Monday, May 5, 2008

तन्हाई की ये कौन सी मंजिल है रफीको ?


कहते हैं शामें अकसर उदास कर दिया करती हैं.खासकर जाते हुए दिन के उजाले,आते हुए अंधेरों से जब गले
मिलते हैं तो जाने क्यों दिल अपने आप उदास हो जाया करता है.
जिंदगी की शामें तो इन शामों से भी अजीब होती हैं.
ये शामें तो अपने साथ उदासियों के साथ साथ ढेर सारी तन्हाइयां भी ले कर आती हैं.
बात कुछ महीनों पुरानी है,अखबार में शहर के पन्ने पर एक ख़बर कुछ यूँ थी. डालनवाला इलाके में एक बुजुर्ग
दम्पति मिस्टर एंड मिसेज़ कपूर की हत्या---
ख़बर तफसील(डिटेल)से कुछ यूँ थी कि डालनवाला इलाके में अपने बंगले में दोनों पति पत्नी की हत्या रात के
किसी समय कर दी गई. हत्या के अगले दिन दोपहर तक किसी को इस वारदात का पता नही चला.करीब चार बजे पड़ोस की मिसेज़ ओबराय किसी काम से उनके गेट के अन्दर गयीं,बंगले में चारों तरफ़ खामोशी थी.उन्होंने दोनों को कई आवाजें दीं.उन्हें ये देख कर भी हैरानी हुयी कि उस दिन का अखबार अभी तक घर के बाहर ही पड़ा हुआ है. तभी उनकी निगाह ड्राइंग रूम के दरवाज़े के नीचे से आती हुयी खून की पतली धार पर पड़ी जो अब जम चुकी थी. ये देखते ही वो चीखने लगीं.उनकी चीख से पड़ोस के और लोग जमा हो गए.
पुलिस को इत्तेला (ख़बर)दी गई.दरवाजा खोला गया तो अन्दर जिंदगी के सारे निशान मिट चुके थे.
बड़ा ही भयानक मंज़र था.
श्रीमती कपूर की लाश किचन के बाहर पड़ी थी तो मिस्टर कपूर ड्राइंग रूम के सोफे के करीब खून से लथ-पथ
पड़े हुए थे.
अखबार में उनके ड्राइंग रूम का मंज़र दिखाया गया था.वो मंज़र(दृश्य)मुझ से आज तक नही भूलता.
हाँ,हमारी उनसे अच्छी पहचान थी.वो अकसर हमारे घर आया करते थे.
दोनों पति पत्नी बहुत ही मिलनसार और खुश मिजाज तबियत के मालिक थे.ज़िंदगी से भरपूर.
हर कोई उनकी इस दर्दनाक और दुर्भाग्य पूर्ण मौत पर आंसू बहा रहा था.लेकिन अफ़सोस कि इन आंसू बहाने
वाली आंखों में उनके अपने बच्चों की आँखें नही थीं.
आंसू बहाने वाली वो आँखें थीं तो लेकिन सात समंदर पार,कपूर अंकल के दोनों बेटे फैमिली समेत अमेरिका में
मुकीम हैं.
उन्हें इस सानिहे(दुर्घटना)की इत्तेला (ख़बर)तो फ़ौरन दे दी गई थी लेकिन वो इतनी जल्दी कैसे सकते
थे.कितनी अजीब बात थी,अभी कल तक सब के नजदीक वो दुनिया के खुश किस्मत तरीन इंसानों में से एक थे.
दोनों बेटे बहुत कम उमरी(कम आयु)में तरक्की की सीढियां चढ़ते हुए अपनी अपनी मंजिल पा चुके थे.एक डॉक्टर
था तो दूसरे ने मैनेजमेंट में डिग्री ली हुयी थी.
डालन वाला देहरादून के पोश इलाकों में से एक जाना जाता है.वहां अपने खूबसूरत बंगले में दोनों हँसी खुशी जिंदगी
गुज़ार रहे थे.
साल में एक बार बेटे परिवार समेत माँ बाप से मिलने आजाया करते थे. दो बार कपूर अंकल और आंटी बेटों के
पास अमेरिका भी हो आए थे.देखा जाए तो उनकी खुश नसीबी पर किसे शक हो सकता था.
बहरहाल पुलिस ने अपनी तरफ़ से पूरी तफ्तीश(छान बीन) की और इसे कभी लूट के इरादे से की गई वारदात तो
कभी जायदाद के कागज़ हासिल करने के लिए किया गया क़त्ल बताती रही.
दोनों बेटे आए,उन्होंने भी अपनी तरफ़ से पूरा ज़ोर लगाया लेकिन पुलिस कुछ ख़ास कामयाबी हासिल नही कर
पायी.
