Thursday, October 9, 2008

दुर्गा पूजा की वो सुनहरी शाम, जब मैंने पहली बार साड़ी पहनी थी......


यादें जालिम भी होती हैं, तो हसीन भी होती हैं. दिल को जितना तड़पाती हैं, उतना ही सुकून भी दिया करती हैं.

कभी कभी तो ये यादें इंसान के अन्दर एक दुनिया सी आबाद कर देती हैं. यादों का मेरी जिंदगी में बड़ा अहम् रोल है. यादों में मैं जीती तो नही, लेकिन कुछ यादें जीने का बहुत बड़ा जरिया भी हैं मेरे लिए.

खैर आज तो खुशी का दिन है तो क्यों ना कुछ खुश गवार यादों की बस्ती में डेरा डाला जाए.

त्योहारों का मौसम है. हर तरफ़ खुशियाँ अंगडाइयां ले रही हैं. ये त्यौहार होते ही ऐसे हैं. गम के हर बादल को हटा कर अपनी जगह बना लेते हैं. एक दिन के लिए इंसान हर गम, हर अंदेशे भुला कर बस इन्हीं का हो जाता है.

दशहरा जब भी आता है, मुझे कोलकाता की याद आती है. मेरा वो शहर जहाँ मेरा बचपन बीता.जिंदगी के एक एक पल को जहाँ बड़ी शिद्दत से जिया मैंने. जवानी की नाज़ुक सी कोंपल ने धीरे से इसी शहर में छुआ था मुझे.

कोलकाता याद आता है तो दुर्गा पूजा की याद अपने आप दिल के झरोखे में अपनी झलक दिखला जाती है.

कोलकाता की दुर्गा पूजा, जब भी याद आती है दिल बड़े खूबसूरत अंदाज़ में धड़कने लगता है. इस मौके की जाने कितनी हसीन यादें मेरे साथ जुड़ी हुयी हैं.जिन्हें मैं चाहूँ भी तो भूल नही पाती.

त्यौहार आने की आहट ही दिलों को उमंगों से भर देती थी. चारों तरफ़ जैसे एक अलग सा नशा छा जाता था. पता नही क्यों, पर ईद की ही तरह ये त्यौहार मुझे अपना त्यौहार महसूस हुआ करता था. वैसी ही तैयारी हम इसके लिए करते थे, नए कपड़े, ज्वेलरी दोस्तों के लिए तोहफेओह .आज सोचती हूँ तो बड़ा अजीब सा लगता है. आख़िर क्यों, आज हम पहले की तरह इस त्यौहार से अपने आप को जुडा महसूस क्यों नही कर पाते ? सोचती हूँ तो वजहें बड़ी साफ़ साफ़ दिखायी देने लगती हैं.

दरअसल कोलकाता ही असली मायनों में वो शहर है जहाँ असली सेकुलरिज्म दिखायी देता है. एक अकेला शहर जहाँ ईद जब आती थी तो लगता था हम किसी मुस्लिम शहर में चले आए हैं. सारा शहर सज उठता था. हर तरफ़ रौनक और खुशियाँ. हर मज़हब के लोग इस त्यौहार से जुड़े दिखायी देते थे. बंगाली हों या ईसाई, सबको सेवईयां खरीदते देख सकते हैं आप,दुर्गा पूजा में सारा शहर दुल्हन की तरह सज जाता था तो वैसी ही सजावट और खूबसूरती क्रिसमस पर दिखायी देती थी. शायद किसी को यकीन ना आए लेकिन हम बच्चे ही नही हमारी सारी फैमिली क्रिसमस पर चर्च जाती थी. वहां जाकर बड़ा ही सुकून और खुशी का अहसास होता था.

इसे वहां के लोगों के दिलों की खूबसूरती से ज़्यादा वहां की कम्निस्ट सरकार जादू कहा जाए तो ग़लत नही होगा.

मैं नही जानती कि अब बुद्धदेव भट्टाचार्य का कोलकाता भी वैसा ही है या नही लेकिन मैंने ज्योति बासु का कोलकाता देखा था और मैं पूरे यकीन से कहती हूँ की अगर ज्योति बासु इतने लंबे अरसे तक बंगाल में राज करते रहे तो इस में कोई हैरानी की बात नही थी. वैसा मुख्यमंत्री पता नही हम दुबारा कभी देख पायें या नही .

वजह साफ़ है, जहाँ हर मज़हब का एहतराम होगा, जहाँ किसी के साथ नाइंसाफी नही होगी , कोई कोम अपने आप को दूसरे से कमतर नही महसूस करेगी, वहाँ प्यार और मुहब्बतों के जज्बे अपने आप ही जग जाते हैं.

दुर्गा पूजा की एक यादगार शाम आज भी मेरे दिल में मुस्कुरा उठी है.

मेरी एक दोस्त थी, मोह चटर्जी. उसके बेपनाह इसरार पर मैं उसके घर गई थी. काफी धनवान फैमिली थी उनकी, इसी लिए हर साल दुर्गा पूजा का शानदार इंतजाम उनके यहाँ किया जाता था. बेहद खूबसूरत पंडाल जिसे देखकर किसी किले का सा अहसास होता था, में शानदार स्टेज पर संगमरमर की दुर्गा जी, जिनकी खूबसूरती देखते ही बनती थी. सफ़ेद सुर्ख और सुनहरे ज़रदोजी के काम वाली साड़ी और गोल्ड की भारी ज्वेलरी में वो इतनी हसीन नज़र आती थीं की बस नज़रें उन पर से हटती ही नही थीं.

बहरहाल उस शाम ममा की तबियत ठीक नही थी इसलिए मुझे बहन के साथ जाना पड़ा था.हमें देख कर मोह बहुत खुश थी. हमेशा की तरह वो बड़ी खूबसूरत साड़ी में ज्वेलरी पहने बड़ी प्यारी लग रही थी.

