Saturday, May 24, 2008

wo jinke hote hain khursheed aasteenon mein ...वो जिन के होते हैं खुर्शीद आस्तीनों में,


ये बात पहले भी लिख चुकी हूँ कि कोल्कता में जे.सी.बोस रोड पर जिस बिल्डिंग में हम रहते थे उसके और मदर के मिशनरी हाउस के बीच का फासला बस चंद कदमों पर मुहीत था. बिल्डिंग के आगे एक प्ले ग्राउंड था जहाँ लड़के क्रिकेट और फ़ुट बाल खेला करते थे.

शाम के वक्त पढाई वगैरा से फारिग होकर हम बहन भाई खेलने के बजाये ज्यादातर फ़ुट पाथ पर टहला करते थे.फ़ुट पाथ के पार मेन रोड थी जो बहुत बिज़ी रहा करती थी. हम एक दूसरे का हाथ थामे ट्रैफिक की रौनक, स्ट्रीट लाईट ,फिल्मों के पोस्टर और मिशनरी हाउस की बिल्डिंग देखा करते थे.

ऐसे ही आते जाते मिशनरी हाउस की सिस्टर एलीना और शर्मिष्ठा से कब दोस्ती हो गई पता ही नही चला. ननों की जिंदगी और उनका हुलिया(व्यक्तित्व) हमेशा मेरे लिए ताजस्सुस(रोमांच) का बाएस (कारण)रहा था. मिशनरी हाउस से ननों के झुंड के झुंड एक साथ निकला करते थे.कभी रोज़ मर्रा(दैनिक) के सामान लाते हुए,कभी दवाएं तो कभी कुछ और. वो हमेशा किसी न किसी काम में मसरूफ (व्यस्त)रहा करती थीं. यहाँ तक कि मिशनरी हाउस से कूड़े का ड्रम भी दो या तीन नंस मिल कर उठाये लिए चली जाती थीं. चेहरे पर एतमाद(विश्वास),कदमों में गज़ब की तेज़ी, अपने इर्द गिर्द की दुनिया से बेनियाज़ (बेपरवाह) ये ननें मेरे लिए जैसे किसी माव्राई (आसमानी) दुनिया से ताल्लुक (सम्बन्ध) रखती थीं.

बस ऐसे ही आते जाते वो मुझे देख कर मुस्कुरा दिया करती थीं , तब मैं भी उन्हें ‘हैलो ’ कह कर बहुत खुश हुआ करती थी.

धीरे धीरे हम में हैलो से आगे की बातें भी होने लगीं. एक बार सिस्टर एलीना ने बताया था कि मिशनरी हाउस में सब मिल कर सारा काम करते हैं. वहाँ ना कोई मालिक है ना नौकर, ना छोटा ना बड़ा, यहाँ तक कि मदर भी जब तक तंदुरुस्त(स्वस्थ) थीं तो अपने सारे काम ख़ुद अपने हाथों से किया करती थीं. मदर (ट्रीसा ) के बारे में यूँ तो मैंने बहुत कुछ पढ़ा था, लेकिन उनके बारे में अच्छी तरह जाना सिस्टर से बात करने के बाद.

आज सोचती हूँ तो यकीन नही होता कि दुनिया में उन जैसे लोग भी आए और चले गए.’आसमानी मखलूक(जीव) या आसमान से उतरा हुआ’ जैसे अल्फाज़(शब्द)अक्सर किताबों में पढने और लोगों के मुंह से सुनने को मिल जाते हैं , पता नही हकीकत में इन लफ्जों का असली मतलब क्या होता होगा या आसमानी होने से लोगों की क्या मुराद(मीनिंग ) होती होगी लेकिन मदर ट्रीसा पर तो जैसे ये बात पूरी तरह फिट बैठती है. वो वाकई आसमान से उतरी शख्सियत ही तो थीं, जो पैदा किसी दूर देस में हुयी , और अपनी जिंदगी के सारे आराम और खुशियाँ अपने उसी देस में छोड़ कर परियों की तरह उस ज़मीन पर उतर आयीं जहाँ की मिटटी उन्हें आवाज़ दे रही थी, जहाँ बहुत सारे बेबस,थके टूटे हुए लोग उम्मीद भरी निगाहों से आसमान की तरफ़ देख रहे थे. उनकी आंसू भरी आँखें खुदा से किसी मसीहा को भेजने की इल्तेजा(विनती) कर रही थीं, और तब , खुदा ने उस मसीहा को भेज दिया. नूरानी (तेजस्वी) चेहरे और समुन्दर से गहरे और वसी (बड़े) दिल वाली माँ के रूप में.

