Wednesday, August 13, 2008

एक सुबह को छू कर देखा......


गुलामी किसी नासूर की तरह होती है. ये दर्द वही समझ सकता है जिसने इसका दर्द सहा हो. जिल्लतों और वहशतों का वो दर्दनाक दौर जो हम ने सौ साल तक झेला है, उसका अहसास हमारी नस्लों को हमेशा याद रहेगा और रहना भी चाहिए. 
इसीलिए १५ अगस्त की ये मुबारक सुबह जब तुलू होती है तो रग-रग में एक अजीब सी सरखुशी का अहसास हिलकोरे लेने लगता है. 
कभी १५ अगस्त की सुबह बाद-ऐ-नमाज़ बाहर निकल कर एक बार माहौल का जाएजा तो लीजिये. 
ऐसा लगता है जैसे सारा माहौल ही फसूं खेज़(जादुई) हो गया हो. 
बाद-ऐ-सबा सब से पहले आपके चेहरे को धीरे चूम कर इस मुबारक लम्हे कि मुबारकबाद देती है. 
फूलों की खुशबू कुछ और ही पैगाम देती महसूस होती है. ये वो पैगाम तो हरगिज़ नही होते जो आप रोज़ महसूस करते हैं. 
हद्दे निगाह तक फैला हुआ सब्ज़ा आज़ादी की कीमत का अनोखा अहसास कराता दिखाई देता है. 
हम आजाद हैं, हम ने गुलामी के नासूर को जड़ों से काट कर हमेशा के लिए अलग कर दिया है और आज हम जिस माहौल में साँस ले रहे हैं वो हमारा है. दायें बाएँ ऊपर नीचे, सिर्फ़ हमारा, रेशे रेशे पर सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारा हक है. 
दरख्तों पर चहचहाते परिंदे सिर्फ़ यही नगमे सुनाते हैं. 
आपकी आँखें किसी नशे के अहसास में बंद होती चली जाती हैं. हाँ,
आज़ादी का अहसास ही ऐसा होता है. इसका नशा दुनिया के हर नशे से जायदा ताक़तवर होता है. 
आपकी आँखें बंद हैं लेकिन आपके अन्दर एक दुनिया सी आबाद हो रही है. अन्दर और बाहर फजाओं में आज़ादी के नगमे से गूंजते सुनाई देते हैं. 
आप महसूस तो कीजिये. आपको बहुत सारी आवाजें आपस में गडमड होती महसूस होंगी. आपकी रग-रग में उमंगें सी भरती चली जायेंगी. 
रोएँ रोएँ में जोश का अनोखा अहसास आपके अन्दर कुछ कर गुजरने की ताकत पैदा करता महसूस होगा. 
आवाजें नुमायाँ होती जा रही हैं. 
वो कह रही हैं. हाँ, यही तो कह रही हैं. ‘’ज़रा देखो, महसूस करो, तुम आजाद हो, हर डर हर खौफ से आजाद. तुम किसी को जवाब देह नही हो. इस  वतन की मिटटी का एक-एक ज़र्रा तुम्हारा है. 
ज़रा इस मिटटी को गौर से देखो’’…आप हैरान रह जाते हैं. आँखें खुल जाती हैं. नीले आसमान में हलकी हलकी सुर्खियाँ शामिल हो रही हैं. 
आवाजें कहाँ से आरही हैं? 
, आप मिटटी उठाते हैं, गौर से देखते हैं, ठंडक का फरहत बख्श अहसास आपके तन-मन में फैल जाता है. 
आप देखते चले जाते हैं.
आवाजें शायद मिटटी से ही आरही थीं.’’ मुझे देखो, आवाज़ फिर आती है. ‘’ मैं तुम्हारे इस आजाद वतन की मिटटी हूँ , जिस आज़ादी को तुम महसूस कर रहे हो वो इतनी आसानी से तुम्हें नसीब नही हुयी है, बड़ी कुर्बानियों के बाद मिली है. 
आप देखते चले जाते हैं,
मिटटी सुर्ख हो रही है.’’ये देखो, आवाज़ फिर उभरती है.’’ये उन मतवालों के खून कि सुर्खी है जिन्होंने अपने खून बहा कर इस मिटटी को आजाद कराया. वो किसी एक मज़हब के नही थे. हर मज़हब के थे लेकिन उनका पहला मज़हब अपने वतन कि आज़ादी था. इसकी कीमत समझो. अब ये मिटटी तुम्हारी है. इसकी हिफाज़त अब ख़ुद तुम्हें करनी है. इस धरती के बच्चे बच्चे को करनी है. 
आप मिटटी को किसी जोश के तहेत मुठी में भींज लेते हैं. रग-रग में तमानियत का अहसास जागता चला जाता है. 
हाँ, अब इस मिटटी कि हिफाज़त हमें ख़ुद करनी है. 
एक बार माहौल का जायेज़ा तो लीजिये. 
चारों तरफ़ आज़ादी के नगमे बिखर रहे हैं. एक अनोखी सुबह का नूर हर तरफ़ बरस रहा है. 
आज़ादी मुबारक हो, फिजायें झूम झूम कर कह रही हैं. 
आज़ादी कि सुबह का सुनहरा सूरज तुलू हो रहा है. 






(कभी महसूस किया है आपने? अगर नही तो बाखुदा महसूस कर के देखिये,इस अनोखी सुबह का नशा आपकी नस-नस में उतर जायेगा. आप सभी को आज़ादी के मुबारक दिन की ढेर सारी पेशगी मुबारकबाद)

18 comments:

Kavi Kulwant said...