मुझे देख कर उसने जिद करनी शुरू कर दी की तुमने साड़ी क्यों नही पहनी. मैंने लाख बहाने बनाए लेकिन उसने मेरी एक नही सुनी और अपनी मम्मी की साड़ी पहनाने की फरमाइश करने लगी. सच कहूँ तो इस से पहले मैंने कभी साड़ी न पहनी थी ना ही पहनने की सोची थी. हालांकि मम्मी हमेशा साड़ी ही पहनती थीं लेकिन हमारे यहाँ शादी से पहले साड़ी पहनने का कोई रिवाज नही था. कुछ ख़ुद मुझे भी साड़ी बड़ी झंझट का लिबास लगा करता था(सच कहूँ तो आज भी…) लडकियां फेयरवेल पार्टी में बड़े शौक से साड़ी पहनती हैं, लेकिन मैंने उस मौके पर भी लहंगे से काम चलाया था.

लेकिन उसने कुछ इतने मान से मुझ से ये फरमाइश की कि मैं चाह कर भी उसेनानही कह पायी. मुझे पहननी पड़ी, इतनी हँसी आरही थी, वो पहना रही थी और मुझे गुदगुदी हो रही थी. थोडी देर में ही उसने बड़ी महारत से मुझे साड़ी पहना दी और सच पूछिए तो जब मैंने खुदको आईने में देखा तो एक पल को लगा जैसे मैं किसी और को देख रही हूँ. एकदम से काफी बड़ी सी लगने लगी थी, हमेशा से एकदम अलग. अपना आप अच्छा तो लग रहा था लेकिन साथ शर्म भी आरही थी कि ऐसे लिबास में बाहर सब के दरमियान कैसे जाउंगी?

आँचल से खुको ढकती, कभी आँचल तो कभी चुन्नट और कभी ज्वेलरी संभालती कभी इधर उधर देखती मैं आज भी अपनी उस कैफियत को भूल नही पाती. मेक -अप से चिढ़ने वाली लड़की को आज उसने ज़बरदस्ती से मेक -अप भी कर डाला था. इस में मोह का साथ मेरी बहन ने भी भरपूर तरीके से दिया था. जी भर के दोनों को कोसती हुयी मैं हिम्मत कर के बाहर आई थी. पंडाल में पहुँची तो एकदम जी चाहा, भाग जाऊं, ओह मेरे खुदा, इतनी नज़रें, सारी की सारी जैसे मुझ पर जम सी गई थीं, ऐसा लग रहा था, जैसे सबको पता हो कि इस लड़की ने पहली बार साड़ी पहनी है.

बड़ी मुश्किल से पसीना पोंछती खुदको संभालती, मैं स्टेज तक पहुँची थी. पूजा अपने शबाब पर थी, भक्ति में डूबे सब नाच रहे थे, मोह की फैमिली के कई लोग आए हुए थे, कुछ विदेश से भी ख़ास तौर से इसी मौके पर आते थे. मोह ने बड़ा प्यारा डांस किया. उसका डांस देखते देखते मैं अपनी सारी घबराहट भूल गई थी. हम सब जैसे एक रंग में डूब गए थे, मुहब्बत का रंग, भक्ति और विशवास का रंग. लेकिन तभी एक अजीब बात हुयी, मोह का एक कजिन, जो विदेश से आया था, उसने अचानक मेरे पास आकर मुझे भी डांस करने को कहा, मेरी सारी बौखलाहट फिर से वापस आगई, डांस और मैं?

वो भी इतने सारे लोगों के बीच?


लाख मना किया लेकिन वो बन्दा भी अपने आप में एक था, इस से पहले कि मैं रोना शुरू कर देती, मोह की मम्मी ने आकर उसे समझाया. वो उसे किसी काम के बहने ले गयीं तब मेरी जान में जान आई, मैंने मोह को कड़ी नज़रों से देखा जो हँसे जारही थी. उसके बाद मैं वहां नही रुकी, उसकी जिद से इस कदर घबरा गई कि मामा की तबियत का बहाना बनाकर जल्दी वहां से निकल आई. यहाँ तक की साड़ी पहने पहने ही घर आगई. मम्मी सो रही थीं. जल्दी जल्दी कपड़े बदले और तब जान में जान आई.

बाद में मोह ने बताया था कि उसका वो कजिन वापस आकर काफी देर मुझे पूछता रहा. मुझे बहुत हँसी आई.

आज भी वो दुर्गा पूजा याद आती है तो मुस्कुराए बिना नही रहती. पहली बार साड़ी पहना और फिर उस लड़के की जिद……मेरा बौखलाना, इतने लोग...उफ़

आज बड़ी शिद्दत से कोलकाता, अपनी दोस्त और दुर्गा पूजा को मिस कर रही हूँ. सोचती हूँ, काश मुहब्बतों और अपनाइयत की वो खुशबू हमारे हर शहर को वैसे ही अपनी आगोश में ले ले, जैसे मेरे उस शहर को लिए थी.जिसकी खुशबू में मेरा आज भी तं मन महका हुआ है....काश..

Sunday, October 5, 2008

सारे त्योहारों की ज़िम्मेदारी हमारे ही जिम्मे क्यों?