वो कैसी थीं, उन्हों ने क्या किया, ये तो शायद सभी जानते होंगे, लेकिन वो क्या थीं ये मुझे अपनी आंखों से देखे एक मंज़र ने इतनी शिद्दत से बताया था कि आज भी सोचती हूँ तो यकीन नही आता .

सिस्टर एलीना ने बताया था कि मदर अक्सर मिशनरी हाउस आती रहती हैं. मैंने कई बार उन से कहा कि वो मुझे भी मदर से मिलवा दें. तब इसे एक बच्ची की मासूम सी ख्वाहिश समझ कर वो बस मुस्कुरा दिया करती थीं.

अब इसे इत्तेफाक (संयोग) कह लें या मेरी किस्मत कि उस रात तकरीबन(लग भाग) ९ बजे अचानक लाईट चली गई.
कोल्कता में लाईट जाना दिल्ली की तरह कोई आम बात नहीं है . साल छ महीने में ही कभी ,वो भी जब कोई मेजर गड़बडी हो, तभी लाईट जाती है .

उन दिनों मेरी उमर यही कोई आठ साल के करीब रही होगी .उन दिनों जब भी लाईट जाती थी हम बच्चों में खुशी की लहर दौड़ जाया करती थी. सभी अपने अपने फ्लैट से निकल आते थे.फिर एक दूसरे से बातें करते हुए वक्त गुजरने का पता ही नहीं चलता था .उस रात जब हम बाहर आए और बातें करते हुए आगे बढे तो देखा कि आगे काफी भीड़ है .फुटपाथ पर चलने की भी जगह नहीं है . किसी से पूछा तो पता चला कि मदर आई हुईं हैं .वैसे भी हफ्ते में एक दिन मिशनरी हाउस की तरफ़ से फकीरों को खाना खिलाया जाता था .उस रोज़ फुटपाथ पर दूर दूर तक जाने कहाँ कहाँ से फकीरों की भारी तादाद जुट जाया करती थी .नन अपने हाथों से खाना खिलाया करती थीं.

‘मदर आई हैं’ ये ख़बर सुनकर मेरे अन्दर जैसे बिजली सी भर गई. मैं भाई बहन का हाथ थामे भीड़ को चीरती हुयी आगे बढ़ती चली गई. लोग धक्के दे रहे थे, कई लोग बच्चे समझ कर हमें वापस जाने को कह रहे थे लेकिन उस वक़्त मुझे किसी बात का होश नही था. मैं बिना सोचे समझे आगे बढ़ती रही. तभी, सामने उस मंज़र ने जैसे मेरे क़दम रोक दिए.

उस वक़्त मैं जिस उम्र की थी , उस उम्र में बच्चे आम तौर पर लापरवाह और अपने आप में मस्त रहने वाले होते हैं. मैं भी बस ऐसी ही थी, हालांकि मेरी ममा कहती हैं कि बचपन से ही मैं काफी संजीदा टाइप की थीं.

उन दिनों स्कूल से आते जाते हुए हम ने फुट पाथ पर एक बूढे फकीर को देखा था. वो फकीर कोढी था.इमानदारी से कहूँ तो उसकी हालत ऐसी होती थी कि अपनी पॉकेट मनी से उसे पैसे देने की ख्वाहिश होते हुए भी मैं उसके क़रीब जाते हुए डरती थी. उसके ज़ख्मों से मवाद बहती रहती थी. और ज़ख्मों के अस पास मक्खियाँ भिनभिनाती रहती थीं. लोग दूर से ही उसके ज़मीन पर बिछे थैले पर पैसे फेंक दिया करते थे. मुझे आज भी याद है , एक दिन स्कूल से वापसी पर मैं अपनी बहन का हाथ थामे हुए हिम्मत कर के उसके पास गई लेकिन उसकी हालत दिख कर खौफ से मैंने आँखें बंद कर लीं और उसी हालत में पैसे मैंने कहाँ गिरा दिए मुझे याद नही है.

आप जानते हैं जो मंज़र मैंने देखा, उस में क्या देखा?

मेरे सामने मदर मुजस्सम(सम्पूर्ण) हकीकत बन कर बिल्कुल सामने मौजूद थीं. कहने को तो अपने किसी ख्वाब की ताबीर मिल जाए तो इस से बढ़ कर हैरानी क्या हो सकती है. लेकिन उनकी मौजूदगी से ज़्यादा हैरत की वजह मेरे लिए दूसरी थी, और वो थी मदर के साथ उसी फकीर की मौजूदगी.

