Thursday, July 17, 2008

जेहनी गुलामी का करार तो हम पहले ही कर चुके हैं....

(मेरी इस पोस्ट में मेरी कुछ बातें होसकता है कि कुछ लोगों को नागवार गुजरें, लेकिन मुझे इस की परवाह नही है.)


अमेरिका के साथ एटमी करार को लेकर सयासी घमासान अपने शबाब पर है,इसी बहाने अपनी अपनी सियासी रोटियां फिर से ताज़ा करने का मौका सब को मिल गया है.दो चार दिन में ही सारी तस्वीरें साफ़ हो जायेंगी लेकिन इन तस्वीरों पर बिखरी धुंध में एक चीज़ जो साफ़ दिखाई दे रही है वो ये कि करार करना या न करना तो एक formality है जो हो, न हो, कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है, क्योंकि अमेरिका परस्ती तो अब हमारी रगों मे खून बनकर समां गयी है.
नहीं, मैंने न कोई सर्वे रिपोर्ट पढ़ी है न ही कोई ऐसी ख़बर, लेकिन इतना मैं यकीन से कह सकती हूँ कि अगर कोई सर्वे कराया जाता है और हमारी नौजवान नस्ल से एटमी करार पर राय ली जाती है तो कम-अज-कम 80% परसेंट लोग इस डील के हक में होंगे क्योंकि आज की नौजवान नस्ल को ये भरम हो चला है कि जहाँ साथ अमेरिका का होगा, वहां हमारे हाथ में सिर्फ़ खुशहाली ही होगी. ग्लोबलाइजेशन और बाजारवाद की कोख से निकला हमारा नौजाद मत्वसित तबका(मध्यवर्गीय) पूरी तरह बदल चुका ही. पुरासाइश जिंदगी, शानदार पैकेज ऑफर करती जॉब और मेट्रो कल्चर ही आज की नौजवान नस्ल की जिंदगी का मकसद बन गया है.जिन्हें ये सब कुछ मिल गया ही, वो तो बस इसी के हो कर रह ही गए हैं, जिन्हें नहीं मिल सका है, वो इसे पाने के लिए frustration का शिकार हो रहे हें. इसे पाने के लिए वो कोई भी कीमत देने को तैयार हैं. चाहे वो कीमत उन्हें अपनी values अपने कल्चर या अपने रिश्तों की कुर्बानी की सूरत में क्यों न चुकानी पड़े.
ये मीठा और धीमा ज़हर धीरे धीरे हमारी रगों में उतरा.
इसकी शुरुआत हमारे बच्चों से हुयी. हमें ख़ुद ही नहीं पता चला कि कब ख़ुद हम ने ही अपने बच्चों को मग्रिबी (वेस्टर्न) कल्चर के रास्ते पर धकेल दिया.
अपने कल्चर को सारी दुनिया में वस्अत (फैलाना) बख्शना मग्रिबी मुमालिक का सब से बड़ा ख्वाब था. उन्हें ये भी पता था कि वक्त बदल गया है, किसी दूसरे मुल्क पर ताकत के ज़ोर पर कब्जा करना न तो आसान रह गया है न ही फायदे का सौदा.

इस से ज़्यादा फायदेमंद और कारामद सौदा है लोगों के ज़हनों पर कब्जा करना. ज़हनों पर कब्जा आसान नहीं होता और ये वक्त भी काफ़ी लेता है, लेकिन जब हो जाता है तो फिर दुनिया का कोई भी गांधी या मंडेला उसे आजाद नहीं करा सकता.

सब कुछ प्री प्लानिंग हुआ.
कहते हैं किसी के सामने आप अपनी बात मजबूती से तभी रख पायेंगे जब सामने वाला आपकी ज़बान या भाषा समझता हो.
अंग्रेज़ी को इंटरनेशनल ज़बान बना कर उन्होंने सब से पहले यही किया.