रमजान में अफ्तार करने के बाद आराम करने को दिल चाहता है. होता ये है कि दिन भर खाली पेट में जब गिजा (खाना) जाती है तो जिस्म में सनसनाहट पैदा होती है और थोडी गुनूदगी (नींद जैसी) कैफियत पैदा होजाती है. ज़ाहिर सी बात है, ऐसे में सब में ही आराम की ख्वाहिश जागती है लेकिन ज्यादातर होता ये है कि मर्द हजरात नमाज़ वगैरा से फारिग होकर मज़े से आराम करने लगते हैं और ओरतें अफ्तार के बाद खाने की फ़िक्र करने लगती हैं. खाना जल्दी तैयार होना चाहिए क्योंकि जल्दी सोना है, तभी सहरी में उठ सकेंगे.
सहरी में फिर खिलाने की फ़िक्र –चाहे हल्का फुल्का ही सही.
इतनी ड्यूटी निभाने के बाद भी अगर कोई ओरत पूरी तरह से इबादत कर लेती है तो वाकई उसके जैसा इबादत गुजार होने का कोई मर्द तसव्वर भी नही कर सकता.
ये तो रही रमजान की बातें.
आखिरी रोजे की अफ्तार से फारिग होते ही मेरी ममा आराम वगैरा भूल कर ईद की तैयारी की फ़िक्र में लग गयीं .
अब हालत ये है कि कभी बुआ (cook) को हिदायत दे रही हैं, कभी हम लोगों पर नाराज़ हो रही हैं कि हमें तो कल की कोई फ़िक्र ही नही. अब हम भला क्या करें, एक तो दिन भर का रोजा , ऊपर से काम इतने कि समझ में नही आरहा कि शुरू कहाँ से करना है?
दही बड़ों के लिए दाल भीग गई है, उसे पीसना है, छोले के लिए मसाला तैयार करना है, इमली की अखरोट और चिरौंजी वाली चटनी इसी वक्त तैयार होनी है, सेवइयां भून कर रखनी हैं. शामी कबाबों का मसाला तैयार करना है. यहाँ देहरादून में एक अलग तरह की सेवइयां बनती हैं जिसे' शीर खोरमा ' कहते हैं. ये खीर जैसी होती है, बस ऊपर से उस में थोडी भुनी सेवइयां डालनी होती हैं.
इधर दादी जान का आर्डर है कि मुगलई सेवइयां(खुश्क खोये वाली) तो ज़रूर बननी हैं. बाबा का ये एलान कि ‘ईद बिल्कुल सादगी से मनानी है’’ दूर कहीं कोने में रखा हैरानी से इस सादगी को देखे जारहा है.

पापा का कहना था कि मेहमान अगर खाना खाना चाहें तो उसका इंतजाम भी होना चाहिए. तो लीजिये जनाब, अब चिकन बिरयानी भी बनेगी . खैर पापा ने कहा कि बिरयानी तो सुबह उनका एक आदमी आकर तैयार करेगा. लेकिन मसाला वगैरा तो तैयार करना ही होगा. थोडी देर बाद पापा एक और इजाफा करने आ पहुंचे..’’ यार मेहमानों में जो लोग वेजेटेरियन होंगे उनके लिए थोड़े बर्गर वगैरा का इंतजाम कर लो. लीजिये यानी कि हद हो गई….वेज खाने वाले अगर बिरयानी या कबाब नही खाएँगे तो दही बड़े, छोले भठूरे और इतने टाइप की सेवइयां क्या कम हैं जो बर्गर और साथ में वगैरा भी बनायें, लेकिन पापा से बहेस कौन करे.
बहरहाल रात के बारह बजे तक बुआ ममा और हम बहनें तैयारी में लगे रहे. तब कहीं जाकर सोना नसीब हुआ.
इतनी थकन के बाद सुबह उठने का किसका दिल चाहेगा , लेकिन अभी तो सारे काम बाकी थे . उठना ही पड़ा.
अब ईद की सुबह का नज़ारा कुछ यूँ है कि हम तो जम्हाइयां ले रहे हैं, ममा और बुआ किचन में लगी हुयी हैं, दादी जान सफाई करने वाली अनीला और मंजू को नए नए आर्डर देरही हैं…साथ साथ हम दोनों की भी क्लास ले रही हैं. इधर पापा, बाबा जान और भाई नहा कर नए कपड़े पहनकर नमाज़ के लिए ईदगाह जाने की तैयारी कर रहे हैं.
थोडी देर में ही महकते निखारते सलाम दुआ से फारिग होकर गाड़ी में रवाना हो गए. अब हम रह गए और हमारे ढेर सारे काम.
12 बजे तक साड़ी तैयारी से फारिग हुए, खैर झूट क्यों बोलें , हमें तो मामा ने पहले ही तैयार होने को भेज दिया था लेकिन ममा और ख़ास कर बुआ को 12 बजे जाकर फुर्सत मिली.
फुर्सत?
फुर्सत कहाँ मिली, अब तो जैसे तैसे नहाकर तैयार होना था और उसके बाद महमानों को attend करने की अलग ड्यूटी निभाना थी.
बहरहाल होने को तो सब हो गया, निखरी निखरी ममा तैयार भी हो गयीं . पापा के साथ मुस्कुरा मुस्कुरा कर मेहमानों को attend भी करती रहीं. आने वाले मेहमान जम कर तारीफें भी करते रहे, ममा की ड्रेसिंग को सराहते भी रहे लेकिन रात होते होते ममा और बुआ की जो हालत हुयी उसे बयां नही किया जासकता . दोनों दर्द की दवाएं खाकर सो सकीं .
ख़ुद मेरा थकन से बुरा हाल था.दूसरे रोज़ सब की हालत कह्राब थी.पापा ने लंच बाहर से मँगवाया .
ये तो रहा हमारे घर का ज़िक्र , यहाँ तो खैर ममा की हेल्प के लिए माशाल्लाह कई लोग हैं लेकिन ऐसे भी घर हैं जहाँ तमाम कामों की ज़िम्मेदारी घर की ओरतों पर होती हैं, ज़यादा से ज़्यादा सफाई और बर्तन के लिए मुलाज़्मा (मासी ) आजाती है. ऐसे में उन लोगों की क्या हालत होती होगी, इसका तसव्वुर भी तकलीफ देह होता है. दुःख की बात तो ये है ki इस की शिकायत करना भी निकम्मे होने का सबूत मान लिया जाता है.सिर्फ़ ईद या रमजान ही नही, हमारे यहाँ जितने त्यौहार हैं, चाहे वो ईद-उज़ -जुहा हो, कूंडा हो या शब् -ऐ-बारात…सब के सब थका देने वाले, और मज़े की बात तो ये है कि ये थकान बस घर की ओरतों के खाते में लिखी जाती है. त्यौहार कोई भी हो, ज़िम्मेदारी बस ओरतों पर, उन्हें इंतजाम भी करने हैं और इंतजाम भी ऐसे कि आने वाले तारीफ़ किए बगैर ना रह सकें और मर्द हजरात मुस्कुरा मुस्कुरा कर इस तारीफ़ को अपना हक़ समझ कर बड़े फख्र से वसूल करते हैं. कहीं कोई गड़बड़ हो गई तो बेचारी ओरत दिल पर एक बोझ लिए मुजरिम बन जाती है, चाहे कोई कुछ कहे या न कहे.
क्योंकि बचपन से लड़कियों के दिमाग में ये बात डाल दी जाती है कि उन्हें अच्छा मुन्ताजिम कार होना चाहिए , यही एक कामयाब ओरत की पहचान है.
और मज़े की बात ये है कि ये कोई मर्द नही सिखाता ,ये सीख हमारी कौम की ओरतें ही देती हैं.
घर में इस मौज़ू (टोपिक ) पर बात करना चाहो तो टोकने वाली सब से पहली मेरी दादी जान होती हैं जो बड़े आराम से मुझे ‘निकम्मी लड़की’ का खिताब नवाज़ देती हैं. उनका कहना है कि ये सारे वावैले (विरोध ) आजकल की नालायक लड़कियां ही उठाती हैं, वरना त्यौहार तो खुशियाँ लेकर आते हैं, ज़रा सा हाथ पैर हिला लेने में शिकायत कैसी.
ममा इस टॉपिक पर ‘नो कमेन्ट ’ का तास्सर देते हुए मुस्कुराती रहती हैं.
मुझे इस बात से इत्तफाक है कि त्यौहार खुशियों का पैगाम होते हैं. वैसे भी पूरे साल एक रूटीन से उकताई हुयी जामिद जिंदगी में ताज़गी की नई फुआर ले आते हैं ये त्यौहार.
सवाल ये नही है कि इनकी तैयारियां और इंतजाम थका देने वाले होते जारहे हैं, सवाल ये है कि सारे त्योहारों की ज़िम्मेदारी अकेले ओरत पर ही क्यों?
पूरे साल में कोई एक त्यौहार, कोई एक मौका तो ऐसा होना चाहिए ना जब जिसका इन्तजाम और ज़िम्मेदारी मर्दों पर हो. जिम्मेदारियों से आजाद घूमने फिरने के मौके ओरत को भी दिए जाएँ . उन्हें भी अहसास हो कि त्यौहार वाकई खुशियाँ लाते हैं. बगैर किसी ज़िम्मेदारी का अहसास किए वो भी अपने लोगों से मिलजुल सके. खुल के हंस सके.