मैंने देखा, मदर उसके बहुत क़रीब बैठी हुयी उसके ज़ख्मों को देख रही थी. उनके क़रीब तीन चार नन हाथों में दवाओं के छोटे छोटे बॉक्स लिए खड़ी थीं. वो बूढा बड़े दर्दनाक अंदाज़ में रो रहा था. और मदर बड़े प्यार से कभी उसके आंसू पोंछ रही थीं, कभी उसके ज़ख्मों को छू कर उनकी गहराई समझने की कोशिश कर रही थीं.

साथ-साथ वो सिस्टर्स को इतने दिनों तक उसकी तरफ़ ध्यान न दिए जाने पर सर्ज्निश (टोक)भी कर रही थीं.

मैं देखती रही. बस देखती रही.

पता नही, क्या हो गया था मुझे. इस मंज़र ने मुझे एकदम से साकित(स्तब्ध) कर दिया था. आम हालात होते तो मैं दौड़ कर मदर से मिलती. यही तो ख्वाहिश थी मेरी, पर उस दिन बिल्कुल सामने बैठी मदर को देख कर भी आगे बढ़कर उन से मिलने की हिम्मत नही कर पायी थी मैं.

भीड़ बढ़ने लगी थी. तभी बाबा हमें बुलाने आगये. घर पर पापा इतनी भीड़ में घुसने पर मुझ पर नाराज़ भी हुए. इसलिए चाह कर भी अपनी फीलिंग्स मैं मामा पापा से शेयर नही कर पायी थी. लेकिन उस रात मैं ठीक से सो नही पाई थी. वो एक मंज़र मेरी आंखों में जैसे ठहर सा गया था. सारी रात मदर और वो बूढा बेबस फकीर मेरी आंखों के सामने घुमते रहे.

उस दिन के बाद वो फकीर मुझे फ़ुट पाथ पर नज़र नही आया. सिस्टर ने बताया कि उसका मिशनरी अस्पताल में इलाज हो रहा है..

आज इस बात को कितने साल गुज़र गए हैं. लेकिन वो मंज़र मेरी यादों की धरती में कहीं गहराई से जज़्ब हो गया . तभी तो आज इतने सालों के बाद जब मैं उस मंज़र को अल्फाज़ की माला पहनाने की कोशिश कर रही हूँ, तब भी उसकी शिद्दत में कहीं कोई कमी नही आई है.ये बात उन दिनों का है जब मदर की तबियत अक्सर ख़राब रहने लगी थी. वो बाहर कम ही निकलती थीं. इस वाकये के तकरीबन(लग भाग) दो साल बाद वो आसमानी देवी अपनी उसी आसमानी दुनिया में हमेशा के लिए वापस चली गई, जहाँ से इस धरती का दुःख दर्द समेटने एक दिन वो आई थी.

अपने बारे में सोचूं तो उस समय मैं बच्ची थी. ज़िंदगी की बदसूरती को इतनी शिद्दत से महसूस नही कर सकती थी. लेकिन आज जब मैं बड़ी हो गई हूँ. मेरे घर वालों और मेरे आस पास रहने वालों की राय में एक दर्दमंद दिल रखने वाली हस्सास(भावुक) सी लड़की हूँ. लेकिन ईमानदारी से अगर आज भी मैं ख़ुद को उस बूढे फकीर और मदर से जोड़ने की कोशिश करती हूँ तो पाती हूँ कि आज उस फकीर के लिए मैं अपनी कीमती (महंगी) से कीमती चीज़ की कुर्बानी देकर भी उसका इलाज करवा सकती हूँ , उसके लिए कितनी भी भाग दौड़ कर सकती हूँ, तकलीफ उठा सकती हूँ. लेकिन क्या मैं मदर की तरह उसके पास बैठ कर ,उसके ज़ख्मों को छू कर उसका दर्द महसूस कर सकती हूँ ? क्या अपने बच्चे की तरह उसके बहते आंसू पोंछ सकती हूँ?
मैं नही जानती.
ख़ुद से सवाल करती हूँ तो जवाब दूर-दूर तक नही मिलता.
तो क्या मैं खुद्गार्ज़ हूँ?
शायद हाँ. मेरे जैसे लोग अपनी ख़ुद साख्ता (ख़ुद की बनायी हुयी) दुनिया में जीते हैं और एक ख़ुद गरज समाज की बुनियाद रखते हैं. वो समाज, जो आज सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने बारे में सोच रहा है.
मदर ट्रीसा और महात्मा गांधी जैसे लोगों को आसमानी मखलूक और पैगम्बर (अवतार) बता कर हम ख़ुद अपने ऊपर आयेद(दिए गए) फरायेज़(कर्तव्य) से बड़ी आसानी से पीछा छुडा लेते हैं.
जब कि सच तो ये है कि मदर न तो कोई आसमानी मखलूक थीं न ही कोई देवी. वो इंसान थीं. इंसानियत से लबरेज़(सम्पूर्ण) ,असली मायनों में एक इंसान.
आज हमारे बेहिस (संवेदनशून्य) हो चुके समाज को ऐसे ही इंसानों की सख्त ज़रूरत है, जो अपने खूबसूरत दिलों की नूरानी रोशनियों से खुदगर्जी और बेहिसी के घटा टोप अंधेरों को दमकते हुए उजालों में बदल कर हर बेबस चेहरों पर मुसर्रतों के फूल खिला दें.