ये कोई नई बात नही है . देहरादून सेटल होने के बाद ऐसे कई केसेस ख़ुद मेरी नज़रों से गुज़रे हैं.
पहले के केसेस में भी ऐसा ही होता रहा है.
क़त्ल होने वाले ऐसे ही तनहा बुजुर्ग थे,और कातिल बहुत कम पकड़े जासके हैं।
देहरादून में हर चौथे पांचवें घर के बेटे और बेटियाँ विदेशों में जिंदगी गुजार रहे हैं.ये इस शहर का बड़ा अजीब सा
सच है.अच्छे स्कूलों के लिए मशहूर इस शहर में दूर दूर से लोग बच्चों की अच्छी एजुकेशन के लिए आते हैं और इस शहर को अपना लेते हैं.
दसवीं और बारहवीं यानी स्कूली शिक्षा के बाद इस शहर में बच्चों के लिए कोई ख़ास स्कोप नही है लेकिन हाई
एजुकेशन के लिए बुनियाद यहाँ के अच्छे स्कूल ही उन्हें मुहैया कराते हैं.
ये उसी बुनियाद का नतीजा है कि यहाँ पढे बच्चे ऊंची-ऊंची डिग्रियाँ लेकर विदेशों में अच्छी जॉब पा जाते हैं.
जिस घर के बच्चे विदेशों में सेटल हैं उन्हें रश्क भरी निगाहों से देखा जाता है.
अहाँ आने वाले सभी माँ बाप का सपना अपने बच्चों का अच्छा मुस्तकबल(भविष्य)होता है और अच्छे
मुस्तकबल का मतलब आज के आधुनिक होते समाज के बच्चों और कभी कभी माँ बाप के लिए भी विदेश में ऊंची जॉब पाना ही है.
एक ज़माना था जब दून को रिटायर्ड लोगों का शहर माना जाता था.ख़ास कर मिलिटरी के ज़्यादा तर रिटायर्ड
लोग अपनी बकिया(बची)जिंदगी सुकून से बिताने के लिए इस शहर में बसेरा कर लिया करते थे.
शांत और खूबसूरत माहौल,हसीन मौसम और सादा से मिलनसार लोगों के बीच रहना हमेशा से पसंद रहा है लोगों
को.
इसके बाद अच्छे स्कूलों की वजह से ये पढने वाले बच्चों के वालिदैन( माता,पिता) की पसंद बनता चला गया.
वक़्त ने तब करवट बदली जब ये शहर नए स्टेट की राजधानी बन गया.
तरक्की तो काफी हुयी,लोगों को रोज़गार मिला तो दूर दूर से लोग आकर यहाँ बसने लगे.
लेकिन ये शांत सा शहर अशांत होता चला गया.
जहाँ अपराध के मामले कम से कम सुनने को मिलते थे वहां दिन दहाड़े जुर्म की घटनाएं होने लगीं.
और ऐसे में सब से ज़्यादा असुरक्षित हो गए ये तनहा जोड़े.
अभी एक साल भी नही हुआ जब ऐसे ही हालात में मसूरी में एक बुजुर्ग दम्पति को रात के अंधेरे में क़त्ल कर
दिया गया था.
मि. कपूर की तरह ही उनके दोनों बेटे विदेश में थे और बेटी मुम्बई में ब्याही थी.
कहा जा सकता है कि ये हमारी राज्य सरकार और पुलिस प्रशासन की नाकामी है कि बार बार ऐसे जुर्म दोहराए
जा रहे हैं लेकिन क्या सिर्फ़ उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?
क्या अपने बुजुर्गों के प्रति हमारे बच्चों की कोई ज़िम्मेदारी नही बनती?
अच्छी नौकरियां पाना और डॉलर भेज कर माँ बाप के प्रति जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेना काफ़ी है?
यही तो वो बच्चे हैं जिनकी उंगली पकड़ कर दुनिया की सर्द--गरम से बचाते हुए माँ बाप ने उन्हें पूरी
हिफाज़त से बड़ा किया था.
माली की तरह दिन रात अपने खून पसीने से सींच कर जिस पौधे को बड़ा किया,वही पौधा जब फलने फूलने
लगा,जब उसकी घनी छाँव में सुस्ताने का वक़्त आया तो वो पेड़ बन कर अपनी छाँव देने कहीं और जा बसा.
बेचारा माली,उस पेड़ पर लगे फूलों और फलों को तसव्वुर (कल्पना)की आंखों से देख कर खुश होता रहता है.