कभी कभी दादी जान का मूड जब खुश गावर होता है तो मैं ये बात उन से कहती हूँ . ये भी पूछती हूँ कि क्या आपको जिंदगी के किसी मौके पर ऐसा ख़याल छू कर नही गुज़रा ?
ऐसे मौकों पर दादी कोई नादीदा (अनदेखी ) चीज़ अपनी तकिये के नीचे तलाश करने लगती हैं, ऐसा लगता है जैसे कोई बहुत कीमती चीज़ तकिये के नीचे से गायब हो गई हो. लेकिन सच मैं जानती हूँ.
मैं जानती हूँ कि उन्हें किसी चीज़ की तलाश नही है, बल्कि वो मेरे सवाल से बचना चाहती हैं, क्योंकि इसका कोई जवाब उनके पास है ही नही.

Sunday, September 28, 2008

आई है ईद, लेकर उदासियाँ कितनी....

रात मुंबई से फायेज़ा (मेरी कजिन)का फ़ोन आया, चहकते हुए पूछ रही थी कि मेरी ईद की तैयारियां कहाँ तक पहुंचीं, मेरा जवाब सुनने से पहले ही मोहतरमा शुरू हो गयीं अपनी बातें लेकर..’पता है मैंने इस बार अपनी ड्रेसिंग की तैयारी एकदम अलग तरह से की है, आफ व्हाइट और पीच कॉम्बिनेशन का लहंगा सेट, साथ में मैचिंग ज्वेलरी और चूड़ियाँ, माथे पर बिंदी के साइज़ का टीका लगाने का इरादा है, इसके आलावा मैंने….वो कहती जारही थी और मैं सुनती जारही थी. उसकी तफसील ख़तम हुयीं तो वो फिर उसी सवाल पर आगयी..’’यार तुमने तो कुछ बताया ही नही, तुम क्या पहन रही हो?

मैं उसे क्या बताती की मुझे इस बात से कोई फर्क नही पड़ता की मैं क्या पहन रही हूँ, ये सारी बातें तो तब अच्छी लगती हैं ना जब दिल का मौसम खुश गवार हो, उमंगों और मुसर्रतों की कलियाँ दिल के गुलशन में खिल रही हों, जब अन्दर का मौसम ज़र्द होरहा हो तो उदासियाँ डेरे जमा लेती हैं, ऐसे में किसी खुशी के मायने ही कहाँ रह जाते हैं…एक बार दिल चाहा पूछूं कि बेहिस बन कर कैसे जिया जाता है? मुझे भी सिखा दो, बड़े फायदे हैं इसके..इंसान बहुत सारी मुश्किलों से बच जाता है. पल पल से खुशियाँ कशीद कर जिंदगी के सारे मज़े लेसकता है.

बड़ी मुश्किल से उसे टाला, कुछ कहती तो जानती थी, वो मेरा ही मजाक उडाते हुए मेरी बातों को चुटकियों में उडाते हुए मुझे महा बोर का खिताब देने में देर नही करेगी.