उसके बाद सब आसान होता चला गया.
हर तरफ़ अंग्रेज़ी का क्रेज़, ‘’अंग्रेज़ी जाने बिना काम नहीं चल सकता’’ जिसे अंग्रेज़ी नहीं आती वो तरक्की नहीं कर सकता’’ ये थी हमारी सोच जो ठीक उनके मिशन का आईना थी.
हम अन्ग्रेज़िअत के जेहनी गुलाम, अधाधुंध इंग्लिश मीडियम स्कूल बनाते गए और हमारे बच्चे वहां पढने पर मजबूर कर दिए गए.
उनकी प्लानिंग अपनी रफ्तार से आहिस्ता आहिस्ता चलती रही. जाने किते मिशनरी स्कूल खुलते रहे.
अंग्रेजियत का ज़हर धीरे धीरे हमारी रगों में उतरता चला गया.
हमारे बच्चे अंग्रेज़ी ज़बान की इस सीढ़ी से मग्रीबी दुनिया की झलक देखने लगे.
ये दुनिया रंगीन थी, आजाद थी, यहाँ खुशहाली थी, रौशनी की चकाचौंध थी. यहाँ न कोई पाबन्दी थीं न किसी तरह की कोई रोक-टोक.
यहाँ न मज़हब के लिए अपनी ख्वाहिशों को कंट्रोल करना पड़ता था न ही कोई रिश्ते इन ख्वाहिशों के हुसूल के रास्ते की रुकावट बनते थे.
न values की दुहाई, न कल्चर का झंझट.
हमारे बड़े होते बच्चे इस सेहरअंगेज़ (जादुई) दुनिया को हसरत से देखने लगे.
और फिर, एक दिन उनकी ये हसरत हकीकत का रूप धारे उनके सामने आ खड़ी हुयी कि हाथ बढाओं और उसे हासिल कर लो.
ग्लोबलाइजेशन का दौर आया. सब कुछ सब को हासिल हो गया. शहरों से लेकर गावों तक इसकी लहर चल निकली. मल्टी नेशनल कंपनियों ने अधूरे ख़्वाबों को पंख लगा दिए, हम उड़ने लगे. बिना नीचे देखे हुए.
हमारा कल्चर, मेट्रो कल्चर, हमारी पसंदीदा खुराक पिज्जा और बर्गर, पसंदीदा ड्रिंक, पेप्सी और कोक , हमारे बच्चे कार्टून चैनल्स तो teen-agers एनिमेक्स के दीवाने, हमारे लिबास जींस और टी-शर्ट, अब हम बीफोर मैरेज सेक्स को बुरा नहीं मानते. अपने जज्बों के इज़हार के लिए हम किसी न किसी ‘डे’ के मुहताज हो गए हैं. दबी ज़बान में ही सही, अब हम लिव-इन रिलेशनशिप की बातें भी करने लगे हैं. हम किसी गालिब और इकबाल को नहीं जानते हैं न ही टैगोर और प्रेमचंद को, कबीर और रहीम के दोहों पर तो हमें हँसी आती है. हम और हमारे बच्चे तो जे.के रोलिंग और जे.आर.आर.टाकिन को फख्र के साथ पढ़ते हैं.

अपनी दोनों माद्री(राष्ट्रिय) ज़बान को अपना कहते हुए हमें शर्म और झिझक महसूस होती है. हाँ, अंग्रेज़ी हम बड़े फख्र से बोलते हैं और जिन्हें नहीं आती, वो बदनसीब बड़ी हसरत से हमें देखते हैं . अमेरिका में रहना, हमारी नौजवान नस्ल का सब से बड़ा ख्वाब ही तो बेटा अमेरिका में नौकरी करे और बेटी का रिश्ता किसी ग्रीन कार्ड होल्डर दे हो जाए, ये ख्वाहिश हमारे वालदैन की भी होती है
कभी कभी हैरानी होती है कि ऐसा कैसे हो गया? क्या सदियों पुराने हमारे मजहबों, हमारी रस्मों और रवायतों के रंग इतने कच्चे थे कि हम ने उसे इतनी आसानी से उतार फेंका?
हमारे मुस्लिम नौजवान भी किसी से पीछे नहीं हैं, वो भी अमेरिकी रंग में रंग चुके हैं.
उन्हें न अपने मज़हब से कोई खास दिलचस्पी है न अपने कल्चर से.

उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि अमेरिका हमारी कौम के साथ क्या कर रहा है. न वो फिलिस्तीन के मजलूमों को जानते हैं न इराक और अफगानिस्तान के बेक़सूर मासूमों को. उनकी नज़र में ओसामा-बिन-लादेन तो दहशत गर्द है लेकिन अमेरिका और जॉर्ज बुश नहीं.
महमूद अहमदीनेजाद जैसे लोग तो हमारे मुस्लिम नौजवानों कि निगाह में बेवकूफ और जिद्दी हैं .
वो दलील देते हैं कि उनकी जिद से इरान को क्या मिलेगा. उसका हश्र भी बाकी लोगों की तरह होगा. हाँ, अमेरिका से दोस्ती करने में हमारा फायदा ही फायदा है.

कैसी ज़हनियत हो गयी है हमारी….अरे , हम तो उन गीदड़ और जंगली कुत्तों से भी गए गुज़रे हैं जो शेर के शिकार किए हुए माल को मुफ्त में पाने के लिए उसकी दुत्कार भी सुनने को तैयार रहते हैं.

हमारे जेहन गुलाम हो गए हैं.और जब जेहन गुलाम हो जाएँ तो आज़ादी मुमकिन नहीं होती.
अब करार हो न हो, इस से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, क्योंकि जेहनी गुलामी की डील तो हम पहले ही कर चुके हैं.

30 comments:

कुश said...

आपकी बात में दम है.. पर मुझे थोड़ा काम ज़्यादा करना है क्योंकि इस महीने का मोबाइल बिल कुछ ज़्यादा है.. गाड़ी की इनस्टॉलमेंट जमा करानी है.. बॅक पेन है तो डा. की फीस का जुगाड़ लगाना है.. मुझे तो मेरी व्यक्तिगत समस्यए ही घेरे रहती है.. की इस डील के बारे में ज़्यादा जान नही पाया.. खैर आपकी सोच काबिल-ए-तारीफ है.. आपने बहुत सारी बातें एक पोस्ट में कह डाली है..

Anwar Qureshi said...

बहुत है अच्छा लिखा है बेबाकी से लिखा है अब किसी को बुरा लगता है तो लग जाने दीजिए..कोई फर्क नहीं पड़ता ..लिखते रहिये....

Abhishek Ojha said...

सहमत न होने की बात तो आपने पहले ही कर दी है... पूरा तो नहीं लेकिन थोड़ा-थोड़ा असहमत तो हूँ ही... फिर भी विचार धाराएं सुनने पढने में कभी संकोच नहीं किया और आपके खुले दिल से लेखन की सराहना करता हूँ.

Rajesh Roshan said...

अभिषेक जी की बातो से सहमत हू और साथ ही again Politics rarely gives me pleasure.

दीपान्शु गोयल said...

जेहनी तौर पर तो हम गुलाम हो चुके हैं । ये आज से नहीं ब्लकि आजादी के बाद से ही हो रहा है इस बात से कोई नहीं नकार सकता और आप की इस बात से मैं पूरी तरह से सहमत हूँ। लेकिन इस डील को हमें इससे अलग करके देखना होगा। अगर हमारे देश के प्रधानमंत्री का बयान आता है कि इससे देश को खतरा नहीं है तो उसे माना जाना चाहिए। हमें इस डील के बाद परमाणु उर्जा पैदा करने में मदद मिले तो अच्छा ही है। मुझे ये लगता है कि भविष्य मैं अगर ये साबित हो जाए कि डील देश के लिए ठीक नहीं तो भारत इतना मजबूत है कि उसी समय डील से हट सकता है और अमेरिका की मजाल नहीं होगी कि कुछ बिगाड पाये। पहले भी अमेरिका प्रतिबंध लगा कर देख चुका है और वो भारत का कुछ नहीं बिगाड सका था।

दिनेशराय द्विवेदी said...

