अब नही जागे तो ये मौसम हमें खा जाएगा
धुप चल कर आ गई है साया-ऐ-दीवार तक
धुप चल कर आ गई है साया-ऐ-दीवार तक
एक खौफ का साया है हर तरफ, अजीब सा माहौल है शहर का. लब खामोश हैं लेकिन फजाएं इस खौफ की आहट सुन रही हैं. एक निगाह दूसरी निगाह से बडे खामोश से सवाल करती है और जाने क्यों दूसरी निगाह पहली निगाह के खामोश सवालों में छिपे इसरार(राज़) को समझ कर चुपचाप निगाह चुरा लेती है.
ये कैसे मनहूस सायों ने अचानक गिरिफ्त में ले लिया है हमारे मुल्क को. चंद दिन और दो शहरों में सीरियल बम धमाके.
धमाकों के बाद जगह जगह बमों के मौजूद होने की खबर.
कहने को जान और माल का ज्यादा नुक्सान नहीं हुआ लेकिन जान एक कि जाए या दस कि, मरता एक हिन्दुस्तानी ही है न…गम एक का हो या कई का, गम तो गम होता है. हैरानी की बात ये है कि शहरों के मुख्तलिफ हिस्सों में इतनी जगह बम रखे जाते हैं और हमारी सीक्रेट एजंसियां जो इसी काम की तनख्वाहें लेती हैं, उन्हें गुमान तक नहीं होता।
ज्यादा जान माल का नुक्सान नहीं हुआ , इस से मुतमईन हो कर खुश फहमी पालने कि ज़रुरत नहीं है, क्योंकि इस मे भी हमारी काबिल एजंसियों का कोई हाथ नहीं है। जिन्होंने ये धमाके किये, उनका मकसद ही ज्यादा जान-ओ-माल का नुक्सान न होने देना रहा होगा.
लगता तो यही है कि असल मकसद सिर्फ अपनी मौजूदगी का खौफनाक अहसास कराना रहा होगा वर्ना न तो हमारी सीक्रेट एजंसियां इतनी मुसैद हैं न ही धमाके करने वाले इतने बेवकूफ।
जिंदगी का काम ही है चलते रहना। हादसे खौफनाक हों या मामूली, कोई हादसा जिंदगी की रफ्तार नहीं रोक सकता।
लेकिन जिंदगी की रफ्तार में अंदेशों के कुछ स्याह साए ज़रूर उभर आये हैं। कहीं तन्हा साइकल देख कर लोग उलझन में पड़ जाते हैं। सिनेमा के नाईट शोज़ पर रोक लग चुकी है। भीड़ भाड़ वाली जगहों पर जाने से लोग परहेज़ कर रहे हैं।
जिंदगी नार्मल होते हुए भी नार्मल नहीं रह गयी है।
खुदानाखास्ता इसी तरह के दो चार हादसे और हो जाते हैं तो लोगों कि जिंदगियों में ख़ुद एतमादी के रंग ख़त्म हो जायेंगे और वो जिंदगी जिस में ख़ुद एतमादी का रंग न हो, मौत के बराबर होती है।
ऐसा नहीं होना चाहिए, ये मंज़र बदलना चाहिए। कुछ ऐसे कदम जो वाकई इस मकसद से उठाये जाएँ जो आगे चल कर ऐसे हादसों को रोकने में मददगार साबित हों।
ऐसे खतरनाक हालात में सियासत को पसे -पुश्त(पीछे) डालकर अपने अपने मुफाद(लाभ) भूलकर संजीदगी से सोचने कि ज़रुरत है.
हंसी आती है जब कोई हादसा होता है और इल्जाम बडी आसानी से पकिस्तान और आई.एस.एस.आई को देकर लोग खुद को हर इल्जाम से बरिउल्ज़िम्मा कर लेते हैं. और तो और ऐसे में हमारा मीडिया भी ऐसे लोगों के साथ होता है.