फ़ोन रखने के बाद भी मैं काफी देर उसके बारे में सोचती रही, क्या हो गया है हमारी कौम की लड़कियों को, क्योंकि फायज़ा से ही मिलता जुलता रूप मेरी तमाम कजिन्स, सहेलियों का है. उनकी दुनिया फैशन, ज्वेल्लरी, लेटेस्ट मूवीस, तक ही महदूद हो कर रह गई है. ज़्यादा से ज़्यादा वक्त की ज़रूरत के मुताबिक पढाई करके डिग्री ले लेना, कोई मनपसंद जॉब कर लेना या शादी रचा लेना और बसक्या यही सब कुछ होता है?

आज हमारा मुल्क किस मुश्किलों से गुज़र रहा है, देश का कोई कोना महफूज़ नही रह गया है. पुलिस इस कदर निकम्मी हो गई है की असल मुजरिमों को पकड़ने में जीजान लगाने के बजाये बेगुनाह नौजवानों को पकड़ कर उनकी जिंदगी तबाह कर रही है.

मैं भला ईद की क्या तय्यारी करूँ फायज़ा, मुझे धमाकों में मारे गए मासूम लोगों की लाशें दिखायी देती हैं, उन मासूम बच्चों के आंसू दिखायी देते हैं,जो इन धमाकों में अपने माँ या बाप को खो चुके हैं, मुझे उन बेगुनाह नौजवानों के चेहरे दिखायी देते हैं जो बेगुनाह होकर भी पुलिस के जालिमाना तशद्दुद सहने पर मजबूर हैं, उन माँओं के आंसू, उनके बाप की बेबसी दिखायी देती है जो एकदम अकेले हो गए हैं, मुझे वो मासूम गरीब ईसाइयों की लाशें दिखाई देती हैं जो कुछ खुनी दरिंदों के ज़ुल्म का शिकार होकर मौत के मुंह में चले गए, मुझे वो बेबस सैलाब के शिकार लोगों की बेबसी दिखाई देती है जो आज दाने दाने के मुहताज दर बदर भटक रहे हैंमैं ईद कैसे मनाऊं फायज़ा, मैं क्या तैयारियां करूँ, किस दिल से करूँ. खुशियाँ या उसकी सेलिब्रेशन तो तब होती हैं ना जब दिल अन्दर से खुश हो, लेकिन मैं ये सब भला फायज़ा से क्या कहती. जानती थी, उसे कुछ समझ नही आएगा.

हाँ, ईद आएगी, एक रस्म आदायगी की तरह गुज़र जायेगी. रोजों के बाद ईद की खुशियाँ मनाना मुस्लिम पर फ़र्ज़ है, सो ये फ़र्ज़ सादगी से अदा हो जायेगा.

बस इस ईद का चाँद देख कर कुछ दुआएं ज़रूर मांगूंगी कि ‘ मेरे रब, इस ईद जैसी ईद फिर कभी ना हो, अगली ईद जब आए तो खुशियाँ रग-रग में समायीं हों, मुल्क खुश हाल हो, किसी भी तरह की दहशत गर्दी से पाक, मुस्लिम हों या ईसाई, हिंदू हों या सिख, हर मज़हब के लोग महफूज़ हों, हर तरफ़ सुकून और अमन हो, तब हमारी असली ईद होगी. अगली बार मेरे रब बस ऐसा ही चाँद देखना नसीब हो(आमीन)

Wednesday, September 24, 2008

चुप की दहलीज़ पे ठहरा है कोई सन्नाटा


सारा दिन छाजों मेंह बरसता रहा. मौसम एकदम अभी से खुनक(सर्द) होने लगा है. सर्द मौसम की आमद का पैगाम देती ये बारिशें एक अजीब सी उदासी का तास्सिर देती हैं.

सब सो चुके हैं लेकिन उसे नींद नही आरही है. दिल की उदासी जब हद से ज़्यादा बढ़ने लगी तो वो कमरे से बाहर निकल आती है.एक घुटन सी है हर तरफ़. वो दरवाज़ा खोलकर टेरिस पर चली आती है. बारिश रुक चुकी है लेकिन इक्का दुक्का बूँदें अभी टपक रही हैं. अंधेरे की चादर ओढे स्याह रात के लबों पर अजीब सी खामोशी है.ना चाँद ना सितारे, बस एक सर्द सा सन्नाटा. वो कुछ सोचना नही चाहती लेकिन उसके अन्दर सवालों की एक दुनिया है.उलझनों के कई दर खुल गए हैं. बेबसी सर उठाने लगी है.

किसी के हाथों का शफीक लम्स उसके बालों पर ठहर जाता है लेकिन वो हैरान नही होती. वो जानती है कि उसके दिल के मौसमों के एक एक रंग से अगर कोई वाकिफ है, तो वो उसके बाबा ही हैं. वो बाबा को परेशान ही तो नही करना चाहती थी वरना ख़ुद ही उनके कमरे में चली जाती. लेकिन वो जानती है कि कुछ सवालात ऐसे हैं जिनके जवाब उसके बाबा के पास भी नही हो सकते.

‘’मैं जानता हूँ तुम परेशान हो वरना ऐसे मौसम में इतनी रात गए यहाँ कभी नही आतीं. क्या परेशानी की वजह मुझे पूछने पड़ेगी बेटा?’’

जाने कितने लम्हे खामोशी की नजर हो जाते हैं, वो बाबा को देखती है. ‘’हाँ मैं परेशान हूँ, बहुत परेशान, मैं जानती हूँ, आप भी परेशान होंगे लेकिन ज़ाहिर नही कर रहे, लेकिन मुझ से बर्दाश्त नही होता, मुझे कुछ भी अच्छा नही लगता. आप जानते हैं, सब कुछ पहले जैसा होते हुए हुए भी पहले जैसा नही रहा.’’ बाबा की आंखों में अभी भी सवाल हैं. वो समझ नही पारहे या समझना ही नही चाहते. बाबा आप खबरें देखते हैं ना, एक अजीब सा माहौल हो गया है, कुछ सरफिरे और बुजदिल लोगों ने दहशत गर्दी की साजिश क्या अंजाम दी, लोगों की नज़रें ही बदल गयीं. कुछ हादसों ने पोशीदा नफरतों से नकाब ही हटा दिए. हम बेगुनाह होकर भी गुनाहगार ठहराए जारहे हैं. बाबा आज हिन्दुसानी मुस्लिम एक खौफ के साए में जीर आहा है. उसे शक की नज़र से देखा जारहा है.