मैं आप से पूरी तरह सहमत हूँ। और खुशी इस बात की है कि आप ने बात को इस तरीके से रक्खा है कि वह सोचने को मजबूर कर दे। बात को साधारण तरीके से भी रक्खा जा सकता है। लेकिन यह बात कि हमारे मध्यवर्गीय नौजवानों का बड़ा तबका जेहनी गुलामी स्वीकार कर चुका है। एकाएक पचेगी नहीं। लेकिन जेहनी गुलामी का फंदा ही ऐसा है कि जब तक वह पूरी तरह कस नहीं लेता है और मजबूर नहीं कर देता है तब तक इंन्सान को आजादी का एहसास होता रहता है। आज तीस हजार से एक लाख हर महीने कमाने के लिए नौजवान किस कदर अपने घर परिवार को दांव पर लगा रहा है। उस के पास मां-बाप, बीबी-बच्चों, दोस्तों के लिए वक्त नहीं है। कुछ आईटी प्रोफेशनल इस तनाव में खुदकुशी कर चुके हैं। कुछ के पारिवारिक मामले अदालतों में है। फिर भी नौजवान तबका उसी और दौड़ रहा है। दौड़ा रही हैं हमारी सरकारें, क्यों कि विकल्प नहीं है। विकल्प छोड़ा ही नहीं गया। ये ही परमाणु कररार के मामले में हमारी सरकार कह रही है कि विकल्प नहीं है। इसे जेहनी गुलामी नहीं तो क्या कहें?
जिन पाठकों ने असहमति जाहिर की है उन्हें अपने तर्क रखने चाहिए।

डॉ .अनुराग said...

आप जानती है इस देश की एक पीड़ी ऐसी भी है जो एम् टीवी के roddie के चयन के लिए घंटो कतार लगाये खड़ी रहती है ..फ़िर धड़ल्ले से इंटरव्यू में स्वीकार करती है हाँ मैंने फलने को cheat किया ...एम् टीवी के इस शो में वे लोग जीतते है जो चल कपट साम दंड भेद से भरे है....उनमे से एक लड़की आजकल एक शो की एंकर है.....लोग कहते है उसकी लाइफ बन गयी ....दूसरा शो आजकल इसी चैनल पर ओन है दो लड़को को पटाना है....लड़कियों में मारा मारी है.....पैसा वाला जो अपने बेटे को बनाना चाहता है ,बना रहा है डोनेशन के ढेरो कॉलेज खुले है .चीजे आसान है.....एक वर्ग के लिये .एक ओर महिला है पढ़ी लिखी है ..उनकी सारी कविताये सारे लेख इसी बात पर आधारित है की टीवी में एंकर बनने के लिए लोग लड़कियों का शोषण करते है....कल को वे एंकर बन जायेगी तो क्या लिखेगी मै सोचता हूँ.....यानि सफलता के माप दंड बदल रहे है जैसे जिस रास्ते आये वही महतवपूर्ण है.....बाकी सब बकवास ......
..I I T के बाथरूम की दीवार पर लिखा है वेस्ट इस बेस्ट.....कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर हिन्दुस्तान में नही रुकना चाहता ...देश हजारो लाखो रुपया एक डॉ या इंजीनियर बनाने में खर्च करता है ....पर प्रतिभा पलायन हो रहा है....पहले जब देश आजाद हुआ था तब राजनीति में वही लोग आते थे जिनका चरित्र होता था अब ....ठीक उसके उलट हो रहा है....समाज बदल रहा है.....किस करवट ?मालूम नही .....technically हम बेहद एडवांस है पर मानवीय स्तर पर किस ओर जा रहे है ..........ऐसा नही है जींस पहनना किसी गुलामी की निशानी है..पर समाज के ,देश के प्रति जो हमारी प्रतिबद्ता,जिम्मेदारी है उससे हम विमुख हो रहे है ओर आहिस्ता आहिस्ता "एकला चलो रे ' ओर मुझे क्या वाला attitude अपना रहे है ....ये खतरनाक है...दूसरा हमारे system में जो निर्णय लेने वाले लोग है वे अक्षम ओर स्वार्थ को पहले रखते है बाकी चीजे बाद में ...डील का तो तो मुझे मालूम नही पर हाँ हम जरूर सड रहे है.....आहिस्ता आहिस्ता

Udan Tashtari said...

कुछ लोग सोच कर रह जाते हैं, चिन्तन करते हैं..मन ही मन में कुढ़ लेते हैं और फिर या तो स्थिति से समझौता कर लेते हैं या यूँ ही कुढ़ते हुये जीने के अभयस्त हो जाते हैं..आपने लिख कर जी हल्का कर लिया.अच्छा हुआ. कम से कम कुछ जागरुकता आ जाये इसी से..बेबाकी से लिख डालने के लिए बधाई.

