Sunday, April 27, 2008

कुत्तों के डर से क्या बाहर निकलना छोड़ दूँ?


बचपन में मुझे कुत्तों से बहुत डर लगता था .मुझे याद है कभी कभार ममा एमर्जंसी में कोई सामान लाने को कहती तो मैं बहाने बनाने लगती थी .वजह वही कुत्ते होते थे.कोल्कता में हम जिस जगह पर रहते थे वह हार्ट ऑफ़ सिटी कहलाता था.इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जस इमारत के फ्लैट में हम रहा करते थे उस से चार या पाँच बिल्डिंग छोड़कर मदर ट्रीसा के मिशनरी हाउस की बिल्डिंग थी.चार पाँच और इमारतों के बाद शोप्स का एक लंबा सिलसिला शुरू हो जाता था.वहां पहुँचने के लिए मुझे कोई सड़क तक क्रॉस नही करनी थी,बस सीधे सीधे फ़ुट पाथ पर चलते जाना था. फ़ुट पाथ कभी सुनसान नही होता था.हमेशा अच्छी खासी तादाद में लोग आते जाते रहा करते थे.आने जाने वालों के अलावा कुछ भिखारी तो परमानेंट वहां बैठे ही रहा करते थे.लेकिन इसके बावजूद दो चार कुत्ते हमेशा जाने कहाँ से आकर कहीं ना कहीं टहलते नज़र आते थे,और उन्हीं कुत्तों को देख कर मेरी जान जाती थी.और इसी बात पर ममा से हमेशा डरपोक होने का ताना मिला करता था.उनका कहना था कि डर को अपने अन्दर पैदा ही होने दो.अब ममा को क्या पता,कुत्ते कुछ ना करें,सिर्फ़ आपके पीछे पीछे चल दें तो जिस्म के रोंगटे खड़े हो जाते हैं.ऐसे में हम भागना चाहें तो मुसीबत ,ना भागें तो डर के मारे हालत ख़राब हो जाती है।

थोड़ा बड़ी हुयी तो यह डर कुछ हद तक कम हो गया था.लेकिन एक बड़ी अजीब बात हुयी थी. वही ममा जो कुत्तों के डर का बहाना बनाने पर बहादुर बनने की नसीहत दिया करती थीं.जाने क्यों अकेले बाहर जाने,ख़ास कर शाम को बाहर निकलने से मना करने लगी थीं.मुझे बड़ी हैरत होती थी. अब जब मैं ख़ुद को थोड़ा बहादुर महसूस करने लगी थी,वो मुझे डरपोक बनाने पर तुली हुयी थीं. कई बार महसूस किया,कोई काम पड़ा तो मुझे कहने के बजाय ,छोटे भाई को भेज दिया करतीं .खेलने के लिए भी मुश्किल से इजाज़त मिलने लगी.हमारी बिल्डिंग के नीचे play ground था,जो सारे flats वालों के लिए तो था ही,बाकी flats के बच्चे भी उधर ही खेला करते थे.ज्यादातर लड़के ही क्रिकेट या फूटबाल खेला करते थे.कभी कभी मैं, मेरी बहन और flats की चंद दूसरी लड़कियां भी आजाया करती थीं.
एक बार बहन के साथ खेलने गई.खेलते खेलते समय का पता ही नही चला.वापसी पर शाम गहरी हो गई थी.ममा बुरी तरह नाराज़ थीं.डांट सुनते सुनते मुझ से नही रहा गया.मैं ज़ोर से बोल पड़ी.''ममा कुत्तों के डर से क्या बाहर निकलना छोड़ दूँ?आप ही तो कहा करती थीं कि बच्चों को बहादुर बनना चाहिए'' बहन ने मुझे चुप रहने का इशारा भी किया लेकिन मैंने वो सब कुछ कह दिया जो मेरे मन में इतने दिन उलझ रहा था. कह तो डाला पर लगा ,अब तो ममा की खूब डांट खानी पड़ेगी,लेकिन जाने क्यों ममा खामोश हो गई थीं. उस समय कोई जवाब नही दिया था उन्होंने.लेकिन रात मेरे सोने से पहले मेरे पास आई थीं और जो कुछ उस रात उन्होंने कहा था वो मुझे आज भी अच्छी तरह याद है. उन्होंने कहा था,''बेटा तुम्हारी बात अपनी जगह बिल्कुल सही है.हाँ,मैं ही तुम लोगों को बहादुर बनने का सबक दिया करती थी.लेकिन अब जो कुछ कहती हूँ वो मेरे अन्दर का तजरबा और डर कहलवाता है मुझ से.बेटी की माँ होने के नाते मैं जानती हूँ की कोई भी माँ अपनी बेटी को कितना ही बहादुर बनाने की कोशिश करे,ये दुनिया ये समाज उसे बहादुर नही बनने देता. ''तुम्हें कुत्तों से डर लगता था ना,और मैं तुम्हें उनसे ना डरने की नसीहत दिया करती थी.क्यूंकि मैं जानती हूँ की कुत्ते हमें तब तक नुकसान नही पहुँचाते हैं जब तक हम उन्हें ना छेड़ें. वो तो तुम्हारे अन्दर डर का अहसास था जो तुम्हें डराता था,मैं बस वही अहसास ख़त्म करना चाहती थी. ''लेकिन अब जो मैं रोकती हूँ तो इसलिए कि इस दुनिया में कुत्तों से कहीं ज्यादा खतरनाक जानवर क़दम क़दम पर घात लगाए बैठे रहते हैं.ये वो जानवर हैं जिन्हें छेड़ना तो क्या,नज़र उठा के देखा भी जाय तब भी ये हमला करने से नही चूकते. उनकी बातें उस समय मेरी समझ में नही आई थीं और ना ही मैंने कोई और सवाल पूछा था.एक तो ये बातें थोडी डरावनी थीं ,दूसरे मुझे बड़ी तेज़ नींद आरही थी.
लेकिन एक बात ज़रूर हुयी थी इस वाकये के बाद.ममा की रोक टोक काफ़ी कम हो गई थी.ये और बात है कि कुछ उनकी बातों का असर था कुछ पापा की नापसंदीदा निगाहों का खौफ ,हम ने ख़ुद ही बाहर निकलना कम कर दिया. घर से स्कूल और स्कूल से घर .यही रूटीन बन गई थी हमारी.
ममा से उस रात उनकी उन बातों का मतलब तो नही पूछ सकी थी,लेकिन गुज़रता वक़्त बहुत जल्दी मुझे उनकी बातों का मतलब समझाने लगा था,और साथ ही ये अहसास भी बड़ी शिद्दत से हुआ था की जिन जानवरों से हमारा वास्ता आते जाते रोज़ पड़ता है,वो तो गली के उन आवारा कुत्तों की बिनिस्बत कई गुना ज्यादा खतरनाक थे.