’’ बाबा लब भींज लेते हैं, ‘’ हाँ कुछ बुजदिल लोग अपने नापाक इरादों से मज़हब को बदनाम करने की साजिश रच रहे हैं. ये देश के ही नही सारी कौम के दुश्मन हैं, इंसानियत के दुश्मन हैं.’’

‘’मैं मानती हूँ बाबा कि कुछ लोगों ने ऐसा घिनावना काम किया, लेकिन वो मुजरिम थे, हर मुजरिम जो जुर्म करता है तो सज़ा उसे मिलनी चाहिए, लेकिन सज़ा हमें क्यों मिल रही है? आप जानते हैं, कुछ लोग खुले आम हमारे मज़हब की तौहीन कर रहे हैं. उस मज़हब की जो बिना किसी वजह के इक पत्ता तक तोडे जाने के ख़िलाफ़ है. हमारे बारे में जिसका जो दिल चाहता है, खुले आम बोल रहा है. क्या ये जुर्म नही है? बाबा आज माहौल ये है कि किसी का दुश्मनी में भी किया हुआ एक इशारा एक मुस्लिम नौजवान की सारी जिंदगी तबाह करने के लिए काफ़ी है.

''आपने अखबार में पढ़ा है ना की किस तरह मुंबई में एक मौलाना महमूदुल हसन कासमी जो एक फ्रीडम फाइटर की फैमिली से ताल्लुक रखते हैं , की बेईज्ज़ती की गई. सिर्फ़ शक की बिना पर उन्हें नंगे पैर बगैर टोपी के घसीटते हुए पुलिस थाने ले गई. वो तो जब तलाशी में उनके घर के अलबम से पता चला कि वो कितने इज्ज़तदार शहरी हैं तब पुलिस ने ये धमकी देते हुए उन्हें छोड़ा की वो इस वाकये का किसी से ज़िक्र ना करें. बाद में उनकी बड़े नेताओं से जान पहचान देखते हुए उन से माफ़ी मांगी गई. बाबा जब ऐसे क़द वाले शहरी के साथ ऐसा सुलूक हो सकता है तो सोचिये एक आम मुस्लिम के साथ कैसा सुलूक होता होगा.

अपने ही देश में हमारे साथ गैरों जैसा सुलूक किया जाता है. हम एक साँस भी ले लें तो इल्जामों का पूरा पुलिंदा हमें थमा दिया जाता है.’’

वो बोलती जारही है और बाबा हैरत से उसे देखे जारहे हैं. शायद उन्हें यकीन नही आरहा है.

‘’बेटा..वो जाने क्यों उसे टोक देते हैं.’’ मैं मानता हूँ की हमारे साथ ग़लत हो रहा है लेकिन ये वक्ति बेवकूफियां हैं जो वक्त के साथ ख़त्म हो जायेंगी.’’

‘’ लेकिन क्यों बाबा’’ उसे उन पर गुस्सा आजाता है ‘’हम सब ठीक होने का इंतज़ार क्यों करें? हम किसी को सफाई क्यों दें? ये हमारा देश है, वैसे ही जैसे बाकी लोगों का, वो चाहे चर्चों पर हमले करें,चाहे बेगुनाह ईसाइयों को क़त्ल करें, बिहारियों पर ज़ुल्म करें, बम बनाते हुए पकड़े जाएँ, उन्हें हाथ लगाने की हिम्मत कोई नही करता. सारी दुनिया के सामने मस्जिद को शहीद करने वाले, क़त्ल गारत मचाने वाले, खुले आम इज्ज़तदार बने घूम रहे हैं…आप मुझे बताइए बाबा, उनकी करतूतों की उनकी कौम से सफाई क्यों नही मांगी जाती? उन्हें शक की नज़रों से क्यों नही देखा जाता? हम सच भी बोलें तो गद्दारी का तमगा पहना दिया जाता है, क्यों?

हमारा जुर्म क्या यही है की जब मुल्क का बटवारा हुआ तो हम ने अपना देश नही छोड़ा?

बाबा उसकी आंखों में तड़पता हुआ गुस्सा देखते हैं और जाने क्यों सर झुका लेते हैं.

वो उनके सामने आ खड़ी होती है ‘’ बाबा आप ही कहते थे ना की दुनिया में सब से ज्यादा महफूज़ हिन्दुस्तानी मुस्लिम्स हैं, आज देख लीजिये, एक हादसे ने सारे मायने ही बदल डाले हैं. आज हम अपने ही मुल्क में अकेले हो गए हैं. आज हमें एक ऐसे सरबराह की ज़रूरत है जो हमारे साथ खड़ा हो कर हमें ये अहसास दिला सके कि हम अकेले नही हैं, लेकिन ऐसा कोई नही है, हमें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने वाले भी तमाशाई बने बैठे हैं.

आप जानते हैं, आज कालेज में एक्स्ट्रा क्लास लेने से इनकार करने पर एक लड़के ने मुझे कहा कि पता नही मुस्लिम्स लडकियां ख़ुद को इतना ख़ास क्यों समझती हैं.हालांकि उसके ऐसा कहने पर सर ने उसे डांटा भी, मैं कहना तो बहुत कुछ चाहती थी लेकिन आप ने मुझे मना किया था की ऐसे किसी टोपिक पर मैं अपनी ज़बान ना खोलूं, मैंने कोई जवाब तो नही दिया पर मैं उसकी आंखों के बदलते रंग देख कर दंग रह गई. आपको पता है ये वही लड़का था जो जाने कब से मुझ से दोस्ती की ख्वाहिश रखता था. कई बार सख्त लहजे में बात करने के बावजूद कभी उसके नर्म और मीठे लहजे में तब्दीली नही आई थी. आज उसका लहजा उसकी आंखों का अंदाज़ सब बदल गए थे. बाबा ये सब ठीक नही है, लोगों को बदलना होगा, ये हमारा देश है, कोई हमें पराया नही कर सकता. लोगों को समझना होगा की दहशत गर्दी का जन्म ज़ुल्म और बेइंसाफी की कोख से होता है. इसका ताल्लुक ना किसी मज़हब से होता है न किसी कौम से.