समय चक्र said...

khule dil se or apni baat bebaki ke sath rakhane ke liye dhanyawaad.

pallavi trivedi said...

aapki sabse achchi baat mujhe ye lagi ki aap jo mahsoos karti hain aapne bebaaki se unhe saamne rakha. kisi ka sahmat hona ya na hona koi maayne nahi rakhta kyoki aap har kisi ko kabhi santusht nahi kar sakte...apni niji raay hona bahut zaroori hai aur aapki apni suspasht raay hai.

राज भाटिय़ा said...

यह सब बाते मे कई बार टिपण्णियो मे दे चुका हु,ओर यह बात तो जग जाहीर हे जिस ने अपना बेडा गर्क करना हो वो अमेरिका से दोस्ती कर ले सो जो अब हम कर रहे हे,
बाकी आप की कलम अब ओर तेज चलने लगी हे,आल्लह से दुया करता हु ओर ताकत दे तुम्हारी कलम को सब नही तो आधे लोग ही जाग जाये सच पढ कर,आज का लेख तुम्हारे सभी लेखो का राजा हे धन्यवाद

राज भाटिय़ा said...

हा भुल गया भारत ही एक ऎसा देश हे जहां भारत की अपनी भाषा बोलने पर कई स्कुलो मे जुर्माना भी लगता हे फ़िर भी हम आजाद हे :) :)

Ramashankar said...

आपने बहुत कुछ सही लिखा है लेकिन हर बात के दो पहलू होते हैं. हो सकता है मैं गलत हूं लेकिन आपने ज्यादातर स्याह पक्ष ही उभारा है. मैं अमेरिका का समर्थक नहीं हूं लेकिन क्या आपने यह सोचा है आने वाले समय में देश की सबसे बड़ी जरूरत क्या होगी. मेरे नजर में आनाज और ऊर्जा. आनाज की पूर्ति तो हम अपने दम से कर लेंगे लेकिन बिजली जो आज की जीवन दायिनी है उसकी पूर्ति हम शायद अपने उपयोग भर के लिये नहीं कर पाएंगे. वजह है जल विद्युत अब ऊर्जा संकट दूर करने के लिये नगण्य है तो तापीय विधि से भी पर्याप्त उत्पादन नहीं हो सकता क्योंकि कोयला भी सीमित ही है. बचती है परमाणु रियेक्टरों से प्राप्त ऊर्जा. हमारे यहां थोरियम तो है लेकिन अब तक ज्ञात विधि में हम यूरेनियम से ही विजली का उत्पादन कर पा रहे हैं. थोरियम को लेकर लंबा सफर तय करना है तब तक शायद यूरेनियम के लिये हमें समझौता तो करना ही पड़ेगा. रही बात सांस्कृतिक गुलामी की तो क्या आप यह मानती हैं कि हमारी संस्कृति इतनी कमजोर है कि दूसरी हम पर हावी हो जाएगी. फिर हम यह क्यों भूलते हैं कि योग को पूरा विश्व हमसे ही सीख रहा है. तो यह सांस्कृतिक आदान प्रदान तो चलता रहता है. फिर आती है विदेश जाने की बात तो अब तक मेरी जानकारी के अनुरूप अब विदेश जाकर वहीं बसने वालों के आंकड़ों में काफी कमी आई है बल्कि वहां से लौटने वालों की संख्या में इजाफा ही हुआ है. बाकी मैं आपकी बात से असहमत नहीं हूं. पहली बार आपके ब्लाग पर आया पढ़कर अच्छा लगा.

Anonymous said...

आपकी इस पोस्ट मे बुरा लगने वाली कोई बात तो मुझे नज़र नही आयी ।

जो लिखा सही ही है

Som said...

Bahut Badiya Lekh hai.

Main Apke Blog Par Pahli Baar Aya Hu. Par Apke Is Lekh Ne Mujhe Comment Likhne Ko Majboor Kar Diya Hai.

Hum Bhartiya Logo Ka Jhukab Pashchimi Chal-Chalan Par Jyada Hota Hai aur isko apnane ke chalate hum apni sabhyata bhoolte ja rahe hai. Ye bahut dukhd hai, bahut peeda hoti hai.

Ashok Pande said...

बहुत बढ़िया तरीक़े से अपनी बात कही आपने.

