or simply rice please tell me that as well and i'll thank u for that.

समय चक्र said...

सही है.

admin said...

सच में शिक्षा का कोई विकल्प नहीं है।

ज़ाकिर हुसैन said...

मोहतरमा बात तो तुमने सारी ठीक ही लिखी है
फिर भी दर्द तो दर्द ही है....
खैर जो भी है ... ये तो मानने वाली बात है कि मुसलामानों में भी अब लड़कियों कि तालीम पर ध्यान दिया जा रहा है. रही इससे महरूमों कि बात तो लड़कियां ही नहीं लड़कों कि भी बड़ी जमात इस लाइन में शामिल है
मुसलामानों की अशिक्षा के कई कारण रहे हैंजिनमे धार्मिक, राजनितिक, आर्थिक सभी मौजूद हैं
तुमभी ये बात अच्छी तरह समझ सकती हो
वैसे भी विकास क्रम में पिछली पीढियां अगली पीढियों से हमेशा पिछडी रही हैं
दुआ करों की अब कोई लड़की तालीम से महरूम न रहे

अजित वडनेरकर said...

अच्छा लिखती हैं आप।
कोशिश रहेगी कि अक्सर आना हो।

ilesh said...

kuchh juban sisakte rehte he...sach kaha aapne...

Pragya said...

aasmaan hote hue bhi nahi ud paane ka dard!! aah... bas ek aah hi nikal sakti hai...
bahut achha!!
pahli baar aapke blog par aayi... kamaal likhti hain aap..

rakhshanda said...
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डा. अमर कुमार said...

.


बस यहाँ तुम कमज़ोर पड़ती दिख रही है,
मुनीष या किसी को भी संबोधित ज़वाब हटा लेने का मतलब ?

मैं तो अपनी बेटी को भी सिखलाता हूँ,
कि लड़ना सीख..वरना दुनिया तुम्हॆं खा
जायेगी । मेरा बेटा वहाँ चीन में रह कर
भी तिब्बतियों संहार पर असहमति स्वरूप
अपने को ओलंपिक से असंपृक्त कर रखा
है । खैर यह मेरा मसला नहीं है.. यह तो
मेरी असहमति थी, सो दर्ज़ करा दी ।

मेरा ब्लाग ही असमत मौन को मुखर
करने को लेकर केंद्रित है, क्या करें ?

L.Goswami said...
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मुनीश ( munish ) said...
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