ये कमेंट किसी को भी सुनकर अजीब लग सकता है,,वैसे भी त्यौहार कोई भी हो,,हर धर्म के लोगो को बडे प्यारेलगते हैं,,इनके आने की आहट ही हमारे दिलो में नयी उमंग सी भर देती है.में सिर्फ अपने त्योहारों की बात नहीकर रही..दिवाली आने के पहले उस के आने का माहोल ही इतना प्यारा लगता है की दिल अपने आप लोगो के दिलोमें उसके प्रति होने वाली उत्सुकता को समझ सकता है.लेकिन उन्हीं त्योहारों में से एक त्यौहार के बारे में यदिकोई ऐसा कहता है तो उसके कहे इस जुमले में छुपे उस मर्म को समझा जासकता है,,हो सकता है,कुछ लोगो कोये जुमला पसंद न आया हो,पर कल दो घटनाएं ऐसी हुयीं,जिन्होंने मुझे ये लिखने पर मजबूर कर दिया,,ये घटनाएंकहने को इतनी बड़ी नही हैं की किसी अखबार की सुर्खियाँ बनें लेकिन अगर इसे समझने की कोशिश की जाये तोयकीन कीजिए,ये किसी भी भावुक मन को तड़पा देती हैं.
निशा दीदी,हमारे ऊपर वाले पोर्शन में किरायेदार हैं,ओर मेरी अच्छी दोस्त हैं,मैं घंटो उनके साथ समय बितातीहूँ.उनका बोल्ड नेचर मुझे बहुत पसंद है.परसों ही की बात है,,नाश्ते से फारिग हो कर में सीधी ऊपर चलीआई,सोचकर गई थी की निशा दीदी को तो होली की तय्यारिओं से ही फुरसत नही होगी,पर अपने कमरे में वोअपनी किसी दोस्त के साथ busy थीं,में ये देख कर हैरान रह गई की वो अपनी दोस्त के आंसू पोंछ रही थी,कारणपूछा तो जो कुछ उन्होंने बताया उसे सुनकर कितनी देर तो में कुछ बोलने लायेक ही न रही,,निशा दीदी की वोदोस्त सुमन(नाम असली नही है) होली के दिन निशा दीदी के घर रहने आरही थी,,जानते हैं क्यों? क्योंकि होली केदिन उसे अपने घर में रहते डर लगता था,अपने घर में डर…पर किस से? किसी और से नही…अपने सगे जीजाजीसे,,सुमन दीदी ने बताया की उसके जीजाजी का चरित्र अच्छा नही है,उनकी नज़रें ही उसे इतनी गन्दी प्रतीतहोती हैं की वो जहाँ तक हो सके उनका सामना कम से कम करती है,आम दिनों में तो इतनी हिम्मत नही होतीउनकी,पर पिछले साल होली पर उन्होंने रंग लगाने के बहाने उसके साथ बड़ी अश्लील हरकत की,,उसने गुस्से मेंउन्हें बुरा भला भी कहा लेकिन वो आदमी बड़ा ढीठ था,उसने ये बात अपनी माँ को भी बातायी पर नाज़ुक रिश्ताहोने के कारण वो दामाद को कुछ नही कह सकी,अब होली फिर आगई थी और सुमन दीदी की बहेन परिवार सहितमायके होली मनाने आरही थी,पर सुमन दीदी के लिए ये त्यौहार खुशी लेकर नही डर लेकर आरहा था,,उन्होंनेहोली के दिन अपने घर में रहने से बेहतर अपनी दोस्त के घर रहना मुनासिब समझा.मुझे हैरान देख कर सुमन दीने अपने आंसू पोंछते हुए कहा था,,तुम हैरान हो न पर ये कोई नयी बात नही है,,तुम lucky हो की होली तुम्हारात्यौहार नही है…जब वो ये बात कह रही थी,तो उनके लहजे की बेबसी,चाहते हुए भी कुछ न करने की उनकीकुंठा,,उनकी तड़प, मुझे अन्दर तक झकझोर गई.
बात सुमन दी की ही होती तो शायेद मैं ये उनकी बदकिस्मती समझकर कुछ दिन में भुला देती पर कल यानी होलीके दिन जो कुछ हुआ,उसने मुझे सारी रात सोने नही दिया.