जो पाकिस्तान खुद दहशत गर्दी की आग में जल रहा है, वो अपने बारे में सोचने के बजाये दुसरे मुल्कों में आग लगता फिरेगा, क्या ये बात पूरी तरह गले उतरती है?
इस में कोई दो राय नहीं है कि माजी में पाकिस्तान ऐसी हरकतों को बढ़ावा देने में शामिल रहा है लेकिन सिर्फ इसी वजह से हर बार बगैर कोई और रुख देखे एक ही रुख को देखते रहना सिर्फ हमारे लिए नुकसान दायक होगा. मुस्लिम हलकों में इसे बी.जे.पी की कारस्तानी बताया जा रहा है. दलील ये दी जाती है कि जो पार्टी रिश्वत ले सकती है, अपने मुफाद के लिए अपने ही मुल्क को फिरका परस्ती की आग में झोंक सकती है, बेगुनाह मासूम इंसानों की जानें ले सकती है, पार्लिमेंट हाउस में नोटों की गड्डियों के साथ बेशर्म मुजाहरा कर सकती है वो अपने मुफाद के लिए किसी भी हद से गुज़र सकती है.
पता नहीं इस में सच क्या है, क्या नहीं. लेकिन सच जो भी है, हमारे सामने आना चाहिए.
बहुत हो चुका , अब मसले को पूरी तरह हल होना चाहिए. अपने मुफाद को भूलकर खुद अपने गरीबां में भी देखने की ज़रुरत है.
इस अहसास से दामन छुडा कर कि कहीं गरीबान में अपनी सूरत, बदसूरत न दिखाई पड़े.
अपना एहतेसाब करना होगा, ये देखना होगा कि कहीं हमारी लम्हों की गलती हमें सदियों की सजा का मुस्तहेक तो नहीं ठहरा गयी है?
25 comments:
हम चाहकर भी कुछ नही कर सकते हैं.....इसी बात का अफ़सोस है और जो कर सकते हैं वो करते नही है उससे बड़ा अफ़सोस...
"हादसे खौफनाक हों या मामूली, कोई हादसा जिंदगी की रफ्तार नहीं रोक सकता। ".....
bahut achcha likha hai.....
एक गंभीर विषय पर बहुत सार्थक पोस्ट लिखी है आपने...ऐसे हादसों में जिस घर का चिराग भुजता है उस से पूछिए दर्द क्या होता है और कैसे सहा जाता है...
नीरज
कभी सामने आकर के नज़रें तो मिलाये वो,
मुज़रिम है वही जिसकी झुक जाये नज़र पहले.
मोहतरमा हमारे शहर अहमदाबाद का नाम लेने से इतना गुरेज़ क्यों.कहीं ज़बान नापाक न होजाये.
मुस्लिम हलकों में ये बात है कि खास बी.जे.पी की कारस्तानी हैं जैसे कि पहले गोधरा था.और हम अहमदाबाद के लोग इतने बेवकूफ कि बदमाशों को पहिचाने बिना उनकी नवाज़िश कर रहे हैं.
आप किस हल्के की हैं. आप का अपना नज़रिया कुछ है भी या नहीं.
ये बात बिल्कुल साफ है कि ये टुच्चे शहर के हैं. जिन्हें मस्ती चढी है और अवाम में नफ़रत बो रहे हैं.खाते कहीं का गाते कहीं का.
अदब की जमीन किसी मज़हब या जाति से परे होती है अमन के दुश्मन कोई भी हो सकते हैं.उन्हें किसी जाति की परिधि में रखना बेमानी है.हम लोग अपने ग़मों से रंज़ूर हैं हमारे ज़ख्मों पे मरहम नल लगा सकें तो कोई बात नहीं नमक मिर्च तो मत छिड़किये.आमीन.