उसकी घनी छाँव की ठंडी राहत को तन्हाई की चिलचिलाती धुप में बस महसूस ही कर सकता है.
गलती सिर्फ़ हमारे बच्चों की नही है.ये हम ही हैं जो ऐसे सुनहरे ख्वाब ख़ुद देखते हैं और अपने बच्चों को दिखाते
हैं.
अभी कुछ महीनों की बात है,हमारी ममा माली बाबा से मस्रूफियत(व्यस्तता)का रोना रो रही थीं.तब माली बाबा
ने मुस्कुराते हुए कहा था,''अरे मैडम ,बस कुछ दिन की बात है,देखना बच्चे बड़े होंगे और चिडियों की तरह इंग्लैंड या अमेरिका उड़ जायेंगे.यहाँ इस शहर में यही होता है,फिर तो आप बूढे बूढी तन्हाई का रोना रोया करेंगे.''
ममा को उनकी इस बात ने जैसे बेतहाशा खुशी दी थी.तभी मुस्कुराते हुए कहने लगी थीं, ''बस बाबा आप दुआ
करें,इन बच्चों की खातिर ही तो यहाँ कर बसे हुए हैं.''
ये सिर्फ़ मेरी ममा का नही,यहाँ रहने वाले हर वालिदैन(माता,पिता) का ख्वाब है.
ये तो आने वाला वक़्त बताता है कि ये खूबसूरत ख्वाब रेगिस्तान में सेराब(पानी का धोखा)की तरह है.जो देखने
में बहुत हसीन लगता है लेकिन जो ताबीर में देता है सिर्फ़ अकेलापन.
आप कह सकते हैं कि जिन वालिदैन के बच्चे उनके साथ रहते हैं वही कौन सा खुश हैं. ये भी कि आज के दौर में
दूरी का फर्क कहाँ रहा,मोबाइल ,इंटरनेट और वेबकैम के ज़रिये हम पल पल की खुशियाँ आपस में बाँट सकते हैं.लेकिन मैं कहती हूँ कि सिर्फ़ खुशियाँ...
तन्हाइयां और दुःख बांटने का काम कोई मोबाइल कर सकता है ही इंटरनेट और वेबकैम.
मैं मानती हूँ कि बेहिस(संवेदनहीन)बच्चों के साथ रहते हुए भी बुजुर्ग अपने आप में तन्हा हो जाते हैं.लेकिन
सिर्फ़ मन से.
ये भी ज़रूरी नही कि सारे बेटे और बेटियाँ बेहिस ही हों.अच्छे और बुरे यहाँ भी होते हैं.
लेकिन इंसान असुरक्षित तब महसूस करता है या हो जाता है जब वो तन्हा हो.
मुझे याद है एक बार कपूर आंटी से ममा ने कहा था,''भाभी आज के टाईम में देहरादून क्या,मुम्बई क्या और
अमेरिका क्या,दूरियों का तो फर्क मिट गया है,'' तब कपूर आंटी के चेहरे पर जैसे दर्द के तारीक(अंधेरे)साए आकर ठहर गए थे.उनका जवाब मुझे आज भी याद है, उन्होंने कहा था, ''ऐसा नही है सारा ,सहूलत बहुत हो गई है पहले के मुकाबले में लेकिन पता नही क्यों,कभी कभी ऐसा लगता है कि ये सहूलतें प्यास और बढ़ा देती हैं.''
बड़ी हसरतें छिपी थीं उनके लहजे में.
सच ही तो है,क्या कानों में आती आवाजें,कंप्यूटर स्क्रीन पर हँसते और बोलते चेहरे कुरबत(नजदीकी)का वो
अहसास दे सकते हैं जो एक माँ अपने बेटे को सीने में छिपाते हुए महसूस करती है?
या एक दादा और दादी को पोते पोतियों,निवासे निवासियों की शरारतों से हासिल होता है?
क्या ये नकली आवाजें,ये तस्वीरी चेहरे बेबसी की मौत मरते हुए माँ बाप को बाहर निकल कर बचा पायी थीं?
कितनी अजीब बात है,अपने बच्चों की नाज़ुक ऊँगली पकड़ कर दुनिया की हर मुश्किलों का सामना करने वाले
वालिदैन उन नाज़ुक हाथों को मज़बूत बनाते बनाते जब ख़ुद कमज़ोर हो जाते हैं,जब उन हाथों में अपने लिए सहारा तलाश करने लगते हैं तो अहसास होता है कि वो मज़बूत हाथ तो उनके आस पास भी नही.क्योंकि वो हाथ तो डॉलर की तलाश में हजारों मील दूर जा चुके हैं.
पास बची हैं फ़क़त (सिर्फ़) तन्हाइयां.
सिर्फ़ तन्हाइयां.......