अनीला,हमारे घर पे काम करती है,यही कोई १४/१५ साल की अल्हड़ सी बच्ची,,बहुत तेज़ हैं काम में,पर बहुतभोली भाली,,उसकी माँ पास ही चूने भट्टे में मजदूरी करती है.उसने मामा से बोला था की होली वाले दिन सुबहसुबह आजयेगी और जल्दी चली जायेगी,क्योंकि,दिन चढ़ते ही रंग लगाने वालों की मस्तियां शुरू हो जाती हैं.यहाँकुछ खुदगर्जी हमारी भी रही जिसे इंसानी फितरत का हिस्सा कहा जासकता है,मामा ने उसे मन नही किया,भलाइतने सारे काम कोन करना पसंद करता…बहेर्हाल,,सुबह लगभग ८ बजे होंगे,जब वो आई,ज़ोर ज़ोर से रोतीहुयी,उसका हाल देखकर हम सब भोंचाक्के रह गए,,रंगों से लत पत,बिखरे बाल,चेहरे पर काला पेंट पुता,अस्तव्यस्त कपड़े,,वो रोये जारही थी,मामा ने कितनी कोशिश की पर वो चुप होने का नाम नही ले रही थी,,करीब आधेघंटे के बाद वो थोड़ा नॉर्मल हुयी,तब रो रो कर जो कुछ उसने बताया,उसने मुझे गम ओर गुस्से से भर दिया,,एकपल को सुमन दी की बात मुझे ठीक लगी…अनीला ने बताया की वो रास्ते में थी,और जल्दी से जल्दी यहाँ पहुँचजाना चाहती थी पर रास्ते में ही कुछ लड़के रंग लिए उसके पीछे पड़ गए,उसने मन किया तो वो ज़बरदस्ती करनेलगे,तभी किसी बुजुर्ग ने उन्हें डाँट कर भगाया,,वो उस समय तो चले गए, अनीला चल पड़ी,रास्ते में एक लीचीका बागीचा पड़ता है,,वही वो उसका इंतज़ार कर रहे थे,,वो छोटी बच्ची चिल्लाती रह गई मगर वो भेडिये रूपीमदमस्त जानवर,,अपनी ताकत ओर मस्ती का उदाहरण पेश करते रहे,,जाने उसके साथ क्या अनर्थहोजाता,,जब फरिश्ता बनकर कुछ लोग मोके पर वहां आगये…हमारा घर पास ही था,सो वो भागती हुयी यहाँ पहुँचगई..मामा ने बड़ी मुश्किल से उसे संभाला,सारा दिन वो हमारे घर रही,मामा ख़ुद शर्मिंदा थीं की उन्होंने आज उसेआने से मन क्यों नही किया,,कल का दिन मेरी जिंदगी के बदतरीन दिनों में से एक था,,रात जब लेटी तो मासूमअनीला के आंसू मुझे अपने दिल पर गिरते महसूस हुए,,कैसी है ये दुनिया,कैसा है इसका समाज…ओर क्या है यहाँस्त्री का अस्तित्व,,जिस स्त्री की कोख से पुरूष जन्म लेता है,उसी को जब चाहता है भेडिये की तरह भंभोड़ कररख देता है…ये समाज,उसके रीत रिवाज,,सब ढोंग हैं…सच तो ये है की ये दुनिया,ये समाज एक ओरत के लिएकिसी शिकारगाह से कम नही,,जंगल है ये दुनिया,जहाँ ओरत का अस्तित्व कोई नही,,हम कुछ भी कहें,कितनाभी ख़ुद को मज़बूत बनाने की कोशिश करें…किसी न किसी रूप में,कही न कही,हम अपनी जैसी मासूम लड़कियोंको इस श्कारगाह में तड़पता देख कर आंसू बहने के सिवा कुछ नही कर सकतीं…
में मानती हूँ,अलग अलग रूप में ये दोनों घटनाएं पुरूष की घटिया मानसिकता की ओर इशारा करती हैं,,जो कहीं नकहीं,किसी न किसी चोर रास्तों से अपनी गन्दी हवस की संतुष्टि करता रहता है,होली जैसा पवित्र त्यौहारइसका दोषी नही है,पर सोचिये तो कही न कहीं ये सुमन दी के जीजा और उन मदमस्त लड़कों जैसे विक्षिप्तपुरुषों को ऐसी घिनावनी हरकत का अवसर प्रदान करने का जिम्मेदार तो है न…क्या दिवाली या ईद जैसेत्यौहार पर भी किसी ने ऐसी घटनाएं होते देखि हैं? क्या दूसरे त्यौहार किसी पुरूष को किसी स्त्री को इतनेअजादाना तरीके से छूने का मोका देते हैं? नही…निश्चित ही बाकी त्योहारों की तरह होली का स्वरूप भी पवित्रमानसिकता का प्रतीक है,पर इस तरह की घटनाएं क्या इस की पवित्रता का मजाक उडाती नही प्रतीत होतीं?