खौफ ,डर इस कदर है कि अभी कुछ देर पहले सरोजनी नगर मार्केट गई थी ..इतना शांत इस मार्केट को मैंने कभी नही देखा वह भी शनिवार को ..जिंदगी चलती तो है पर दहशत के साए में ...ठीक लिखा है आपने
एक २२ सालका नौजवान जिसकी सगाई अगले दो दिन बाद होनी थी ,एक चोटी बछि जो कैंसर से पीड़ित है उसका पिता जो दवाई लेने के लिए बाहर निकला था ..एक ऐसा इन्सान जो हर हादसे पर खून देने पहुँचता था .....दो दोस्त जो हॉस्पिटल मदद करने पहुंचे थे....कितने जीवन ....कितने परिवार.....इस दर्द को समझना मुश्किल है...
मैं नहीं मानता कि हम कुछ नहीं कर सकते। हम बहुत कुछ कर सकते हैं। आप ने वह कविता पढ़ी होगी।
जब भेड़िया गुर्राए
मशाल जलाओ!
.
टिप्पणी की अभी कोई ज़ल्दी नहीं है,
अभी तो पोस्ट परवान चढ़ ही रही है ।
मैं तो यूँ टपक पड़ा कि रख़्शंदा मैडम जी को इत्तिला दे दूँ कि..यह डालरपिकर डाट काम वाले बड़े ही हरिरामी हैं ।
अपने जीमेल एकाउंट में देख लो जहाँ इस
टिप्पणी की मेल कापी पड़ी हो, उसे फ़ौरन
से पेश्तर स्पैम मार्क कर दो ।
मैं जाने क्या आँय बाँय शाँय नहीं बक रहा हूँ,
जाकर इन http://www.dollarpickers.com
से आयी पहले नम्बर की टिप्पणी वाले की ख़बर ले, लड़की !
क्या आपने अनुराग कश्यप की "ब्लॅक फ्राइडे" मूवी देखी है?? वो फिल्म काफ़ी सारे सवालो का जवाब देती है..
kya kare kuch nahi kar sakte. jindgi rukti nahi hai.
sach hum aese me chahkar bhi kuch nahi kar sakte.
वो ऊपर से देख रहा है -
सारे ज़ुल्मोँ का हिसाब
लिख रहा है --
-लावण्या
ibtdaye isq hai rota hai kya aage aage dekhiye hota hai kya.intizar karo abhi bahut barbadi baki hai.
नई सुबह का इंतजार करे. जीने के लिए हौसला बनाये रखे,
गर खुदा ने चाहा तो एक दिन हर जगह अमन चैन होगा.
आपकी पोस्ट अच्छे विचारो से लबरेज सटीक है .
बहुत सार्थक पोस्ट है.
शुक्रिया .
इन फ़िरकापरस्तों ये जरा भी इलहाम नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं. भगवान ना करे कि उनके घरों के भी चराग इन्हीं धधकते शोलों में गुम हो जाये, तो भी क्या उनके दिल नहीं पिघलेंगे?
अमर जी, बहुत अच्छा लगा ये जानकर कि मेरी इतनी केयर करना वाला कोई अपना मौजूद है,सच कहूँ तो लफ्ज़ नही हैं मेरे पास...ये आपका अपनापण है जो आपके हर लफ्ज़ से झलकता है...और मेरी खुशकिस्मती...शुक्रिया कह कर इसे छोटा नही करुँगी...जब आप मेरे साथ हैं तो मुझे ज़्यादा फ़िक्र नही है...उम्मीद है आपका साया हमेशा मेरे साथ रहेगा...
अपना कमेन्ट कब दे रहे हैं?
@dollerpicker.com...मुहतरम,आप जो भी हैं,और आपको जो भी मेरी इस पोस्ट पर कहना है वो आप कमेन्ट के रूप में कह सकते हैं,और इसके लिए आपको मेरे ऑनलाइन होने का इंतज़ार नही चाहिए...ध्यान रहे...आप कमेन्ट देने के लिए आजाद हैं लेकिन सिर्फ़ मेरी पोस्ट पर....अगर ऐसा नही है तो मुझे आपको स्पैम में डालने का फ़ैसला करना होगा. thank you
मेरी पिछली पोस्ट पर मनीष जी ने कुछ यूँ अपना कमेन्ट दिया था, जिसका जवाब मैं टाइम की कमी कि वजह से नही दे पाई थी...लेकिन जवाब ज़रूर देना था.