25 comments:

डॉ .अनुराग said...

इस विषय पर कुछ दिन पहले भी मैंने अपने एक अनुभव से बताया था ...हमारे यानि की डॉक्टर तबके मे आजकल एक joke चलता है की क्या फायदा अपने आप को जलाकर भाग दौड़ करके मेहनत से पैसा कमाने ओर प्रोपर्टी जुटाने का ,बेटा बड़ा होकर विदेश चला जाएगा ओर आपके मरने पर १५-२० दिन की छुट्टी लेकर आयेगा ओर उसी मे आपकी तेरहवी ओर प्रोपर्टी बेचकर डॉलर मे कनवर्ट करके वापस चला जायेगा,ये एक बुजुर्ग डॉक्टर की सलाह थी मुझको ....ओर ये हकेकात भी है हमारे शहर की एक पोश कालोनी साकेत मे मैंने अपनी आंखो से ४ किस्से पिछले ६ महीनों मे देखे है.....मैं भी ख़ुद u.K जाने वाला था ....पर एक सुबह एक बूढे- बुढिया को अपनी गाड़ी से रिक्शा मे डोक्टर के यहाँ जाते देखा ....तो विचार त्याग दिया .....पर इसका ये मतलब नही की बाहर रहने वाले सरे सवेंदान्हीन होते है पर एक उम्र मे जाकर कोई इन्सान अपना ठिकाना आसानी से नही बदलता ओर दूसरा इस तरक्की के कुछ मूल्य इन हमे ओर हमारे समाज को चुकाने होगे....इसलिए अब लोग फ्लेट्स मे रह रहे है कि अकेला पं न लगे ओर सुरक्षा भी रहे........अजीब है न...सब.......

कुश said...

samaj ka ek kadwa sach prastut kiya hai aapne..

Abhishek Ojha said...

अच्छी पोस्ट... पर सभी एक जैसे नहीं होते... मैं मानता हूँ कि समस्या है पर बाहर जाना कई बार कैरियर के लिए जरूरी होता है और सभी एक जैसे नहीं होते हैं...
वैसे रफीको का मतलब क्या होता है?

राजीव रंजन प्रसाद said...

बहुत अच्छी पोस्ट है, गहरे सोचने को बाध्य करती है..

***राजीव रंजन प्रसाद

mamta said...

बहुत अच्छी पोस्ट और सच भी है। दिल्ली मे तो आय दिन ऐसे हादसे होते रहते है।

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत अच्छा आलेख है। आप की भाषा में उर्दू शब्दों ने इसे और भी वजनदार बना दिया है। यह इस युग की विडम्बना है, कि रोजगार के अवसरों ने हमारे संयुक्त परिवार को विच्छिन्न कर दिया है। बुजुर्ग अकेले जीवन व्यतीत करने को बाध्य हैं, दूसरी और जहाँ पति-पत्नी दोनों काम कर रहे हैं वहाँ बच्चे भी उन का अभाव झेल रहे हैं। न जाने कब और कैसे इस विडम्बना का विकल्प मिलेगा?

Admin said...

आपके लेखन का उत्कृष्ट नमूना...

बदलते समाज में कोई किसी से मतलब नहीं रखना चाहता. यह उसी व्यवस्था का परिणाम है. अगर हम लोगों से जुडे रहें, आसपास सम्पर्क बनाये रखें और लोगों के सुख दुःख में काम आते रहें तो शायद ऐसी घटनाएँ कम हो सकती हैं.. करियर के लिए घर से दूर जाना नई बात नहीं है.