शायर ने ऐसे ही लोगों के लिए ही तो कहा है….वो जिन के होते हैं, खुर्शीद(सूरज) आस्तीनों में,
उन्हें कहीं से बुलाओ,, बड़ा अँधेरा है….

20 comments:

दीपान्शु गोयल said...

बेहद संजीदा

डॉ .अनुराग said...

bas itna hi kahunga ki javed akhtar sahab ki madar teresa par padi nazm "mujhko teri ajmat se inkaarnahi hai"padh le.......

दिनेशराय द्विवेदी said...

रक्षन्दा जी! आप को पता है या नहीं। मेरे चिट्ठे पर आप की पहली टिप्पणी का उल्लेख मै ने अगले आलेख में करते हुए आप को देहरादून की खूबसूरत प्रेटी वूमन कहा था। तो मुझे एक ब्लॉगर साथी की टिप्पणी मिली थी कि " हो सकता है आप रक्षन्दा जी से परिचित हों, लेकिन यह संबोधन मुझे असहज लगा।"
वास्तव में मेरा आप से परिचय केवल उस टिप्पणी तक ही था और मैं उन ब्लॉगर साथी को उत्तर देना चाहता था। पर उचित समय की प्रतीक्षा कर रहा था। लेकिन आज मेरा आप से परिचय उस दिन से अधिक है।
आज में कह सकता हूँ कि आप बेहद खूबसूरत हैं, जितना आप दिखती हैं उस से कहीं अधिक खूबसूरत? और यह आप की शक्ल-ओ-सूरत की नहीं है। यह खूबसूरती जो आप रूह की है, बस ऐसे ही ऊपर को उठती रहे और आसमान छुए।
चाहता हूँ सभी बेटियाँ आप सी हो जाएँ।

Rajesh Roshan said...

रक्षंदा जी, इस पोस्ट को पढने के बाद एक विडियो की याद आ रही है. अगर मिली तो मैं जरुर अपने ब्लॉग में अपलोड कर दूंगा. आप जैसी हैं वैसी ही बहुत अच्छी हैं. बेहद ही साजिदा, भावनाओ से लबरेज पोस्ट...

bhuvnesh sharma said...

आपका लिखा हर बार दिल तक पहुंचता है.
अपनी यादों से रूबरू कराने का शुक्रिया....

समय चक्र said...

संजीदगी से परिपूर्ण एक सुंदर पोस्ट के लिए धन्यवाद

sanjay patel said...
This comment has been removed by the author.
sanjay patel said...

रक्षंदा ;
आदाब . मदर टेरेसा पर आपकी ये मार्मिक पोस्ट दिल को छूती सी लगती है. एक वाक़या ये भी पढ़ा था कहीं कि एक बार निर्मल ह्र्दय एक व्यक्ति ऐसा लाया गया जो बहुत ज़ख़्मी था .उसके पूरे जिस्म से मवाद बह रहा था. उसे माँ के आस्ताने (माँ भी तो किसी दरवेश से कम नहीं थी इसलिये ये लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है) पर पहुँचते ही माँ खुद तत्काल उसकी सेवा में मसरूफ़ हो गईं...एक नई सिस्टर ने पूछा माँ आपको इस मरीज़ के ज़ख़्मों को सफ़ा करते वक्त तकलीफ़ नहीं होती आपको ...माँ का जवाब था(लाजवाब था )हाँ तकलीफ़ तो होती है लेकिन उससे बहुत कम जो इसे (मरीज़ को) हो रही है.
माँ की शख़्सीयत को तस्लीम करते हुए यही कहूँगा कि वे अपनी ज़िन्दगी में ही ईश्वर की मूरत थीं ...प्रार्थना करने वाले होठों से सेवा करने वाले हाथ ज़्यादा पाक़ होते है.

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा आपकी संस्मरणात्मक आलेख पढ़कर. मुझे भी मदर टरेसा के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त है.