मेरे एक दोस्त का भतीजा है जो देश के एक बड़े संस्थान में मैनेजमेन्ट की पढ़ाई कर रहा है. इधर छुट्टियों में वह घर आया था तो इस एटमी क़रार को लेकर मैंने उस से यूं ही पूछ लिया. साहब बोले: "डज़ इट एट ऑल मैटर? आई डोन्ट नो मच अबाउट इट. आई थिंक आफ़्टर द डील वी वुड बी एबल टू डिमॉलिश पाकिस्तान विद एटम बॉम्ब्स!"

यह तो केवल एक मिसाल भर है. हाशिये पर भी न रहने लायक चीज़ें इस देश के युवाओं की फ़र्स्ट प्रायरिटी बन गई हैं. अपना सब कुछ एक अंधी दौड़ के नाम क़ुर्बान कर चुके इस मुल्क को हमारे सियासतदां अब जो चाहे करें, असल बात तो यह है कि ज़्यादातर लोगों को न इस क़रार की डिटेल्स पता हैं न वो जानना चाहते हैं.

झकझोर देने वाले एक अच्छे आलेख के लिये मेरी बधाई लें.

rakhshanda said...

समझ में नही आता किन लफ्जों में आप सब का शुक्रिया अदा करूँ, इतनी अच्छी तरह आप लोग मुझे समझेंगे और और हौसला देंगे इसका इतना नदाज़ा नही था मुझे,सब से ज़्यादा खुशी इस बात ने दी है की सब ने काफी डिटेल में अपनी नज़रिए को यहाँ रखा है,ये मेरे लिए बड़ी बात है. तसल्ली होती है की अपनी इस सोच के साथ मैं तनहा नही हूँ बहुत से लोग हैं जो ऐसा सोचते हैं और सब से बड़ी बात यही है की अभी भी हमारे साथ ऐसे लोग मौजूद हैं जो इस अंधी दौड़ के मुसाफिर नही हैं और समझते हैं की हमारे लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या है, शायेद तभी अभी हम इतनी आसानी से अमेरिका के चंगुल में नही फँस सके हैं और उम्मीद यही करुँगी की ऐसा कभी न हो लेकिन हालात जो हैं वो बहुत दुःख देते हैं...
शुक्रिया उनका भी जो इस नज़रिए में मेरे साथ नही हैं लेकिन मुझे पढ़कर अपना नजरिया सामने रखा है,मैं बस इतना कहना चाहती हूँ की मैं आप के नज़रिए की भी उतनी ही इज्ज़त करती हूँ लेकिन ज़रा इतना सोच लें,खुदा न ख्वास्ता कहीं ऐसा ना हो आने वाले दिनों में हमारा हश्र भी पकिस्तान जैसा हो, तरक्की अपने दम पर हो तो खुश करती है..मांगे की दौलत हो,खुशी हो,औलाद हो या तरक्की...कभी अपनी नही हो सकती...इसलिए careful रहने की ज़रूरत है.
एक बार फिर से बहुत बहुत शुक्रिया...

अंगूठा छाप said...

इन लम्बी लम्बी टिप्पणियों के बाद तुुम्हारी इस पोस्ट पर मुझे अब डाॅ अमर कुमार की टिप्पणी का इन्तजार है रक्षंदा।

इस पूरे प्रकरण का निबटारा वही करेंगे और उन्हीं का फैसला मान्य होगा।


(फिलहाल अंगूठा छाप का मूड नहीं बन पा रहा इस ड्रामे पर कुछ कहने का।)

राकेश जैन said...

HI,
Likha to gaya hai , kafi kuchh sahi hai, par ye paricharcha ka vishay ho to bahut se naye pahlu jud sakte hain, sirf aap ki bat ko pukhta kah dena is masle se berukhi ho jayegi. aapka lekhan to hamesha ki tarah purzor hai, shubh kamnayen.

vipinkizindagi said...

खुले दिल से लेखन बेबाकी से लेखन की सराहना करता हूँ

डा. अमर कुमार said...

मेरी टिप्पणी की ख़्वाहिश की गयी है.... जाने क्यों ?..मैं कोई आलिम फ़ाज़िल तो नहीं,वरना यहाँ क्या कर रहा होता ?