ये कुछ बेवकूफ और जज्बाती लोगों का इंतकाम होता है, ठीक उसी तरह जैसे ऊंची जात वालों के ज़ुल्म और तशद्दुद से तंग आकर छोटी जात के कहे जाने वाले कुछ जज्बाती बन्दूक उठा लिया करते थे. उसमें मज़हब का कोई दखल नही होता. बाबा ये बात लोगों को समझनी होगी, मीडिया को समझनी होगी जो तरह तरह की बातें फैला कर लोगों के जज़्बात भड़का रहा है. कुछ गलतियां हम पहले कर चुके हैं, अब और किसी गलती की गुंजाइश नही बची है. ये बात सब को समझनी होगी. हम एक घर में रहने वाले और एक ही फॅमिली का हिस्सा हैं. अगर खुशियों में एक हैं तो गम और मुसीबतों में भी एक होने चाहियें. परिवार तो वाही होता है ना बाबा?

वो थक कर चुप हो गई है, बाबा खामोश भीगे फर्श को तकते हुए जाने क्या सोचे जारहे हैं.

‘’बेटा, मैंने उम्मीद का दमन नही छोड़ा है, ये रमजान का महीना है, ये हमें सब्र की तलकीन करता है, सब्र से बड़ा हथियार कोई नही है.’’ आओ अब अनादर चलें’’

‘’सब्र…वो तल्खी से मुस्कुरा देती है. बाबा के सामने दिल में छाया गुबार निकाल कर मन कुछ हल्का हो गया है.बारिश की बूँदें फिर से गिरना शुरू हो गई हैं. मौसम कुछ और सर्द हो गया है, सन्नाटा भी और गहरा हो गया है. वो आसमान को देखती है. पता नही, उसका वहम है या सच, अँधेरा कुछ और बढ़ता महसूस हो रहा है. वो बाबा का हाथ थामे हुए अन्दर की जानिब बढ़ जाती है.

Wednesday, September 17, 2008

कलम उठाऊं तो कागज़ सुलगने लगता है....


कलम उठाऊं तो कागज़ सुलगने लगता है....
नज़र में जलता हुआ घर है, क्या किया जाए..

एक छोटी सी कहानी पढ़ी थी. कहानी कुछ यूं थी कि ‘’गिद्धों का समूह बहुत दिनों से भूखा था, खुराक का कोई इंतजाम नहीं था. एक रात सब एक जगह जमा हुए, एक मीटिंग की. एक फैसले के तहेत उन्होंने मिलकर एक पार्क में लगे एक विशेष समुदाय के मुजस्समे (मूर्ती)की गर्दन तोड़ दी. 
दूसरी सुबह उस समुदाय ने दुसरे समुदाय पर इल्जाम लगा कर तोड़ फोड़ की और इलाके में तनाव फैल गया, झगडा इतना बढ़ा कि खून खराबे की नौबत आगई. जब तक पुलिस आई, इलाका फसाद की आग में जलने लगा था. पुलिस ने हालात पर काबू पाने के लिए गोलियाँ चलायीं और इलाके में कर्फियू लगा दिया गया. 

रात आई तो गिद्ध खुश थे. उनकी खुराक का इंतजाम हो गया था. उन्हें अपने मसले का हल मिल गया था. अब गिद्ध कभी भूखे नहीं रहेंगे. 

इस कहानी को पढ़ कर दिल की अजीब सी कैफियत हो गयी थी.
दंगे फसाद किस तरह शुरू किये जाते हैं, किस तरह कोई एक हाथ नफरत की हांडी जज़्बात के चूल्हे पर रखता है और फिर देखते ही देखते हजारों हाथ उसे आग देने का काम करते हैं. कोई हाथ उसे उतारने की हिम्मत नहीं करता, करता भी है तो उसके हाथ काट दिए जाते हैं. 
नफरतें किसी का भला नहीं किया करतीं. ये बात सब जानते हैं लेकिन फिर भी उसी को सींचते हैं.
 
आज हमारी ब्लोगिंग में जो कुछ हो रहा है, उसे दिख कर दिल दुःख से भर जाता है. कुछ लिखना चाहूँ तो लिखने को दिल ही नहीं चाहता, क्या लिखूं? कौन पढेगा? 
यहाँ तो हाल ये है कि एक ब्लोगर दुसरे ब्लोगर पर कीचड उछाल रहा है तो वो पोस्ट सब से ज्यादा हिट हो जाती है. दूसरा अपना बचाव करता है तो वो भी सबकी तवज्जा का बाएस बन जाता है. 
एक कुछ लिखता है, दूसरा गुस्से में उस पर रिअक्ट करता है, और फिर सब की तवज्जा उसी पर चली जाती है. कमेन्ट में एक दुसरे को कोसा जाता है, किसी किसी के कमेन्ट तो बेशर्मी कि हद तक चले जाते हैं. 
ऐसे में अच्छे ब्लोगर और उनकी बेहद अच्छी पोस्ट पढने वालों की राह ही तकती रह जाती हैं. 
क्या यही है ब्लोगिंग का मकसद? 