20 comments:

कुश said...

बहुत गहरी बात लिखी आपने.. आपका डर तो शायद चला गया है पर पता नही क्या माँ का डर भी कभी जा पाएगा??? बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है आपकी ये पोस्ट.. क्या आज़ाद देश में स्वच्छन्द घूमा भी नही जा सकता..

डॉ .अनुराग said...

कंक्रीट मे बसा जानवर सचमुच ज्यादा खतरनाक है ,ये चालाक भी है ओर धृत भी है. वैसे भी कहते है की लड़किया अपने आप वक़्त से पहले अपनी एक छटी इन्द्री खोल लेती है....

Abhishek Ojha said...

ऐसे जानवरों की समाज में कमी नहीं है... इनका ख़त्म होना भी अभी इतना आसान नहीं दिखता... जब तक इन कुत्तों और भेडियों का सफाया नहीं हो जाता इनसे बचने के सिवाय लड़कियों के पास कोई चारा नहीं है... ये सच्चाई हमारे समाज की बहुत बड़ी बिडअम्बना है..

खैर अभी के लिए 'कोल्कता' 'मदर ट्रीसा' और 'बिनिस्बत' जैसी कुछ गलतियाँ सुधार लीजिये.. :-)

विजय गौड़ said...

ऎसा ही एक सवाल मुझे बचपन में बहुत तंग करता था, जब थोडा बडा हुआ तो एक कविता लिखी थी लगभग आज से २० वर्ष पहले, पूरी याद नही, कुछ पंक्तियां:-

मेरे मोहल्ले की लड्की मुझे देख मुस्काती है
दबे पांव आती है, बतलाती है
कि उसकी मां ने मना किया है लडको के साथ खेलने से और नल से पानी भरने लग जाती है
अब हमारे साथ न ही उडाती है पतंग
न ही खेलती है गुल्ली डंडा, कंचे
और न ही निकलवाती है अंडे बच्चे.
मेरे मोहल्ले की लड्की मुझे देख मुस्काती है
दबे पांव आती है, बतलाती है
कि उसकी मां ने मना किया है लडको के साथ खेलने से और नल से पानी भरने लग जाती है.

रवीन्द्र प्रभात said...

अत्यन्त सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति !

mamta said...

रक्षंदा ये एक बहुत ही कड़वी सच्चाई है। आपने बहुत ही सहज तरीके से अपनी बात कही है।

VARUN ROY said...