पहली बात - ये अंगूठा-छाप बड़ी बाँहमरोड़ किसिम के जीव लगते हैं, खुले आम ज़बरदस्ती पर आमदा हैं ।
दूसरे यह कि - यहाँ डिस्क्लेमर लगाने का प्राविधान नहीं है, नहीं तो मैं अब तक के बीस टिप्पणीकारों से पूछता, कितनों के बच्चे सरस्वती विद्यामंदिर में शिक्षा पा रहे हैं ? स्कूल चुनने का विकल्प उस अबोध के पास तो नहीं था, यह अभिभावक का निर्णय ही है ।
फिर ऎसी सुबहः के आलम पर स्यापा क्यों ?
तीसरी बात - कोई मुझे समाजद्रोही भले करार दे, किंतु यह सच है कि मानसिक गुलामी की चाटुकारिता हमारी रग़ों में सदियों से रच बस गयी है । काश कि ऎसे दिलों का एम्पुटेशन कर पाना संभव होता ?
चौथा नुक्ता - हर कोई इतना आत्मकेन्द्रित हो गया है, या दाल रोटी की चिंता में उलझा दिया गया है कि देश की बातें आरूषि तक दुनिया की बातें आई.पी.एल. तक और समाज की बातें किन्हीं मुखर्ज़ी साहब के ज़वान बेटी के लव एफ़ेयर्स तक सिमट कर रह गयी हैं । मेरे पास ऎसे कोई सबूत भी नहीं हैं कि मैं दावा कर सकूँ कि इसमें अमेरिका का दख़ल है, क्या कोई ऎसा सनद देगा,क्या ?
पाँचवाँ बिन्दु - क्यों ऎसे हालात हैं कि देश और देशहित की बातें करने वाले शक की निगाह से देखे जाने लगे हैं ? शा्यद CIA ने बेईमानी के वाइरस का छिड़काव इस रीढ़विहीन पीढ़ी पर कर दिया है,कुछ भी असंभव नहीं है ?
छठा ठहराव क्षमायाचना का - यह रक्शंदा का ड्राइंगरूम है, बाकी बानगी अपने अखाड़े में ! मूड तो मेरा भी नहीं है.. फिर भी आज इतना ही सही !
सातवाँ सच यह कि यहाँ मुझे रक्शंदा जी Pretty Woman के रूप में ही दि्खीं...या दिखती रहीं । पता नहीं क्यों...यह आस लगाये हूँ कि यह Pretty .... कभी तो मनभावन नारी में परिवर्तित होगी
... ... ...और होगी ज़रूर !

अंगूठा छाप said...
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अंगूठा छाप said...

देखा रक्षंदा,
मैंने कहा था कि नहीं...
इस मामले पर डा अमर कुमार ही कुछ पते की बात करेंगे...

दूसरे अन्य खिलाड़ियों की माफिक अंधी और रुटीन टिप्पणी वे नहीं देते। सामने वाले के दिल में उतरते हैं, तैरते हैं, समझते हैं फिर टिप्पणी बख्शते हैं वे...

अक्खा ब्लाॅग जगत के (जहां तक मेरा अनुभव है) सर्वाधिक स्पष्ट, चुटीले और मजेदार टिप्पणीकार हैं वे। उनके आने से महफिल में रौनक सी आ जाती है, ऐसा मैं महसूसता हूं मेरा खयाल है और लोग भी इससे सहमत होंगे।

उनके सातवें सच से अपन यानी अंगूठा छाप भी सहमत हैं...।

कीप इट अप!

अंगूठा छाप

rakhshanda said...