Manish Kumar said...

बड़ी अज़ीब त्रासदी है। खुद माँ बाप बच्चों को तरक्की की सीढ़ियों पर चढ़ाते हैं उनमें जीवन में सफल होने की प्रेरणा जगाते हैं और अंततः ये प्रेरणा ही बच्चों को माता पिता से भौगोलिक रूप से दूर कर देती है।

और उनकी झोली में आ जाता है वही एकाकीपन !

bhuvnesh sharma said...

इस भयानक तन्‍हाई को मैंने भी महसूस किया है. चूंकि मैं अभी भी अपने परिवार के साथ गृहनगर में ही र‍हता हूं. जबकि मेरे बहुत से दोस्‍त करियर की दौड़ में बाहर चले गये. यहां के लोगों में एमबीए और इंजीनियरिंग का ज्‍यादा क्रेज है और मेरे ज्‍यादातर मित्रों ने भी यही किया है. अक्‍सर जब सड़कों पर घूमता हूं तो पुराने दिन याद आते हैं जब कदम-कदम पर कोई ना कोई दोस्‍त मिल जाया करते थे और हम खूब मस्‍ती करते थे. पर अब तो दो-चार ही बचे हैं और वो भी खुद के काम-धंधों में मसरुफ. शहर की शामें कभी कभी भुतहा लगती हैं.

ऐसे मे उन मां-बाप पर क्‍या बीतती होगी जिनके बच्‍चे उन्‍हें सदा के लिए छोड़ गये हैं.

बहुत अच्‍छा लेख लिखा आपने इस विषय पर. मैं भी इस पर लिखने के बारे में सोच रहा था पर आलसी हूं.

आपकी आज की पोस्‍ट के बारे में एक बात बताना चाहूंगा कि पाकिस्‍तान की एक लेखिका हैं- जाहिदा हिना. दैनिक भास्‍कर के रविवा‍रीय अंक में उनका पाकिस्‍तान डायरी छपता है. उनकी और आपकी शैली में काफी समानता नजर आती है. खासकर इस पोस्‍ट में.

वैसे जानना चाहूंगा कि क्‍या आप भी एक लेखिका हैं ?

राज भाटिय़ा said...

अरे आप ने तो मेरी कहानी ही लिख दी,मे भी एक ऎसा ही व्यक्ति हु, जो सिर्फ़ फ़ोन पर ही दुया सलाम, ओर सेवा कर सकता हॊ मां वाप की,३,४ साल मे कभी भारत मे आ गये तो ३,४ सप्ताह उन के पास रह लिये, ओर २ सप्ताह ससुराल मे रह लिये,बस इसी वक्त मे गिले शिकवे ही पुरे नही होते,ओर बार बार हर साल आ भी नही सकते,बच्चो का भी देखना पडता हे,ओर सब कुछ छोड कर भी एक दम से नही आ सकते,मां वाप को अपने पास ३,४ महीनो से ज्यादा रख भी नही सकते, दुसरा उन का दिल भी यहां नही लगता,एक दम अलग से, भारत मे सभी के बीच रहने बालो को तो यहां बहुत ही मुस्किल होती हे, बस अब क्या लिखु जब कभी कोई चिंता का फ़ोन आता हे तो हमे चिंता तो लगती हे, लेकिन इस के सिवा कुछ नही कर सकते, अगर अचानक आना भी पडे तो ज्यादा से ज्यादा १०, १५ दिनो के लिये ही आ सकते हे,
ओरो की तो मे नही जानाता, मेरा यह हाल हे कि धोबी का गधा ना घर का ना घाट का
फ़िर यहां (विदेश) मे रह कर आदते भी बहुत नाजुक बना देती हे,सब से बडी बात अगर हम अब भारत मे आये गे तो करेगे कया ?जमा पेसा कब तक चले गा,ओर फ़िर सोचते हे जब बच्चे बडे हो गे तो भारत मे आ जाये गे,लेकिन यह सिर्फ़ सोच ही हे,आ पाये गे या नही यह तो समय ही जानता हे, लेकिन मे तो यही सलाह दुगा अगर अपने घर मे रुखी भी मिलती हे तो उसी मे गुजारा करना सीखो, डालर ओर जुरो के चक्कर मे धोबी के गधे मत बनो,
मेरे जेसे कई लोग सोचते हे ५,१० साल काम कर के पेसा कमा कर वपिस आ जाये गे, लेकिन मेने किसी को वापिस जाते नही देखा,हमे भी मां वाप से भाई बहिनो ओर यार दोस्तो से प्यार होता हे , लेकिन बहुत सी मज्बुरिया हमे भी रोकती हे,आप ने बहुत अच्छा लिखा धन्यवाद

समय चक्र said...