आज हमारा देश एक बहुत बड़ी तब्दीली से गुज़र कर तरक्की की नयी राहों पर जारहा है, ऐसे में हमारी ये मेंटालिटी इसे आगे बढाने के बजाय पीछे की तरफ ले जायेगी. 
दहशत गर्दी या आतंकवाद किसी भी देश के लिए एक नासूर है, कोई भी जीहोष इंसान इसकी वकालत नहीं कर सकता. , जिस रोज़ दिल्ली में ये अलाम्नाक हादसा हुआ. उस वक्त हमारी अजीब हालत थी. हम रोजे से थे, अफ्तार करना भूलकर फ़ोन पर फ़ोन किये जारहे थे क्योंकि दिल्ली में हमारे सब से ज्यादा रिश्तेदार रहते हैं.गफ्फार मार्केट के पास तो मेरे बेहद करीबी रिश्तेदार रहते हैं. आधा घंटा, एक घंटा तक तो कोई फ़ोन मिला ही नहीं. खौफ से दिल में अजीब अजीब ख्याल आरहे थे.
कहने का मतलब ये कि जब आग लगती है तो शोले ये नहीं देखते कि किसका घर जलाएं और किसका बचा लें . 
मरने वाले ना हिन्दू होते हैं ना मुसलमान. वो बस इंसान होते हैं और इंसान जब भी मरता है, शर्मिंदा सिर्फ इंसानियत होती है. 

इसलिए हर एक देशवासी के लिए ये मुश्किल घडी है. एक दुसरे पर इल्जाम लगाने के बजाये कुछ ऐसा करने का वक्त है कि ये नासूर जड़ से ख़त्म हो जाए. 
मुल्क के हिफाजती निजाम को बेहद मज़बूत, चाक चौबंद और ईमानदार होना चाहिए. अमन के असली दुश्मनों को ना सिर्फ सजा दी जानी चाहिए बल्कि उनके हर ज़रिये का खात्मा होना चाहिए, जिनकी वजह से वो इतने मज़बूत हो गए हैं. 
लेकिन जो सबसे ख़ास बात हो, वो ये कि इस सारे मामले को निबटाते हुए इस बात का ध्यान रखा जाए कि गलती से भी कहीं हक़-ऐ-इंसानियत का खून ना होने पाए. 
दिमाग में किसी ख़ास समुदाय को ही लेकर तफ्तीश न कि जाए, उनके पीछे कहीं कुछ और लोग ना हों, इसके लिए भी दिलो दिमाग को खुला रखा जाए. 
इसके अलावा उनकी इस दहशत गर्दी का मतलब क्या है, मकसद क्या है, ये क्या चाहते हैं? इन चीज़ों पर भी नज़र रखी जाए. अगर वो खून खराबा छोड़ कर बात चीत की मेज़ तक आना चाहें तो इसके लिए भी तैयार रहा जाए कि मुल्क की अमन और सलामती से बढ़ कर कोई अना नहीं हो सकती. 
इस सारी कार्रवाई में पुलिस को अपने किरदार को पाक साफ़ रखना होगा जो बेहद मुश्किल है. 
सिर्फ शक की बिना पर किसी मासूम पर ज़ुल्म ना हो जाए इस बात का ख़ास ख़याल रखना होगा. याद रहे कि ऐसे वहशियाना सुलूक और जालिम रवैय्ये ही मासूम नौजवानों को दहशत गर्द बनने पर मजबूर करते हैं. वर्ना कोई भी आम जिंदगी जीने वाला इंसान बगैर किसी वजह क इक परिंदे तक को नहीं मारता, कुजा कि इंसानों की जान लेने पर उतर आये. 
दहशत गर्दी के पीछे हमारे सिस्टम के बदसूरत रवैय्ये ही जिम्मेदार होते हैं. 
मुल्क के एक एक बाशिंदे को इसके बारे में सोचना होगा. ये वक्त सबको अपने अपने किरदार बेहतर तरीके से निभाने का है.ऐसे में एक राईटर और ब्लोगर की ज़िम्मेदारी कितनी बढ़ जाती है क्या अब भी ये कहने की ज़रुरत है? 
पहले बड़ी हैरत से सोचा करती थी कि देखने में सब कुछ अच्छा दिखाई देता है फिर भी नफरतें कैसे जन्म ले लेती हैं? 
आज समझ में आया कि नफरतें जन्म नहीं लेतीं, नफरतें तो पहले से ही दिलों में मौजूद रहती हैं. हाँ, उन्हें दबा रहने दिया जाए तो वक्त के साथ उनका असर ख़त्म हो जाता है लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं चाहते, वो उन दबी नफरतों को जगाने का काम करते हैं कि इसी में उनके फायदे हैं. 
अंग्रेजों ने हमारी इसी कमजोरी का क्या खूब फायदा उठाया. और मुल्क के टुकड़े हो गए थे. मासूमों का खून बहाने वाली पार्टी इसी मुल्क में बरसों हुकूमत करती रही. 
सिर्फ हमारी इसी तंग नजरी के चलते. 
आज आप ब्लोग्स पर नज़र डालिए तो एक अजीब मानसिकता देखने को मिलती है.जो दुनिया मुझे अपनी खूबसूरती से लुभाती थी आज वही दुनिया इतनी बदसूरत नज़र आने लगी है कि दिल ही नहीं चाहता यहाँ आने का. 
एक दुसरे पर झूठे इल्जाम लगाना, कीचड उछालना, यहाँ तक कि ऐसा करते हुए ये भी नहीं देखा जाता है कि जिस ब्लोगर को इस कदर घटिया ज़बान में कोसा जारहा है, उसकी उम्र क्या है, वो कितना भी काबिल-ऐ-एहतराम हो, किसी भी उम्र का हो, उसे बख्शा नहीं जाता. 
ना कोई शर्म , न कोई लिहाज़……बाखुदा बस कीजिये, कितना नीचे गिरेंगे . कहीं कोई मर्यादा कोई तो हद होनी चाहिए. हर एक को अपनी बात कहने का हक़ हासिल होना चाहिए. ये क्या कि किसी ने कुछ कहा नहीं और हम सब मिलकर उस पर टूट पड़े. 
हमें अपने अपने नज़रिए बदलने होंगे, तंग नजरी से बचना होगा, दिलों को बड़ा करना होगा . 
हम एक हैं . हम इंसान हैं तो जानवरों से बदतर क्यों हो गए हैं?