मुनीश ( munish ) said...

पोस्ट अच्छी है , आप भी अच्छी हैं लेकिन शायद हम ही बुरे हैं ,जभी आप हमें हमेशा इग्नोर मारती रहती हैं । ऐसे में तो हमारा आपके यहाँ आना मुनासिब न होगा ,इसीलिए अब हम कभी आपके ब्लॉग पे आने की हिमाकत करने से पहले कमसकम छेह दफे सोचेंगे । हमने आपको हमज़ुबान समझने की खता की और इसका इन्तेहाहीं अफ़सोस लेकर जा रहे हैं हम । आमीन !

rakhshanda said...

@दनिश्राय जी,आपका क्म्मेंट यकीन मानिए दिल को छू गया,इतने खूबसूरत कमेंट पर शब्द नही मेरे पास जवाब के लिए,मेरे लिए दिल की खूबसूरती ही मायने रखती है,मदर का मेरी जिंदगी पर काफ़ी असर रहा है,आपको पता है, एक बार मैं उनसे मिल भी चुकी हूँ,इस मुलाक़ात में तो सिर्फ़ उन्हें देखा था,लेकिन एक बार वो मुझ से मिली भी थीं,उनका मिलना मेरी जिंदगी की बहुत बहुत यादगार घटना है, और जल्दी ही उस लम्हे की याद मैं आप सब से बांटना चाहूंगी.मेरे लिए उन्होंने सिर्फ़ एक जुमला कहा था,यकीन कीजिये, उनका कहा वो जुमला मुझे मिला अब तक का सब से कीमती कोम्प्लिमेंट है.
मेरी रूह खूबसूरत हो,मैं इस दुनिया में किसी के लिए भी कुछ कर सकूं तो समझूंगी मेरी जिंदगी सफल रही है,क्योंकि रूह की खूबसूरती ही इस कायनात की खूबसूरती है.thank you दनिश्राय जी.

rakhshanda said...

@डा.अनुराग जी, क्या मैं जावेद अख्तर की वो नज्म पढ़ सकती हूँ? i mean कि क्या आप मुझे send कर सकते हैं?

Abhishek Ojha said...

हर बार की तरह संजीदा, सुंदर पोस्ट !

rakhshanda said...

@मुनीष जी, आपने ऐसा क्यों लिखा , मुझे समझ नही आया, इग्नोर से आपका क्या मतलब है?
आपके कमेंट मुझे खुशी देते हैं,आप मुझे पढ़ते हैं, इस से बढ़ कर खुशी की बात क्या होगी मेरे लिए, मेरे लिए मेरे सभी पढने वाले बहुत बहुत कीमती हैं, आप सब ने ही मुझे बताया है कि मैं अच्छा कर रही हूँ या नही,,भला मैं किसी को इग्नोर कैसे कर सकती हूँ...आप ज़रूर आयें, अगर मेरे लिखने में कोई खामी नज़र आए तो आप बिना किसी संकोच के बुरा कह सकते हैं.उम्मीद है , मुझे पढ़ना जारी रखेंगे.थैंक्स

rakhshanda said...

इसके साथ ही मेरे बाकी सभी पढने वालों को भी मेरा शुक्रिया...अपना ख्याल रखियेगा . थैंक्स

मुनीश ( munish ) said...

Ignore means yahi ki u didn't ans. my simple query regarding ur camera or kya? U've really hurt me n im juss leaving . Bye!!

डॉ .अनुराग said...

जरूर ..आपका मेल आईडी मुझे मालूम नही है ......मेरा आईडी anuragarya@yahoo.com है .पहली फुरसत मे आपको भेजता हूँ......

Manish Kumar said...

सही कहा आपने सच्चे मायने में ऐसी शख्सियत ही इंसानियत की मिसाल बन सकती है. इस तराजू में तौल कर देखने से हम सभी अपने को बहुत छोटा पाते हैं।

Sandeep Singh said...

मदर टेरेसा को अभी तक महज तस्वीरों में देखा था। उनके बारे काफी पढ़ा। लेकिन उनका सेवा भाव किसी को मदद की उपेक्षा पर आत्मग्लानि का बोध करा सकता है, वो भी खास कर तब जब वो सिर्फ आठ साल की बच्ची हो, दीन दुनियादारी से दूर...। फिर तो यकीनन ऐसी मदर को नज़दीक से न निहार पाने का अफसोस अब ताउम्र करना होगा। पर खुद में पनपे अपराधबोध ने तो आपको और भी बड़ा दिया।

Dr Prabhat Tandon said...

बहुत ही मार्मिक क्षणॊं को दिल मे समायॊ पोस्ट !