बहुत अच्छी पोस्ट अच्छा आलेख है

मुनीश ( munish ) said...

very touching yet staighforward! only u cud've done it Rakhshanda ji . u have depth of an ocean unfathomable , yet so calm n serene!
y dont u ever come to my blog?

मुनीश ( munish ) said...

I mean there's no compulsion as such ,but suppose u r passing through...u may drop in sometime.

Udan Tashtari said...

बहुत अच्छा आलेख, चिन्तन को मजबूर करता है. बहुत बढ़िया.

उर्दू/हिन्दी प्रयोग बहुत भाता है. जारी रखें.

————————

आप हिन्दी में लिखती हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.

एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.

शुभकामनाऐं.

-समीर लाल
(उड़न तश्तरी)

राकेश खंडेलवाल said...

हमने जो रेखा खींची थीं, वे बींध रही हैं आज हमें
इस निविड़ अँधेरे में लहरें लौटेंगी खाली हाथ विवश
हम खुद ही तो अपराधी हैं, बिक जाने दिया रश्मियों को
मधुमास हमीं ने दुत्कारा दरवाज़े से कह कर नीरस
जो सपने देखे थे हमने, वह आज अगर सच होते हैं
तो फिर फ़ेनों में घिर घिर कर, कोई आकाश कलपता है?

rakhshanda said...

@अनुराग जी,मैंने ऐसा नही कहा कि विदेश में रहने वाले बेटे और बेटियाँ संवेदनहीन होते हैं,बिल्कुल भी नही,बल्कि कभी कभी उन बेटे और बेटीइयों से ज़्यादा संवेदनशील होते हैं जो अपने देश या अपने शहर में माँ बाप के साथ रहते हैं,लेकिन एक बार जब वो चले जाते हैं तो पीछे छूट जाने वाले रिश्तों को देखना भी चाहें तो नही देख सकते,उनकी ये मजबूरी देश में रहने वाले माता पिता के लिए दर्दनाक हो जाती है...काश ऐसा नही होता...आपने विदेश जाने का विचार त्याग दिया,जानकर बहुत अच्छा लगा,ऐसे लोग कम ही होते हैं जिन के दिल इतने हस्सास(संवेदनशील) हों,ऐसे लोगों को सलाम करने को जी चाहता है...

rakhshanda said...

@अभिषेक,बाहर जाना ज़रूरी क्यों होता है अभिषेक,ऐसी तरक्की भी किस काम की जो अपने माँ बाप से ही हमें दूर कर दे,
आप ने रफीकों का मतलब पूछा है,रफीकों का मतलब 'दोस्त जो दिल के बहुत क़रीब हो'

rakhshanda said...

@भुवनेश जी,सब से पहले थैंक्स,
हाँ,मुझे आप लेखिका कह सकते हैं,बचपन से ही कलम के कीडे ने जो काटा तो आज तक चैन नही लेने देता...हमेशा बेकरार ही रखता है...

rakhshanda said...

@राज जी,आप से पता चला कि आप विदेश में रहते हैं,ये भी अहसास हुआ कि दूरियां कितना मजबूर कर देती हैं,गलती किसकी है बच्चों की या माँ बाप की ,पता नही पर अंजाम बड़ा दुःख देते हैं,खुदा करे आप अपने माँ बाप के करीब रह सकें,कोई मजबूरी आपको रोक न सके...

rakhshanda said...

आप सब का दिल की गहराइयों से शुक्रिया,इतने प्यार का तसव्वुर भी नही किया था मैंने...जितना आप सब ने मुझे दिया है.thank u very very much

मुनीश ( munish ) said...

'A pretty cruel woman' would have been a better title 'cos u never respond to my comments.

मुनीश ( munish ) said...