मुनीश ( munish ) said...
SO be it . may god bless! Anyway y r u alvez fuming n fretting , lamenting the sorry state of things around us! itz a beautiful world out there n u r alvez cribbing, why? will this discussion make her life better? think positive baby n keep ur spirits high. if u know something about Pasta, noodles or simply rice please tell me that as well and i'll thank u for that.
जनाब मनीष जी,सब से पहली बात तो ये कि आगे से मुझे बेबी कहने से परहेज़ करें..वेस्टर्न कल्चर में इसे बड़े आम नज़रिए से देखा जाता है लेकिन हमारे कल्चर में ऐसे अलकाब मायूब(ग़लत) समझे जाते हैं.और मेरे ख़याल में ग़लत हैं भी. आपकी दूसरी बात कि itz a beautiful world out there n u r alvez cribbing, why? तो मनीष जी, आप लोगों के लिए होगी खूबसूरत ये दुनिया...जो सिर्फ़ अपने लिए जीते हों,ज़रा बताइए,बिलासपुर के नैना देवी मन्दिर में मची भगदड़ में जो १४७ बेगुनाह मासूम बेवक्त मौत का शिकार हो गए..अखबारों में उन मासूमों कि लाशें देख कर भी आप लोगों को दुनिया की खूबसूरती का उतना ही अहसास होता है?
इराक और फिलिस्तीन में रोज़ मरने वाले बेगुनाह इंसानों कि मौत की खबरें चीख चीख कर इस दुनिया कि बदसूरती का एलान करती हैं..आप जैसे लोग किस दुनिया कि बात कर रहे हैं?
और जहाँ तक ये कि डिस्कशन से हालत बेहतर हो जायेंगे, का जवाब ये है कि अगर खुदा न करे आपका कोई बहुत अज़ीज़ न रहे..या उसे कोई हादसा पेश आजाये तो हम ये सोच कर कि आपके रोने से या दुःख ज़ाहिर करने से वो वापस नही आएगा या उसका दर्द कम नही होगा, क्या आप खुशी मानाने लग जायेंगे?
नही...क्योंकि जब इंसान पर ख़ुद मुसीबत आती है तो दुनिया का सब से दुखी प्राणी बन जाता है...वो ख़ुद तो दुखी होता ही है, चाहता है कि सब उसके दुःख में शामिल रहें...ये खुदगर्जी नही तो क्या है?
और जहाँ तक नूडल और पास्ता का सवाल है वो आपको बहुत साडी रेसिपी बुक में मिल जायेगा...
आपसे रेकुएस्ट है कि अगर आइन्दा मेरे ब्लॉग पर आयें तो प्लीज़ ऐसे फिजूल अलकाब (बेबी) से परहेज़ करें...thank you
ek aurat me jo narmi aur jo boldness honi chahiye vo dona aap me hai...maaf kijiyega mai post se alag hat kar bol rahi hu.n lekin mera yahi bolne kaa man ho raha hai... Khuda bachaye buri nazar se (aapki andaz-e-baya.n ko)
बहुत सार्थक पोस्ट-आतंकवाद के साये में जीना और इन हरकतों और हादसों से बिखरे परिवारों को बहुत करीबी से महसूसा है, जाना है. कुछ तो कभी तो हल निकलेगा, इसी उम्मीद में जिये जा रहे हैं. बहुत अच्छा लिखा है.
आपकी लेखनी का जवाब नहीं मैं कोई लाइन नहीं ढूँढ़ पाया जिसकी तारीफ़ न करता!
really a very thought provoking post and i agree not to disagree !
so far ur objections are concerned,well, certainly i'll be cautious in future. happy blogging:)!
pity of this...this is all about politician issued....that all
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