आज आपके ब्लॉग पर जाने का संयोग बना . विचारोत्तेजक आलेख हैं आपके . कुत्ते, चाहे सड़कों पर घूमने वाले हों या कंक्रीट के जंगलों में रहने वाले , वो तभी तक डरा सकते हैं जबतक आप उनसे डरते हैं. एक बार डरना छोड़ दिया तो फ़िर दुनिया आपके क़दमों में रहेगी. keep it up.
वरुण राय

मुनीश ( munish ) said...

ur views have depth of an ocean n height of everest ! i agree.

मुनीश ( munish ) said...

phonetically mother ''treeza '' is correct abhishek.

Batangad said...

बिल्कुल नहीं। कुत्तों के डर से बाहर निकलना तो क्या कुछ भी मत छोड़िए। अवारा कुत्तों से जहां तक हो बचना ही चाहिए। लेकिन, कुत्ता काटने दौड़े तो, मारिए। क्योंकि, कुत्तों को एक बार काटने की आदत पड़ी तो, फिर इनके दांत और पैने हो जाएंगे।
आपने बहुत गहरी बात कह डाली है।

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

राजेश रेड्डी ने यों ही नहीं ये शेर कह दिया-

मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम-सा बच्चा,
बड़ों की देखकर दुनिया बड़ा होने से डरता है.

राज भाटिय़ा said...

रक्षंदा तुम्हारी मां की तरह,हर समझ दार मां अपनी बेटी को यही शिक्षा देती हे, ओर हर समझदार बेटी मां की बात मान लेती हे तुम्हारी तरह से,बहुत अच्छी बात लिखी हे आज तुम ने,काश सारी बेटिया भारत की तुम्हारी तरह से हो.

Udan Tashtari said...

एक सार्थक आलेख के लिए बधाई.

rakhshanda said...

विजय जी ,सब से पहले तो शुक्रिया मुझे समझने का,और इसके साथ जो कविता आपने लिखी है,
मेरे मोहल्ले की लड्की मुझे देख मुस्काती है
दबे पांव आती है, बतलाती है
कि उसकी मां ने मना किया है लडको के साथ खेलने से और नल से पानी भरने लग जाती है

कितना सही लिखा है आपने,यही सच है,कितना जालिम सच है,जब उम्र के इस दौर में एक लड़की को इस बात का अहसास होता है तो,उसकी फीलिंग्स का आप अंदाजा नही कर सकते,एकदम से उन से उनका बचपन छीन लिया जाता है,एक एक कदम पर यूँ अहसास दिलाया जाता है जैसे वो कोई पैदाईशी मुजरिम हों,एकदम से हँसते खिलखिलाते अपने संगी साथियों के साथ कहकहे लगाते कुछ हाथ उनकी हँसी छीन ले जाते हैं,कुछ बदसूरत निगाहें उन्हें अहसास दिलाने लगती हैं कि इस हँसी को दबा लो,तुम आजाद नही हो ,उड़ने से पहले देखो कि कितने अकाब अपनी लाल ,लाल आंखों से तुम्हें घूर रहे हैं.

rakhshanda said...

अभिषेक,really बड़ी तेज़ निगाहें हैं आपकी,इस बार मैंने पूरी कोशिश की थी कि ऐसी कोई गलती ना हो पर क्या करूँ,प्रॉब्लम ये हैं कि मैं गूगल इंग्लिश ट्रांसलेशन पे लिखती हूँ,इसी वजह से कितना भी कोशिश करूँ कहीं न कहीं ,गलती हो ही जाती है.बहेरहाल आप ने अपना वादा पक्का निभाया.जिंदगी में भी हमें आप जैसा ही careful होना चाहिए.thank u.

rakhshanda said...

अंत में आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया.आपके दिए हुए हौसले ही आने वाले कल में मुझे मज़बूत बनायेंगे .इंशाल्लाह

तृप्ति said...

इतना अच्छा उदाहरण देकर आपकी ममा ने इतनी बड़ी सीख दी वाकई हृदयस्पर्शी लेख है!

मुनीश ( munish ) said...

Rakshanda i alvez support whatever u say n u...u give all tavajjo to the one finding faults in ur writing. isn't it bizzare?

Anonymous said...

bahut gehri baat badi saalta se kahi aapne,bahut khub,magar in se dar kar jeevan nahi jiya ja sakta,ha khud ko sambhalkar rakhne ki takad apnani hogi.

बाल भवन जबलपुर said...

ममा से उस रात उनकी उन बातों का मतलब तो नही पूछ सकी थी,लेकिन गुज़रता वक़्त बहुत जल्दी मुझे उनकी बातों का मतलब समझाने लगा था,और साथ ही ये अहसास भी बड़ी शिद्दत से हुआ था की जिन जानवरों से हमारा वास्ता आते जाते रोज़ पड़ता है,वो तो गली के उन आवारा कुत्तों की बिनिस्बत कई गुना ज्यादा खतरनाक थे.
sachaai hai