'A pretty cruel woman' would have been a better title 'cos u never respond to my comments.

tarun mishra said...

जय श्री गुरुवे नमःसोचो जिसने तुम्हें सुंदर सृष्टि दी , जो किसी भी प्रकार से स्वर्ग से कम नहीं है , आश्चर्य ! वहां नर्क (Hell) भी है । क्यों ? नर्क हमारी कृतियों का प्रतिफलन है । हमारी स्वार्थ भरी क्रियाओं मैं नर्क को जन्म दिया है । हमने अवांछित कार्यों के द्वारा अपने लिए अभिशाप की स्थिति उत्पन्न की है । स्पष्ट है कि नर्क जब हमारी उपज है , तोइसे मिटाना भी हमें ही पड़ेगा । सुनो कलियुग में पाप की मात्रा पुण्य से अधिक है जबकि अन्य युगों में पाप तो था किंतु सत्य इतना व्यापक था कि पापी भी उत्तमतरंगों को आत्मसात करने की स्थिति में थे । अतः नर्क कलियुग के पहले केवल विचार रूप में था , बीज रूप में था । कलियुग में यह वैचारिक नर्क के बीजों को अनुकूल और आदर्श परिस्थितियां आज के मानव में प्रदान कीं। शनै : शनैः जैसे - जैसे पाप का बोल-बालहोता गया ,नर्क का क्षेत्र विस्तारित होता गया । देखो । आज धरती पर क्या हो रहा है ? आधुनिक मनुष्यों वैचारिक प्रदूषण की मात्रा में वृद्धि हुयी है । हमारे दूषित विचार से उत्पन्न दूषित ऊर्जा ( destructive energy ) , पाप - वृत्तियों की वृद्धि एवं इसके फलस्वरूप आत्मा के संकुचन द्वारा उत्त्पन्न संपीडन से अवमुक्त ऊर्जा , जो निरंतर शून्य (space) में जा रही है , यही ऊर्जा नर्क का सृजन कर रही है , जिससे हम असहाय होकर स्वयं भी झुलस रहे हैं और दूसरो को भी झुलसा रहे हें । ज्ञान की अनुपस्थिति मैं विज्ञान के प्रसार से , सृष्टि और प्रकृति की बहुत छति मनुष्य कर चुका है । उससे पहले की प्रकृति छति पूर्ति के लिए उद्यत हो जाए हमें अपने- आपको बदलना होगा । उत्तम कर्मों के द्वारा आत्मा के संकुचन को रोकना होगा , विचारों में पवित्रता का समावेश करना होगा । आत्मा की उर्जा जो आत्मा के संपीडन के द्वारा नष्ट होकर नर्क विकसित कर रही है उसको सही दिशा देने का गुरुतर कर्तव्य तुम्हारे समक्ष है ताकि यह ऊर्जा विकास मैं सहयोगी सिद्ध हो सके । आत्मा की सृजनात्मक ऊर्जा को जनहित के लिए प्रयोग करो । कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा । नर्क की उष्मा मद्धिम पड़ेगी और व्याकुल सृष्टि को त्राण हासिल होगा । आत्म - दर्शन (स्वयं का ज्ञान ) और आत्मा के प्रकाश द्वारा अपना रास्ता निर्धारित करना होगा । आसान नहीं है यह सब लेकिन सृष्टि ने क्या तुम्हें आसन कार्यों के लिए सृजित किया है ? सरीर की जय के साथ - साथ आत्मा की जयजयकार गुंजायमान करो । सफलता मिलेगी । सृष्टि और सृष्टि कर्ता सदैव तुम्हारे साथ है । प्रकृति का आशीर्वाद तुम्हारे ऊपर बरसेगा । *****************जय शरीर । जय आत्मा । । ******************

rakhshanda said...

मुनीष जी please dont say like that,आपके camment भी मेरे लिए उतने ही कीमती हैं जितने बाकी सब के, ,उम्मीद है अब आपकी शिकायत दूर हो गई होगी,

मुनीश ( munish ) said...

रक्शु जी आपने मेरे ब्लॉग के कमेंट बॉक्स को अपने remark से जिस तरेह नूर बख्शा है उसके लिए आपका शुक्रिया अदा करने लायक अल्फाज़ तो नहीं हैं मेरे पास ,बस यही मनाता हूँ के अप यूँ ही आती रहें के उजाला रहे !