जब 'अंगूठा छाप ' ने लिखा की ये तो एक बहस का मुद्दा है और इसे अच्छी तरह सुलझाने का काम अमर जी ही कर सकते हैं तब अंदाजा नही था कि अमर जी न सिर्फ़ इसका फ़ैसला करेंगे बल्कि इस कदर बेबाकी और सच्चाई से अपना फ़ैसला सुनायेंगे, वो कहते हैं न कि दूसरों के हलके से दाग देख कर भी चीख पुकार करने वाले कभी गौर से आईने में अपना चेहरा देखें तो उन्हें अहसास होगा कि सब से पहले तो अपने दाग के इलाज की ज़रूरत है...आपके पहले से लेकर सातवाँ सच पूरी तरह आईना दिखाने वाला है.
अब जब सच की अदलत में पेश हो ही चुकी हूँ तो बता दूँ कि blog का नाम 'pretty woman' रखते हुए कभी सोचा ही नही था अमर जी कि ये दुनिया मेरे दिल के इतने करीब हो जायेगी कि मैं सोते जागते बस इसी दुनिया में जीती रहूंगी...यकीन मानिए...ऑरकुट से लेकर facebook जैसी साईट पर अपनी प्रोफाइल बना कर कुछ दिन दिलचस्पी लेकर और फिर बोर होकर एकदम से दूर हो गई,कभी पलट कर नही देखा कि क्या हुआ...बस यहाँ भी लगा, ऐसा ही होगा...ना नाम रखते हुए कुछ सोचा, न ही कुछ और...बस उस वक्त जो दिमाग में आया , लिख दिया...लेकिन आज जब आपने अहसास दिलाया तो महसूस हुआ कि मुझे बाकि लोगों को देखने से पहले ख़ुद अपने बारे में भी सोचना चाहिए...नाम बदलने का कोई आप्शन होता तो सब से पहले मैं यही करती, क्योंकि ख़ुद मुझे भी ये नाम कुछ दिनों से अटपटा सा लगने लगा है...लेकिन आपको एक बात बताऊँ? मेरे ब्लॉग के नाम पर मत जाइए,मुझे फोटो में देख कर भी अंदाजा मत लगाइए...असली जिंदगी में मैं इस से बहुत मुख्तलिफ और थोडी सी दकियानूसी सी हूँ...लेकिन एक बात माननी पड़ेगी, आपकी काबलियत का इतना अंदाजा नही था मुझे,और आपने जो कहा कि आप कोई आलिम फाजिल नही हैं तो अमर जी,इसका फ़ैसला आप नही कर सकते, इसका फ़ैसला तो हम जैसे लोगो पर ही छोड़ देन तो अच्छा है,और हाँ, आपके अखाडे में तो इल्म और ज्ञान की बारिशें होंगी ही, कुछ बूँदें हम प्यासों को तोहफे में देते जाइए....हम जैसे लोग सैराब हो जायेंगे...उम्मीद है आप ऐसा ही करेंगे....बहुत शुक्रिया...

rakhshanda said...

अंगूठा छाप जी, उम्मीद है आपको आपके एतराज़ का जवाब मिल गया होगा और आप ने मुझे माफ़ भी कर दिया होगा...वैसे एक बात माननी पड़ेगी,वाकई आपने सच कहा था कि इसका फ़ैसला अमर जी करें तो सही होगा...उन्होंने तो सबको उनका असली चेहरा दिख दिया, कुछ इस तरह कि कितनी ही देर हम अपने बारे में सोचते रह जाएँ और साथ ही ये भी कि किस तरह ख़ुद को इस अंधी दौड़ से अलग कर के अपने वजूद का अहसास दिलाएं...थैंक्स...एक रेकुएस्ट है आपसे....ज़रा अपना नाम तो बताइये...ये क्या अंगूठा छाप , अंगूठा छाप लिख रही हूँ...प्लीज़

awdhesh pratap singh said...
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अंगूठा छाप said...

रक्षंदा,
एक मशविरा दूं तुमको...


मानोगी?

अंगूठा छाप

rakhshanda said...

सर,क्यों नही,आप का मशवरा सर आंखों पर....ज़रूर दें...

अंगूठा छाप said...

वो ये कि...

तुमको अपने चिट्ठे पर से ये तरह तरह के (तुम्हारे) फोटो हटा देना चाहिए...

पता नहीं क्यों कुछ अनावश्यक से जान पड़ते हैं...

ज्यादा मन हो तो बस एक फोटो लगा लो कोई सादगीभरा। यदि ब्लैक/व्हाइट अगर हो तो ज्यादा ठीक...
तुम इतना संजीदा लिखने की कोशिश कर रही हो,शायद इसीलिए ये खयाल मन में उपजा...

(मुझे पता है तुम शायद ही हटाओगी, लेकिन मशवरा भी तो मैंने तुमसे पूछ के ही दिया है।)


अच्छाजी! गुडबाय! राम-राम...

अंगूठा छाप said...

विचार अच्छा न लगा हो तो रियली सॉरी!


...आखिर को हूं तो अंगूठा छाप ही ना!