Bahut khoobsurat likha hai aapne..
niraale andaaz se..

vineeta said...

bahut accha liha hai aapne. baat dil ko choo gyi..bahaai...

admin said...

बहुत प्यारी कल्पना है। सर्वथा मौलिक।
आपकी रचना पढकर जाने माने कवि बाबूलाल शर्मा प्रेम की एक कविता याद आ गयी- चाँदनी को छू लिया है, हाय मैंने क्या किया है?

डॉ .अनुराग said...

भगत सिंह ने अपने बड़े भाई को चिट्ठी में लिखा था ...भाई मुझे दुःख है मै अपने माँ बाप के लिए कुछ न कर पाया ...इस छोटे के लिए कुछ न कर पाया ...मुझे माफ़ करना ......
राजगुरु की माँ ने उन्हें मजदूरी करके पाला पोसा था ....
मेरी कालोनी में एक परिवार ऐसा है जिसका एक लड़का कश्मीर में शहीद हुआ ओर दूसरे का पूरा चेहरा बम्ब की वजह से ख़राब हो गया है ,सुनने की क्षमता नही रही पर आर्मी से जुड़े रहना चाहता है परिवार.......ढेरो लोगो का कर्ज है हम पर....ढेरो लोगो का...

कुश said...

बढ़िया अंदाज़ है.. ऐसा कई बार महसूस भी किया है..

लेकिन ये बाद-ऐ-सबा कौन है जिसने मुझे चूमा भी है और मुबारकबाद भी दी है.. सोचता हू शाम को घर जाते हुए एक उर्दू डिक्सनरी भी लेता जौ.. क्योंकि आजकल आप साथ में हिन्दी का अर्थ नही लिखती..

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही सुन्दर लेख लिखा हे, लेकिन क्या सच मे हम अपने बुजुर्गो की मेहनत ओर कुर्बानियो से मिली इस आजादी को उन के सपनो के अनुसार मानते हे? देखते हे? हमारे बुजुर्गो ने मिल कर आजादी हासिल की थी ओर आज हम मिल कर इसे गवांना चाहते हे, हमारे बुजुर्ग हिन्दु, मुस्लिम सिख इसाई बाद मे थे पहले भारतीया थे, ओर मिल कर लडे थे अग्रेजो से, ओर आज हम हिन्दु, मुस्लिम, सिख ओर इसाई मिल कर तो लड रहे हे? लेकिन अपिस मे नही उन अग्रेजो से मिल कर अपनो से लड रहे हे,ओर यह कदम हे फ़िर से गुलामी की ओर.... जागो अभी भी वक्त्त हे.
मिल कर इस देश को आगे बढयो, सिर्फ़ बधाई ओर मुबारकबाद दे कर अपना अपना फ़र्ज पुरा मत करो
धन्यवाद आप की हर पोस्ट मे मॆ भावुक हो जाता हु, बहुत अच्छी बाते लिखी हे आप ने

Ila's world, in and out said...

कितने खूबसूरत अहसास डाले हैं आपने.सच बताऊं,ये अह्सासात मुझे गहरे तक छूते हैं,बस आपकी तरह लफ़्ज़ों में बयां नहीं कर पा रही थी.जश्ने-आज़ादी की बधाई.

L.Goswami said...

हमारी भी बधाई पेशगी में ले लिए जाए.

रंजू भाटिया said...

इसको पढ़ कर कई एहसास जाग उठे हैं ..खुबसूरत लफ्जों में आजादी के जश्न का आह्वान है ..बधाई आपको

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

रक्षाँदा जी ,
"आज़ादी"
कुदरत से जुडी हर ज़िँदा शख्शियत को बेहद पसँद होती है !
.आपने बहुत खूब लिखा है :)
इस मौके पे,
सभीको आज़ादी का जश्ने बहाराँ , महफिलेँ याराँ का गुलिस्ताँ आबाद रखने का पैगाम दिया जा रहा है
आपके आगाज़ से ...
- लावण्या

Udan Tashtari said...

सटीक!!बहुत ही बढ़िया.

स्वतंत्रता दिवस की आपको भी बहुत बधाई एवं शुभकामनाऐं.

PREETI BARTHWAL said...

स्वतंत्रतादिवस के अवसर पर बधाई
बहुत बढिया एहसास के साथ बधाई ।

Syed Hyderabadi said...

जश्ने-आज़ादी की मुबारकबाद क़बूल फ़रमाएँ , अल्लाह करे के आप हम और तमाम भारत वासी इस साल और आने वाले तमाम सालों में सुख और शान्ति से भरपूर ज़िन्दगी गुजारें , आमीन !

समयचक्र said...

सुन्दर लेख लिखा हे..बधाई.

rakhshanda said...

शुक्रिया कुश,और बाद-ऐ-सबा का मतलब सुबह यानी भोर की वो पहली हवा है जो बहुत ही प्यारी होती है.

rakhshanda said...

आप सब को १५ अगस्त की तहे दिल से मुबारकबाद, और बेहद शुक्रिया.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

जश-ऐ-आज़ादी के एहसास को हमे अपनी रूह में उतार लेनी चाहिए ताकि हर नए सवेरे हम एक उम्दा संकल्प ले और उस पथ पर निरंतर बढे .
अच्छी रचनाओ का सदैव स्वागत है.
--सुलभ
http://sulabhpatra.blogspot.com/

Abhishek Ojha said...

देर से ही सही... शुभकामनायें और बधाई ! बहुत अच्छी पोस्ट है !