में जानती हूँ ब्लोग्स पढने वालो में पुरुषों की गिनती महिलाओं से काफी अधिक है,और में ये भी नही कह रही कीसारे पुरूष ऐसी घटिया मानसिकता वाले होते हैं,,पर आप भी जानते हैं की आप ही के आस पास,आपके ही रिश्तेदारों में कहीं ऐसे लोग भी हैं जो इस पवित्र त्यौहार को कलंकित कर रहे हैं,,,सोचिये…यदि सौ लोगों की खुशियों मेंकहीं एक आँख बेबसी के आंसू से बहा रही हो तो क्या हम वास्तव में खुश हो सकेंगे?
यदि आप लोगों में से कोई किसी एक ऐसे विक्षिप्त इंसान को बेनकाब कर सका तो में समझूंगी,,मेरी मेहनत बेकार नही गई…....
16 comments:
आप का विचार मेरे को बिल्कुल सही लगा है
रक्षंदा जी, ये दोनों घटनाएं शर्मनाक हैं.
लेकिन इसे लिखते हुए आपने यह भी स्वीकार किया है कि एक बाल मजदूर आपके घर काम करती है.
विरोधाभास तो है ही कि लड़कियों की जिंदगी के एक पहलू से आप परेशान हैं, चिंतित हैं, दुखी हैं लेकिन उसी की जिंदगी के दूसरे हिस्से में आप भी हिस्सेदार हैं.
@manish kumar-thanks
@ritesh-ji haan ritesh ji,main really dukhi aor pareshan hun.jahaan tak doosre pahlu ka saval hai,to pahle ke mukaable vo kahi nahi thaherta...main daava to nahi karti par isi bahane yadi ham kisi ki zindigi sanvaar sakte hain to mere khayaal mein is mein koi burayi nahi hai.and for God sake,aisi baato se aap ek bahut gambheer mudde se nazren churaane ki nakaam koshish kar rahe hain...
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Ashish
बहुत अच्छा लिखा
होली पर पुरुषों की मौज मस्ती के बीच आपने दूसरा पहलू बताया।
वाकई चिंताजनक है।
किसी टिप्पणी का पीछा करते हुए आपके ब्लॉग पर आया। सचमुच आप दूसरों से हट कर हैं और वैसा ही लिखती हैं।
बधाई
@rajeev-thank u rajeev for ur support.i hope,aap aise hi mera hosla badhaate rahenge.thanks
बहुत सही मुद्दे पे बात की है आपने!!
नज़रिया तार्किक है आपका!!
har aadmi ke bheetar baitha hai ek "purush".....
yahi sach hai.
@sanjeet-thank u sir,aap jaise log hon to ham in buraiyon par der se hi sahi,kaabu paa lenge.thanks
@Dr.Anuraag- thank u sir ki aapne mujhe padhne ka time nikaala.
होली का स्वरूप बदल गया है। दूसरों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ करने का त्योहार हो गया है।
रक्षन्दा , आपने बहुत सही बात पकडी है । जब विनीत कैम्पस मे होली के अपने बुरे अनुभवों के बारे मे लिख रहा था , तब भी मैं यही कह रही थी कि होली अक्सर लडकियों के लिये भी ऐसी ही कष्ट कारक होती है । शायद यही वजह है कि बचपन से आजतक मैने घर से बाहर होली नही मनाई .... या कहूँ मनाई ही नही .... समझ नही आता था कैसे किसी पर यकीन कर लूँ कि रंग लगाने के बहाने वह कोई हरकत नही करेगा । होली मेरा त्योहार नही है । यह त्योहार पुरुषो के लिये है ।
sujata
sandoftheeye.blogspot.com
@sujataji-first main aapko 'thanks' bolungi,ki aapne mujhe padhne ka time nikala..aor isliye bhi ki aapne mujhe samjha...sujata jiya phir main aapko didi bol sakti hun?
ye dono ghatnayen kuchh is tarah se huyin ki main andar tak hil gayi..baki rahi bat aapke holi na manane ki to really kafi hairan hun ye jan kar...maine nahi manayi to koi khaas bat nahi...aapne apna festival hote huye nahi manayi to...badi hai..u r really brave...thanks
आपका ब्लॉग ब्लांगवाणी पर एड हो गया है,आप ब्लॉगवाणी खोलकर अपना यूआरएल डाल दें, इसके बाद जो कोड आए उसे अपने ब्लॉग पर डाल दें
ashish.maharishi@gmail.com
आपके लेख को पढ़कर कोफ़्त हुई. मैं आपकी बात से सहमत हू, जब हम निचले तबके को २ वक़्त की रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ता है तो बाल मज़दूरी की बात करना बेमानी है.
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